



विनीत महेश्वरी (सवांददाता )
नियमों के मुताबिक नार्को टेस्ट कराने के लिए व्यक्ति की सहमति जरूरी है। हालांकि नार्को टेस्ट के दौरान दिए गए बयान अदालत में स्वीकार्य नहीं हैं सिवाय कुछ परिस्थितियों के जब अदालत को लगता है कि मामले के तथ्य इसकी अनुमति देते हैं।
Narco Analysis Test। अपराधियों से सच उगलवाने के लिए पुलिस व अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों को तमाम हथकंडे अपनाने पड़ते हैं, फिर चाहे बेहद कड़ी पूछताछ हो या फिर थर्ड डिग्री। लेकिन कई बार उनका वास्ता कुछ ऐसे शातिर अपराधियों से भी पड़ जाता है जो तमाम कोशिशों के बाद भी सच बता
ऐसे में कई बार पुलिस अदालत से इजाजत लेकर अपराधी का नार्को टेस्ट कराती है ताकि केस को उसके अंजाम तक पहुंचाया जा सके। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये नार्को टेस्ट होता क्या है? आइए हम आपको बताते हैं पुलिस के इस ‘ब्रह्मास्त्र’ के बारे में जो बड़े-बड़े अपराधों की गुत्थी सुलझाने में बड़े काम आता है।
नार्को परक्षण या नार्को एनालिसिस एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी व्यक्ति को कुछ दवाएं दी जाती हैं, जो व्यक्ति को आंशिक रूप से अचेत अवस्था में ले जाती हैं। इस तकनीक का उपयोग मुख्य रूप से उन लोगों से छिपी हुई जानकारी निकलवाने के लिए किया जाता है जो नियमित पूछताछ के दौरान सहयोग करने के इच्छुक नहीं होते। जानकारों का मानना है कि जटिल मामलों को सुलझाने और महत्वपूर्ण सुरागों को उजागर करने के लिए नार्कोएनालिसिस टेस्ट किया जाता है।
ने को तैयार नहीं होते।
किसी भी आरोपी का Narco Test करने से पहले उसका Polygraph Test करना अनिवार्य होता है। इस Test को Lie Detector Test भी कहते हैं, जिसमें एक मशीन की मदद से ये देखा जाता है कि आरोपी सच बोल रहा है या झूठ। इस आर्टिकल में हम विस्तार से जानेंगे कि नार्को टेस्ट क्या है और इसे कैसे किया जाता हैं…
- नार्को टेस्ट कैसे किया जाता है?
- नार्को टेस्ट में कौन-सी दवा का प्रयोग किया जाता हैं?
- नार्को टेस्ट के साइड इफेक्ट क्या होते हैं?
नार्को एनालाइसिस टेस्ट (Narco Analysis Test)
पिछले साल दिल्ली के श्रद्धा वालकर मर्डर केस का सच जानने के लिए पुलिस ने 1 दिसंबर 2022 को आफताब पूनावाला का नार्को टेस्ट करवाया था। अपनी लिव-इन पार्टनर श्रद्धा वालकर की हत्या करके 35 टुकड़े करने के आरोपी आफताब पूनावाला से जांच एजेंसियों को संतोषजनक जानकारी नहीं मिल पाई थी। जिसकी वजह से उसका नार्को टेस्ट करवाया गया था।
इस टेस्ट की वैधता पर हमेशा से सवाल और विवाद उठते रहे हैं और न्यायालय इसको कई बार मान्य नहीं मानता है।
नार्को टेस्ट डिसेप्शन डिटेक्शन टेस्ट (Deception Detection Test) होता है, जिस कैटेगरी में पॉलीग्राफ और ब्रेन-मैपिंग टेस्ट भी आते हैं। अपराध से जुड़ी सच्चाई को सर्च करने में नार्को टेस्ट काफी मदद कर सकता है। यह टेस्ट व्यक्ति को सम्मोहन (हिप्नोटिज्म) की स्थिति में ले जाता है और व्यक्ति जानकारी देने से पहले सोचने-समझने की स्थिति में नहीं रहता है। बता दें न्यायालय में नार्को टेस्ट की रिपोर्ट मान्य नहीं होती है, लेकिन जांच एजेंसियां थर्ड डिग्री टॉर्चर के मानवीय विकल्प के रूप में इसके इस्तेमाल की अनुमति लेती हैं।
नार्को टेस्ट से पहले व्यक्ति का किया जाता है फिटनेस टेस्ट
नार्को टेस्ट की टीम में एनेस्थिसियोलॉजिस्ट, साइकोलॉजिस्ट, टेक्नीशियन और मेडिकल स्टाफ होता है। पहले आरोपी की नसों में इंजेक्शन से एनेस्थीसिया ड्रग (हिप्नोटिक्स ड्रग्स) दिया जाता है और फिर व्यक्ति के हिप्नोटिक स्टेज पर पहुंचने के बाद उससे जरूरी सवाल किए जाते हैं।
नार्को टेस्ट से पहले व्यक्ति का फिटनेस टेस्ट किया जाता है। जिसमें लंग्स टेस्ट, हार्ट टेस्ट जैसे प्री-एनेस्थिसिएटिक टेस्ट होते हैं। वहीं, नार्को टेस्ट के दौरान व्यक्ति की हिप्नोटिक स्टेज को मॉनिटर करने के लिए कुछ डिवाइस का इस्तेमाल भी किया जाता है।
जब अदालत को लगता
नार्को टेस्ट के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवा की डोज आरोपी/व्यक्ति के वजन पर निर्भर करती है। इस सीरम की डोज हर व्यक्ति के लिए अलग हो सकती है और मॉनिटरिंग डॉक्टर असर को देखते हुए डोज कम या ज्यादा कर सकता है। दवाएं व्यक्ति को हिप्नोटिक स्टेज में डाल देती हैं, जिसके कारण वह जानबूझकर कुछ बोल या छिपा नहीं सकता है। ऐसे में आपको सवालों के जवाब मिलने लगते हैं।
हालांकि, व्यक्ति लंबे जवाब देने की स्थिति में नही होता और वह छोटे-छोटे हिस्सों में जानकारी देता है। 26/11 मुंबई हमले में नार्को टेस्ट ने सच उजागर करने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, लेकिन आरुषि मर्डर केस में इस परीक्षण से कामयाबी नहीं मिली थी। अगर नार्को टेस्ट में मिली जानकारी सबूतों को जुटाने में मदद करती है, तो यह सफल माना जा सकता है। हालांकि, इस टेस्ट की सफलता का फैसला कोर्ट पर निर्भर करता है।
नार्को टेस्ट के होते है कई मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव
नार्को टेस्ट के मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव भी होते है। जिससे चिड़चिड़ापन, चिंता जैसी मनोवैज्ञानिक समस्याएं देखने को मिल सकती हैं। कुछ मामलों में नार्को टेस्ट के बाद लंबे समय तक एंग्जायटी और कमजोर याददाश्त भी रिपोर्ट की जाती है।
एक स्वस्थ व्यक्ति पर नार्को टेस्ट में इस्तेमाल हुई दवा का दुष्प्रभाव होना ना के बराबर होता है। लेकिन, हिप्नोटिक्स ड्रग की हाई डोज के कारण रेस्पिरेटरी और हार्ट पेशेंट का ब्लड प्रेशर बहुत ज्यादा गिर जाता है, जिसके कारण सांस लेना मुश्किल हो सकता है और कोमा या मृत्यु जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। इसलिए नार्को टेस्ट से पहले व्यक्ति का फिटनेस टेस्ट किया जाता है।
नार्को टेस्ट सिर्फ सरकार द्वारा प्रामाणित सरकारी संस्थाओं और विशेषज्ञों की देखरेख में ही किया जाता है, जिसके लिए न्यायालय का अनुमति प्रमाण पत्र आवश्यक होता है। इसलिए कोई भी सामान्य व्यक्ति या संस्था इस टेस्ट को नहीं करवा सकती।
कई देशों में नार्को टेस्ट की अनुमति नहीं
कुछ देशों में विशिष्ट परिस्थितियों में नार्को टेस्ट की अनुमति दी जाती है, जबकि कई देशों में यह पूरी तरह से प्रतिबंधित हैं। जिन देशों में इसकी अनुमति है, वहां इसके उचित उपयोग को सुनिश्चित करने, लोगों के अधिकारों की रक्षा करने और दुरुपयोग को रोकने के लिए कड़े नियम होते हैं।
हालांकि, आलोचकों ने नार्को टेस्ट की विश्वसनीयता, वैधता और नैतिक निहितार्थों के बारे में महत्वपूर्ण चिंताएं जताई हैं। उनका तर्क है कि जानकारी निकालने के लिए दवाओं का उपयोग एक व्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन करता है और उनकी नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है।
इसके अतिरिक्त, नार्कोएनालिसिस के माध्यम से प्राप्त जानकारी की सटीकता अत्यधिक विवादास्पद है, क्योंकि यह प्रक्रिया याददाश्त पर बहुत अधिक निर्भर है, जो बाहरी कारकों से प्रभावित हो सकती है।