



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता)
सोनिया गांधी जी के सुपुत्र राहुल गांधी पिछले कुछ समय से भारत को जोडऩे की तरकीबें जानने के
लिए पैदल यात्रा पर निकले हुए हैं। उनका कहना है कि वे आम आदमी से मिल रहे हैं और उनसे
उन्हें भारत जोडऩे के सूत्र मिल रहे हैं। शास्त्रों में लिखा है कि पर्यटन से ज्ञान बढ़ता है, बुद्धि
विकसित होती है। महात्मा गांधी जी भी जब दक्षिणी अफ्रीका से वापिस आए थे तो उनके मन में भी
देश के लिए कुछ करने की छटपटाहट थी। तब गोपाल कृष्ण गोखले जी ने उनकी इस छटपटाहट की
सराहना करते हुए कहा था कि देश के लिए कुछ करने से पहले देश को समझ लो। बात हैरान करने
वाली जरूर थी। गांधी जी तो काठियावाड़ के ही रहने वाले थे। वे देश को जानते बूझते ही थे। तब
गोखले ने ऐसा क्यों कहा? गोखले का कहना था कि यह देश बहुत बड़ा है और आंतरिक रूप से एक
होते हुए भी बाहरी विभिन्नताओं से भरा पड़ा है। उन विभिन्नताओं को एक बार समझ लोगे तो उनके
नीचे बह रही समग्र एकात्म अंतरधारा को भी अनुभव कर सकोगे। इसका तरीका क्या होगा? गोखले
का कहना था देश भर में घूमने के लिए निकल पड़ो। बस, काम हो जाएगा। लेकिन यात्रा प्रायोजित
नहीं होना चाहिए। अपने मन से घूमो। मोहनदास कर्मचंद गांधी साल भर से भी ज्यादा देश में घूमते
रहे और इस घुमक्कड़ी से वे महात्मा हो गए। ताज्जुब है उन्होंने अपनी इस यात्रा में उन अंग्रेज़ों को
भी भला बुरा नहीं कहा जिन्होंने उन्हें दक्षिणी अफ्रीका में बहुत अपमानित किया था। गांधी जी का
कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं था। वे केवल उन लोगों को जान व समझ लेना चाहते थे जिनके लिए वे
अपना जीवन खपाने वाले थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी इस देश को समझने का उपक्रम किया
था।
जवाहर लाल के लिए यह समझना बूझना और भी जरूरी था क्योंकि उनका परिवार शताब्दियों पहले
से उस अभिजात्य समुदाय में शामिल हो चुका था जो वक्त के शासकों के ज्यादा समीप होते हैं और
सामान्य जनमानस से कट चुके होते हैं। लेकिन नेहरू ने देश को समझने बूझने के लिए गांधी जी का
तरीका नहीं अपनाया। वह कष्टकारी तो था ही, लम्बा भी था। नेहरू ने इसको समझने के लिए
किताबों का सहारा लिया। ये किताबें या तो तुर्कों व मुगलों की लिखी हुई थीं या फिर ब्रिटिश
नौकरशाही की। कुछ पुरानी हिंदुस्तानी किताबों का भी उपयोग किया। लेकिन उसमें नेहरू जी की एक
दिक्कत थी। वे मूल ग्रंथ नहीं पढ़ सकते थे क्योंकि उन्हें वह भारतीय भाषा नहीं आती थी। इसलिए
इस काम के लिए भी वे उन्हीं यूरोपीय विद्वानों पर निर्भर रहे जो उन दिनों स्वयं भी अपने
साम्राज्यवादी हितों के लिए भारत को समझने की कोशिश कर रहे थे। अपने इसी उपक्रम में उन्होंने
‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ लिख कर भारत को खोज लेने की घोषणा कर दी। मुझे लगता है उनका
अभिप्राय भारत को समझने से ही रहा होगा, खोजने का दंभ तो शायद वे भी नहीं पाल सकते थे।
मान लेना चाहिए कि राहुल गांधी ने अपनी यात्रा शरू करने से पहले नेहरू की यह किताब जरूर पढ़ी
होगी। यह इस किताब में तो दर्ज नहीं है लेकिन अब तक राहुल गांधी को यह भी पता चल ही गया
होगा कि भारत देश के ताज़ा इतिहास में दर्ज है कि कांग्रेस पार्टी ने आजादी की अपनी सांविधानिक
लड़ाई में अंतिम प्रस्ताव भारत को दो हिस्सों में तोडऩे का किया था।
कांग्रेस ने इस प्रस्ताव में यह पारित किया था कि भारत को तोड़ कर उसके एक हिस्से को, जिसे
पुरानी किताबों में सप्त सिन्धु भी कहा जाता है, तोड़ कर पाकिस्तान नाम से नया देश बना दिया
जाए। जब राहुल गांधी जी की भारत जोड़ो यात्रा के बारे में मैंने सबसे पहले सुना तो मैं इसी भ्रम का
शिकार हो गया था कि शायद वे जवाहर लाल नेहरू की इस ऐतिहासिक भूल का प्रायश्चित करने के
लिए भारत को एक बार पुन: जोडऩे के अभियान में निकले हैं। लेकिन यात्रा देख कर मुझे अपने इस
भ्रम से निकलने में सहायता मिली। वे बीच बीच में चुनावों की बातें भी कर रहे हैं। उन्होंने इस यात्रा
में अनेक पक्ष और अनेक विपक्ष निर्माण कर लिए हैं। दुर्भाग्य से उन्हें इस देश की आंतरिक एकता
के सूत्र दिखाई नहीं दे रहे हैं। उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा निर्मित कृत्रिम भेद ज्यादा दिखाई दे
रहे हैं। लेकिन इसमें उनका दोष नहीं है। आंतरिक एकता यानी भारत की आत्मा के दर्शन करने और
उसे अनुभव करने के लिए भारतीय मानस का होना बहुत जरूरी है। भारतीय मानस राजनीति में से
निर्मित नहीं होता बल्कि वह यहां की आध्यात्मिक चेतना में से विकसित होता है। दुर्भाग्य से
मोतीलाल से लेकर राहुल गांधी तक, ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के सिखाने पर, भारत की इसी
आध्यात्मिक चेतना को साम्प्रदायिकता कह कर, उससे लडऩे का संकल्प दोहराते रहे। जो भारत की
आंतरिक एकता के सूत्रों से लडऩे के लिए जूझ रहा हो, वह भारत को जोडऩे के नाम पर तोडऩे का
काम करता है। राहुल गांधी इसको शायद न समझ पाएं क्योंकि इसे समझने के लिए देश की मिट्टी
में खपना पड़ता है। लेकिन कांग्रेस के बुढ़ा रहे नेताओं की चिंता जरूर समझ में आती है।
अब तक गांधी-नेहरू परिवार की पीठ पर सवार होकर वे सत्ता के गलियारे में पहुंच जाते थे। लेकिन
सात दशकों में गांधी-नेहरू परिवार के ऊपर से मुलम्मा उतर गया है। अब यह परिवार दूसरों को तो
क्या, स्वयं ही अपने ज़ोर पर सत्ता को छू लेने में कठिनाई अनुभव कर रहा है। लेकिन सलमान
खुर्शीदों को तो अपनी चिंता है। शायद लोग कंपकंपाती ठंड के इस मौसम में आधी बांह की कमीज
पहन कर घूम रहे राहुल गांधी को साधक समझ लें और धोखा खा जाएं। इसीलिए वे चिल्ला कर गला
हलकान किए हैं, मैं उनकी खड़ाऊँ लेकर आ गया हूँ, राम भी पीछे आ रहे हैं। इन्हीं लोगों ने अरसा
पहले राहुल गांधी के गले में कमीज से ऊपर जनेऊ पहना देने का कांड भी किया था। इनका दरद
समझ में आता है, लेकिन राहुल गांधी को सत्ता छिन जाने से छटपटा रहे इन कांग्रेसियों के ये सारे
तांत्रिक प्रयोग अपने शरीर पर करने पड़ रहे हैं । शायद उन्हें भी भ्रम हो गया है कि इन प्रयोगों से वे
महात्मा मान लिए जाएँगे। एके एंटनी ज्यादा गहरे हैं। वे जानते हैं कि कांग्रेस हिन्दु-मुसलमान के
सन्तुलन में गड़बड़ा गई है। इसलिए उन्होंने यात्रा में ही राहुल जी को संकेत दे दिया है। संतुलन ठीक
रखिए। हिन्दुओं को इतना ज्यादा गरियाइए नहीं। अल्पसंख्यक यानि मुसलमान-ईसाई ठीक हैं, लेकिन
क्या उससे यात्रा पूरी हो सकती है क्या? थोड़ा संतुलन बनाइए। संतुलन बिगडऩे से ही तो जहाज़ डूबा
है। अब यदि उसे निकालते समय भी संतुलन ठीक न किया तो बंटाधार नहीं हो जाएगा क्या? लेकिन
शायद सुलेमान खुर्शीद एंटोनी की गहरी बात को ठीक से समझ नहीं पाए।
केरल वालों की नब्ज पकड़ पाना क्या इतना आसान है? संतुलन बिठाने के चक्कर में सुलेमान ख़ुर्शीद
ने राहुल को ही राम बना दिया। लेकिन एंटोनी एक बात भूल गए। हिन्दुस्तान में हिन्दु-मुसलमान का
यह खेल ब्रिटिश सरकार ने अपने हितों के लिए शुरू किया था। उन्होंने इस खेल में कांग्रेस को भी
शामिल कर लिया। खेल ठीक से जम सके, इसके लिए उन्होंने मुस्लिम लीग को रोबोट तैयार कर
लिया। ये तीनों खिलाड़ी हिन्दु-मुस्लिम खेलते खेलते देश को ही तोड़ गए। अब एंटोनी फिर नए सिरे
से हिन्दु-मुस्लिम खेलना चाहते हैं। उनका तो मानना है कि कांग्रेस पिछले कुछ समय से यह खेल
ठीक तरीके से खेल नहीं पाई, इसी कारण कांग्रेस डूब रही है। खुदा के लिए, कांग्रेस दोबारा इस खेल
को शुरू न करे। राहुल गांधी अभी भारत जोड़ो यात्रा में हैं। बीच यात्रा हिन्दु-मुस्लिम खेला देश का
नुक़सान कर सकता है। सबका साथ सबका विकास, देश को लम्बे समय तक यही यात्रा करनी है।
यही भारत के लिए हितकर होगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार है)
प्रशासन की पारदर्शिता
इस बार जो मुख्यमंत्री आए थे, वे एकदम पारदर्शी थे। जिस ओर से भी देखो एकदम आर-पार दिखाई
देते थे। मुख्यमंत्री आते हैं, लेकिन इतने पारदर्शी नहीं। उनका कहना था कि वे प्रशासन भी एकदम
पारदर्शी रखेंगे। सभी को खुशी थी कि मुख्यमंत्री एकदम पारदर्शी हैं। मुसद्दीलाल मेरे पड़ोसी हैं।
उनकी हर बात में नुक्ताचीनी करने की आदत है। सुबह-सुबह आ धमकते हैं चाय सुडक़ने। मैं भी इस
बीच उनसे बतियाता हुआ शेव बना लेता हूँ और वे अपनी भीतर की भड़ास मुझ पर डाल कर चले
जाते हैं, लेकिन कल जब वे आये तो उनके तेवर तने हुये थे तथा वे बैठ नहीं पा रहे थे। मैं बोला-
‘क्यों मुसद्दीलाल, क्या बात है? लग तो ऐसा रहा है कि जैसे तुम्हें पैसों की इस समय सख्त
आवश्यकता है और तुम अपनी बात रखने का कोई नया नायाब गुर ढ़ूँढ़ रहे हैं।’ मुसद्दीलाल की
आँखों में इस बार हल्की-सी चिंगारी उभरी और बुझ गयी, बोले-‘अमाँ शर्मा जी, कभी तो सीरियस रहा
करो। तुमने तीन बार मुझे उधार क्या दे दिया-ले-देकर उसी पचड़े को लेकर मेरी बोलती बंद करना
चाहते हो।’ ‘नहीं, ऐसा नहीं है मुसद्दीलाल। बात दरअसल पारदर्शिता की है। यदि तुमने तीन बार के
उधार में जरा भी ट्रांसप्रेंसी दिखाई होती तो चौथी बार मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी।’ मुसद्दीलाल
ने दाँत बजाये और कहा-‘मुझे पारदर्शिता से खासी चिढ़ है। मानता हूँ पारदर्शिता में सब कुछ साफ-
साफ दिखाई देता है, लेकिन अब तक क्या दिखाई नहीं दे रहा था। किसी विभाग में घपला-गबन
घोटाला जो भी हो रहा था, क्या वह हमारी पारदर्शिता नहीं है। कुछ भी छुपा नहीं था। रिश्वत का
लेन-देन हो रहा था। खरीद-फरोख्त में सौदेबाजी हो रही थी, उसकी जानकारी हरेक मतदाता को थी-
इस पारदर्शिता से कौन अनभिज्ञ था?’ इस बार मैंने उन्हें बीच में ही रोका और कहा-‘आपने मुख्यमंत्री
को देखा है?’ वे बोले-‘एक बार क्या, कई बार देखा है, इसमें नयी बात क्या है?’ ‘नयी बात है
मुसद्दीलाल। यहाँ तुम मात खा गये। वे एकदम ट्रांसपरैंट हैं।
मेरा मतलब साफ-सुथरे हैं। उनके कार्यों में जो पारदर्शिता देखी जा रही है, उनसे तो पूरा विपक्ष
भौंचक्का रह गया है।’ मैंने कहा। उन्होंने पूछा-‘मैं समझा नहीं, लेकिन इतना जरूर जानता हूँ नयी
सरकार कुछ करना चाहती है। सारे मिनिस्टर नये डिटर्जेन्ट से अपनी-अपनी कमीजें धोकर-पहनकर
आये हैं। पहले की बात जाने दो। नये जनादेश की रोशनी में कार्यशैली को देखें तो पारदर्शिता से मेरी
तो आँखें चुँधिया रही हैं।’ ‘अब समझे मेरे भाई तुम पारदर्शिता का अर्थ। एमदम नये संस्करण में नयी
रोशनी। जनमत की उपेक्षा का तो प्रश्न ही नहीं है। हर कार्य जनता से पूछकर जनहित में होगा। मेरा
मतलब पहले वाले लोग अकडक़र अमचूर थे और ये विनम्रता के बोझ तले दबे जा रहे हैं।’ मैं बोला।
मुसद्दीलाल का चेहरा लाल हो गया, वह बोला-‘तुम्हारी मति मारी गयी है। पारदर्शिता को लेकर तो
क्या विवाद हो सकता है-परन्तु हर ओर शोर हो रहा है, लोग दहशत में आ गये हैं। तबादलों की
ताबड़तोड़ और निगमों, बोर्डों में हडक़म्प-इसका मतलब तुम समझते हो?’ ‘क्यों नहीं, यह पारदर्शिता
का ही विकीरण है, जिसके बचाव के लिए लोग इस वैचारिक बदलाव का नया ड्रामा रच रहे हैं।’ मैं
बोला तो मुसद्दीलाल ने अपना सिर पकड़ा और कहा-‘तुम यह पारदर्शिता का आलाप कब त्यागोगे?
मैंने पहले ही कहा सरकार पारदर्शी शासन देने का वादा कर चुकी है और वह देगी भी, लेकिन यह जो
रातों-रात पाले बदलने का ढोंग हो रहा है, क्या उसे पारदर्शिता में नहीं माना जा सकता है?’
(स्वतंत्र लेखक)
‘यात्रा’ से अलग विपक्ष
यकीनन विपक्षी एकता पर अब बड़ा सवालिया निशान स्पष्ट होने लगा है। सभी छोटे-बड़े राजनीतिक
दलों के स्वार्थ, लक्ष्य और उनकी सियासत अलग-अलग है। वे उन्हीं में खुश और संतुष्ट रहना चाहते
हैं। बयानबाजी के निशाने पर, बेशक, प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा हैं, लेकिन एक भी गोलबंद प्रयास
अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है कि विपक्ष एक साझा राजनीतिक लड़ाई लडऩे और भाजपा को पराजित
करने के मूड में है। कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ नए साल में 3 जनवरी को उप्र में प्रवेश करेगी।
फिलहाल यात्रा दिल्ली में विश्राम कर रही है। उप्र देश का सबसे बड़ा राज्य है और वहां से 80 सांसद
चुन कर लोकसभा में आते हैं। जाहिर है कि दिल्ली का दरवाज़ा लखनऊ के बाद ही खुलता है,
लिहाजा कांग्रेस ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, सपा विधायक शिवपाल यादव, बसपा प्रमुख
मायावती और महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा, भाजपा सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे दिनेश शर्मा को
प्रोफेसर होने के नाते, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया
ओमप्रकाश राजभर आदि को न्योता भेजा है कि वे ‘यात्रा’ में शामिल हों। जम्मू-कश्मीर के पूर्व
मुख्यमंत्रियों-डॉ. फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती-ने न्योता कबूल कर लिया है। वे यात्रा के अंतिम
चरण में, जम्मू-कश्मीर में, जुड़ेंगे, लेकिन अन्य नेताओं ने या तो न्योता न मिलने की बात कही है
अथवा वे यात्रा में शामिल नहीं होंगे।
उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तो सवाल किया है कि आखिर भाजपा को हरा कौन सकता
है? राहुल गांधी के विचार अच्छे हो सकते हैं, लेकिन यह आकलन भी महत्वपूर्ण है कि ज़मीन पर
कौन, कहां मौजूद है? राजनीतिक ताकत किसकी ज्यादा है? इसी तरह तेलंगाना में मुख्यमंत्री एवं
‘भारत राष्ट्र समिति’ के अध्यक्ष के. चंद्रशेखर राव ने कांग्रेस की यात्रा से जुडऩा मुनासिब नहीं
समझा। आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी तो क्यों शामिल होते, क्योंकि वह कांग्रेसी दंश और
उपेक्षा झेलने के बाद ही अलग हुए थे। एक और पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने भी फिलहाल कांग्रेस
से दूरी बनाए रखी है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस पार्टी के प्रति, ज़हरीली स्थिति में है
और लगातार कोसती रही है, लिहाजा पार्टी की अध्यक्ष एवं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी यात्रा का
अघोषित बहिष्कार किया था। महाराष्ट्र में एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार कांग्रेस नेता राहुल गांधी को
‘अपरिपक्व’ करार देते आए हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि विभिन्न क्षेत्रीय दल, कांग्रेस की छतरी
तले जुटने में, परहेज क्यों करते रहे हैं? कांग्रेस आज भी विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन
कांग्रेस और राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने को विपक्ष एकमत नहीं है। हालांकि खुलकर विरोध
भी नहीं किया जा रहा है, लेकिन कथित एकता का प्रयास भी नदारद है।
विपक्षी दलों को एहसास है कि वे अलग-अलग ‘तिनके के समान’ हैं, लेकिन विपक्षी एकता में वे
अपना वर्चस्व छोडऩे को राजी नहीं हैं। ममता के अपने दावे हैं, चंद्रशेखर राव अपने स्तर पर एकता
के छुटपुट प्रयास करते रहे हैं, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सभी विपक्षी दलों की एकता के
आह्वान करते रहे हैं, उन्होंने सोनिया गांधी समेत विपक्ष के कई नेताओं से मुलाकातें भी की थीं,
लेकिन निष्कर्ष अभी तो ‘शून्य’ है। दिलचस्प यह है कि आज भी कांग्रेस 2014 से पहले वाले यूपीए
को याद कर गदगद रहती है। उसे उम्मीद है कि अंतत: विपक्ष उसी के नेतृत्व में लामबंद होगा।
कांग्रेस का एक तबका ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को 2024 के आम चुनाव से जोड़ कर देखने के खिलाफ है,
लेकिन एक और तबका स्वप्न देख रहा है कि 2024 में राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री होंगे! इस बीच
मणिशंकर अय्यर सरीखे वरिष्ठ कांग्रेस नेता भी हैं, जो अखंड, मजबूत भारत के स्थान पर मान रहे
हैं कि भारत आज टूट रहा है। क्या यह विचार यात्रा के खिलाफ नहीं है? कुछ विपक्षी नेता यात्रा से
भावनात्मक तौर पर जुड़ रहे हैं, लेकिन विपक्षी एकता और राहुल गांधी के नाम पर खामोश हो जाते
हैं। इससे विपक्षी एकता की संभावनाएं ही क्षीण होती हैं। अंतत: 2024 के मद्देनजर विपक्षी एकता
कब और कैसे होगी, यह देखना दिलचस्प होगा, अलबत्ता छिन्न-भिन्न विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी और
भाजपा के लिए छोटी-सी भी चुनौती साबित नहीं हो सकता।