भोपाल गैस त्रासदी दिवस (3 दिसम्बर) पर विशेष : 38 वर्षों बाद भी हरे हैं गैस त्रासदी पीड़ितों के

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Bhopal gas tragedy day: 3 दिसंबर, भोपाल गैस कांड दिवस पर विशेष

विनीत माहेश्वरी (संवाददाता) 

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मध्य प्रदेश के भोपाल शहर में वर्ष 1984 में हुई भयानक गैस त्रासदी की घटना को पूरी दुनिया के
औद्योगिक इतिहास की सबसे बड़ी और हृदयविदारक औद्योगिक दुर्घटना माना जाता है। 3 दिसम्बर
1984 को आधी रात के बाद यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) से निकली जहरीली गैस
‘मिथाइल आइसोसाइनाइट’ ने हजारों लोगों की जान ली थी। उस जानलेवा त्रासदी से लाखों की संख्या
में लोग प्रभावित हुए थे। दुर्घटना के चंद घंटों के भीतर ही कई हजार लोग मारे गए थे और मौतों का
यह दिल दहलाने वाला सिलसिला उस रात से शुरू होकर कई वर्षों तक अनवरत चलता रहा। भोपाल
गैस कांड को 38 साल बीत जाने के बाद भी इसका असर पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है और इस

त्रासदी से पीडि़त होने वालों के जख्म आज भी हरे हैं। यह हादसा पत्थर दिल इंसान को भी इस कदर
विचलित कर देने वाला था कि हादसे में मारे गए लोगों को सामूहिक रूप से दफनाया गया और
उनका अंतिम संस्कार किया गया जबकि करीब दो हजार जानवरों के शवों को विसर्जित करना पड़ा
और आसपास के सभी पेड़ बंजर हो गए थे।
एक शोध में यह तथ्य सामने आया है कि भोपाल गैस पीडि़तों की बस्ती में रहने वालों को दूसरे क्षेत्रों
में रहने वालों की तुलना में किडनी गले तथा फेफड़ों का कैंसर 10 गुना ज्यादा है। इसके अलावा इस
बस्ती में टीबी तथा पक्षाघात के मरीजों की संख्या भी बहुत ज्यादा है। इस गैस त्रासदी में पांच लाख
से भी ज्यादा लोग प्रभावित हुए थे जिनमें से हजारों लोगों की मौत तो मौके पर ही हो गई थी और
जो जिंदा बचे वे विभिन्न गंभीर बीमारियों के शिकार होकर जीवित रहते हुए भी पल-पल मरने को
विवश हैं। इनमें से बहुत से लोग कैंसर सहित बहुत सी गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं और घटना के
38 साल बाद भी इस गैस त्रासदी के दुष्प्रभाव खत्म नहीं हो रहे हैं। विषैली गैस के सम्पर्क में आने
वाले लोगों के परिवारों में इतने वर्षों बाद भी शारीरिक और मानसिक रूप से अक्षम बच्चे जन्म ले रहे
हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक गैस त्रासदी से 3787 की मौत हुई और गैस से करीब 558125 लोग
प्रभावित हुए थे। हालांकि कई एनजीओ का दावा रहा है कि मौत का यह आंकड़ा 10 से 15 हजार के
बीच था तथा बहुत सारे लोग अनेक तरह की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के भी शिकार हुए।
विभिन्न अनुमानों के मुताबिक करीब 8 हजार लोगों की मौत तो दो सप्ताह के भीतर ही हो गई थी
जबकि करीब 8 हजार अन्य लोग रिसी हुई गैस से फैली संबंधित बीमारियों के चलते मारे गए थे।
हजारों लोगों के लिए काल बने और लाखों लोगों की जिंदगी बर्बाद कर देने वाले भोपाल में
यूसीआईएल के कारखाने का निर्माण वर्ष 1969 में हुआ था जहां ‘मिथाइल आइसोसाइनाइट’ (मिक)
नामक पदार्थ से कीटनाशक बनाने की प्रक्रिया शुरू की गई थी। वर्ष 1979 में मिथाइल
आइसोसाइनाइट के उत्पादन के लिए एक नया कारखाना खोला गया लेकिन भोपाल गैस त्रासदी की
घटना के समय तक उस कारखाने में सुरक्षा उपकरण ठीक हालात में नहीं थे और वहां सुरक्षा के
अन्य मानकों का पालन भी नहीं किया जा रहा था। कारखाने के टैंक संख्या 610 में निर्धारित मात्रा
से ज्यादा एमआईसी गैस भरी हुई थी और गैस का तापमान निर्धारित 4.5 डिग्री के स्थान पर 20
डिग्री था। पाइप की सफाई करने वाले हवा के वेंट ने काम करना बंद कर दिया था। इसके अलावा
बिजली का बिल बचाने के लिए मिक को कूलिंग स्तर पर रखने के लिए बनाया गया फ्रीजिंग प्लांट
भी बंद कर दिया गया था। 3 दिसम्बर 1984 को इस कार्बाइड फैक्टरी से करीब 40 टन गैस का जो
रिसाव हुआ उसका एक बड़ा कारण माना गया कि टैंक नंबर 610 में जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट
गैस के साथ पानी मिल जाने से रासायनिक प्रक्रिया होने के परिणामस्वरूप टैंक में दबाव बना और
टैंक का अंदरूनी तापमान 200 डिग्री के पार पहुंच गया जिससे धमाके के साथ टैंक का सेफ्टी वाल्व
उड़ गया था और यह जहरीली गैस देखते ही देखते पूरे वायुमंडल में फैल गई। अचानक हुए जहरीली
गैस के इस रिसाव से बने गैस के बादल हवा के झोंके के साथ वातावरण में फैल गए और इसकी
चपेट में आने वाले लोग मौत की नींद सोते गए।
मिक के रिसाव के उपरांत गैस के बादल में फोस्जीन हाइड्रोजन सायनाइड कार्बन मोनो-ऑक्साइड
हाइड्रोजन क्लोराइड इत्यादि के अवशेष भी पाए गए थे। जिन लोगों के फैंफड़ों में सांस के जरिये गैस
की ज्यादा मात्रा पहुंच गई वे सुबह देखने के लिए जीवित ही नहीं बचे। बहुत सारे लोग ऐसे थे
जिन्होंने नींद में ही अपनी आखिरी सांस ली। लोगों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यह

सब हो क्या रहा है? गैस के कारण लोगों की आंखों और सांस लेने में परेशानी हो रही थी सिर चकरा
रहा था बहुतों को कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था। हजारों लोगों के एकाएक अस्पतालों में पहुंचने से
डॉक्टरों को भी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि जहरीली गैस से पीडि़त इतने सारे लोगों का किस
प्रकार और क्या इलाज किया जाए क्योंकि उनके पास भी मिक गैस से पीडि़त लोगों के इलाज का
कोई अनुभव नहीं था। वे इस रासायनिक आपदा के उपचार के लिए पूर्ण रूप से तैयार नहीं थे।
भले ही गैस रिसाव के करीब आठ घंटे बाद भोपाल को जहरीली गैस के असर से मुक्त मान लिया
गया था किन्तु हकीकत यह है कि इस गैस त्रासदी के 38 वर्षों बाद भी भोपाल उस हादसे से उबर
नहीं पाया है। हादसे से पर्यावरण को भी ऐसी क्षति पहुंची जिसकी भरपाई सरकारें आज तक नहीं कर
पाई हैं। सरकारों का इस पूरे मामले में रूख संवेदनहीन ही रहा है। कई रिपोर्टों में इस क्षेत्र में भूजल
प्रदूषण की पुष्टि होने के बाद भी सरकार द्वारा जमीन में दफन जहरीले कचरे के निष्पादन की कोई
ठोस नीति नहीं बनाई गई। दरअसल इस भयावह गैस त्रासदी के बाद हजारों टन खतरनाक अपशिष्ट
भूमिगत दफनाया गया था और सरकारों ने भी स्वीकार किया है कि यह क्षेत्र दूषित है। विभिन्न
रिपोर्टों में बताया जाता रहा कि यूनियन कार्बाइड संयंत्र के आसपास की 32 बस्तियों का भूजल
प्रदूषित है और यह सरकारी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही रही कि गैस पीडि़त वर्ष 2014 तक इसी
प्रदूषित भूजल को पीते रहे। हालांकि वर्ष 2014 में इन क्षेत्रों में पानी की पाइपलाइन डाली गई लेकिन
तब तक जहरीले रसायन लोगों के शरीर में गहराई तक घुल चुके थे।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हालांकि यूनियन कार्बाइड कारखाने के कुछ टन कचरे का निस्तारण इन्दौर
के पास पीथमपुर में किया जा चुका है लेकिन पर्यावरण पर उसका क्या असर पड़ा यह एक
रहस्यमयी पहेली है। यहां जहरीली गैसों का खतरा अभी भी बरकरार है क्योंकि उस त्रासदी के कई
टन जहरीले कचरे का निस्तारण अब भी एक बड़ी चुनौती है जो हादसे की वजह बने यूनियन कार्बाइड
कारखाने में कवर्ड शेड में मौजूद है। इसके खतरे को देखते हुए यहां आम लोगों का प्रवेश वर्जित है।
जहरीली गैस के कारखाने से निकले इस खतरनाक कचरे के निपटान के लिए सरकार कोई गंभीर
प्रयास नहीं कर पाई है और करीब 38 सालों से पड़ा यह कचरा कारखाने के आसपास की जमीन जल
और वातावरण को प्रदूषित कर रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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