



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता)
वर्ष 2021 के पहले नौ महीनों में जहां भारत में चीन से आयात 68.46 अरब डालर थे, वहीं अब
बढक़र वर्ष 2022 के पहले नौ महीनों में 89.66 अरब डालर हो चुके हैं। वर्ष 2021 के पूरे वर्ष में
चीन से आयात 97.5 अरब डालर थे और अगर आयातों की यही गति जारी रही तो वे इस वर्ष 120
अरब डालर पहुंच जाएंगे। यूं तो आयात-निर्यात एक सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन चीन से बढ़ते आयात
इस कारण चिंता का सबब बनते हैं, क्योंकि इससे व्यापार घाटा बढ़ता है और देश की विदेशी मुद्रा
की देनदारी भी। यदि देखा जाए तो इस वर्ष के पहले नौ महीनों में चीन को कुल निर्यात मात्र 13.97
अरब डालर के थे यानी 75.69 अरब डालर का व्यापार घाटा। माना जा रहा है कि यह वर्ष पूर्ण होने
तक चीन से व्यापार घाटा 100 अरब डालर तक पहुंच सकता है, जो एक रिकार्ड होगा। गौरतलब है
कि चीन से बढ़ते आयातों और उसके कारण भारत की चीन पर बढ़ती निर्भरता के मद्देनजर सरकार
ने आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत विभिन्न उपाय अपनाए। सर्वप्रथम 14 उद्योगों को चिन्हित
किया गया, जिनमें इलेक्ट्रॉनिक्स, चिकित्सा उपकरण, थोक दवाएं, टेलिकॉम उत्पाद, खाद्य उत्पाद,
एसी, एलईडी, उच्च क्षमता सोलर पीवी मॉड्यूल, ऑटोमोबाइल और ऑटो उपकरण, वस्त्र उत्पाद,
विशेष स्टील, ड्रोन इत्यादि शामिल थे। बाद में सेमी कंडक्टर को भी इसमें जोड़ा गया। ये वो उद्योग
थे जो अधिकांशत: पिछले 20 वर्षों में चीन से बढ़ते आयातों के समक्ष प्रतिस्पर्धा में पिछडऩे के
कारण बंद हो गए थे अथवा बंदी के कगार पर थे। चीन के द्वारा हिंसक कीमतों पर डंपिंग, चीन
सरकार की निर्यात सब्सिडी और तत्कालिक सरकार की असंवेदनशील नीति के तहत आयात शुल्कों में
लगातार कमी ने चीनी आयातों को भारत में स्थान बनाने में सहयोग दिया।
क्यों बढ़ रहे हैं चीन से आयात : आज जब भारत सरकार आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य के तहत
पीएलआई स्कीम, तकनीकी सहयोग और विभिन्न उपायों के माध्यम से बंद हो चुके अथवा बंदी के
कगार पर खड़े उद्योगों को नया जीवन प्रदान करने की कोशिश कर रही है तो ऐसे में क्या कारण है
कि उसके बावजूद चीनी आयात बढ़ते ही जा रहे हैं। देखा जा रहा है कि चीनी इलैक्ट्रॉनिक और
इलेक्ट्रिकल मशीनरी एवं उसके कलपुर्जे और मध्यवर्ती वस्तुओं के आयात अधिक तेजी से बढ़ रहे हैं।
सरकारी तर्क यह है कि चूंकि चीन से आने वाले आयात अधिकांश मध्यवर्ती वस्तुओं में हैं, इसलिए
यह एक अच्छा संकेत है और देश में बढ़ते मैन्युफैक्चरिंग की ओर इंगित करता है। यह भी तर्क
दिया जाता है कि देश में चीनी मध्यवर्ती वस्तुओं के आयात पर मूल्य संवर्धन से देश में रोजगार का
निर्माण भी होता है। यह भी कहा जाता है कि चूंकि चीन से मध्यवर्ती वस्तुएं सस्ते दामों पर आती
हैं, इसलिए उत्पादन लागत भी कम हो जाती है। इस तर्क के आधार पर इकरियर और भूमंडलीकरण
समर्थक अन्य आर्थिक संगठन चीन से बढ़ते आयातों को गलत न मानते हुए, बल्कि उन पर आयात
शुल्क घटाकर उन्हें और ज्यादा बढ़ावा देने की पैरवी करते हैं। गौरतलब है कि देश में चीनी
साजोसामान के भारी विरोध के बावजूद जो चीनी आयात बढ़ रहे हैं, वो इसलिए बढ़ रहे हैं क्योंकि
चीन से आने वाले आयातों का एक बड़ा हिस्सा तैयार उपभोक्ता वस्तुओं का नहीं, बल्कि मशीनरी
और रसायन समेत अन्य मध्यवर्ती वस्तुओं का है।
बड़ा सवाल यह है कि क्या इन मध्यवर्ती वस्तुएं बनाने का सामथ्र्य भारत में नहीं है? शायद यह सही
नहीं है। एक देश जो अंतरिक्ष, सॉफ्टवेयर, ऑटोमोबाइल, मिसाइल समेत कई क्षेत्रों में सुपर पावर है,
वो जीरो टेक्नॉलजी की मध्यवर्ती वस्तुएं नहीं बना सकता, यह समझ के परे है। समझना होगा कि
चीन द्वारा सस्ते माल की डंपिंग और कई अन्य अनुचित हथकंडे अपना कर भारत में क्षमता निर्माण
को बाधित किया गया है, और यह षड्यंत्र रुक नहीं रहा है। कहा जाता है कि व्यापार एक युद्ध है
और उसे उसी प्रकार से संचालित किया जाना चाहिए। इस संबंध में एक्टिव फार्मास्युटिकल
इनग्रोडियंट यानी एपीआई का एक ज्वलंत उदाहरण है। आज से 20 वर्ष पूर्व हमारी एपीआई
आवश्यकताओं की 90 प्रतिशत आपूर्ति भारत ही होती थी, जबकि चीन और अन्य देशों की डंपिंग के
कारण एपीआई उद्योग नष्ट हुआ और आज एपीआई की 90 प्रतिशत आपूर्ति आयातों से होती है।
हमारे दवा उद्योग की इतनी बड़ी निर्भरता केवल आर्थिक ही नहीं स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए भी बड़ा
खतरा साबित हो रही है। मात्र पीएलआई ही नहीं, सरकार को अन्य उपाय भी अपनाने होंगे, ताकि
भविष्य में चीनी आयात फिर से नए बन रहे एपीआई उद्योग को नष्ट न कर सकें। यहां सवाल
केवल चीन से आने वाले प्रत्यक्ष आयातों का ही नहीं है। देश में बड़ी मात्रा में चीनी आयात विभिन्न
आसियान देशों के माध्यम से भी होकर आ रहे हैं।
गौरतलब है कि भारत का आसियान देशों से मुक्त व्यापार समझौता है, जिसके तहत शून्य आयात
शुल्क पर अधिकांश आयात आ जाते हैं। मूल देश की शर्त लगातार जब चीनी आयातों को रोका गया
तो चीनी कंपनियों ने अपनी फैक्टरियां आसियान देशों में ही लगा ली, जिसके कारण उन्हें चीनी
बताकर रोका नहीं जा सकता। इसके अतिरिक्त भारत में कार्यरत कई विदेशी आटोमोबाइल कंपनियां
भी कलपुर्जे विदेशों से मंगा रही हैं। जब भारत ने मोबाईल फोन पर आयात शुल्क बढ़ाए तो कई
विदेशी कंपनियों ने भारत में मैन्यूफेक्चरिंग प्रारंभ कर दी। लेकिन अभी भी बड़ी मात्रा में कजपुर्जे
चीन समेत अन्य देशों से मंगाए जा रहे हैं और हजारों वर्षों से कपड़ा उद्योग भारत का एक बड़ा
उद्योग है और पिछले 100 सालों में आधुनिक कपड़ा उद्योग का भी विकास देखने को मिलता है।
भारत वस्त्र एवं परिधान हेतु कच्चे माल एवं मध्यवर्ती वस्तुओं के क्षेत्र में पर्याप्त क्षमता रखता है,
लेकिन दुर्भाग्य से उसमें भी विदेशों से भारी आयात होते हैं। उदाहरण के लिए, चीन से कपड़ा आयात
2020-21 की तुलना में 2021-22 में 46.2 प्रतिशत अधिक था, जिससे कपड़ा क्षेत्र में क्षमता का
बहुत कम उपयोग हो रहा है। गौरतलब है कि पिछले एक वर्ष में चीन से आने वाले अधिकांश प्रकार
के आयात चाहे वो रसायन हो, प्लास्टिक का सामान हो, वस्त्र हो, मशीनरी हो, पहले से काफी ज्यादा
बढ़ गए हैं।
एक तरफ सरकार द्वारा पीएलआई स्कीम के तहत भारी खर्च कर उन उद्योगों को पुनर्जीवित करने
का प्रयास हो रहा है, जो चीन से प्रतिस्पर्धा न कर पाने के कारण नष्ट हो गए थे अथवा अत्यधिक
रूप से प्रभावित हुए। हालांकि पीएलआई स्कीम एवं अन्य उपायों के परिणाम आने अभी बाकी हैं,
लेकिन इन उपायों के अतिरिक्त भी कुछ प्रयास करने की जरूरत होगी। इस संबंध में हम अमरीका
से सीख सकते हैं। वर्ष 2018 में अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कई भागों में आयात
शुल्क बढ़ाए, कुल मिलाकर चीन से आने वाले 250 अरब डालर के आयातों पर शुल्क बढ़ाकर 25
प्रतिशत कर दिया गया, जिसका असर यह हुआ कि जहां 2017 में इन वस्तुओं के कुल आयात
231.7 अरब डालर थे वो 2021 में 147.5 अरब डालर ही रह गए, यानी आयात शुल्क बढ़ाकर चीन
से आने वाले आयातों पर रोक लगाई गई। इसी तर्ज पर यदि भारत भी आयात शुल्क बढ़ाकर चीन से
आने वाले आयातों पर अंकुश लगाता है तो उसके दो लाभ होंगे। एक, देश का व्यापार घाटा कम होगा
और विदेशी मुद्रा पर बोझ भी घटाया जा सकेगा। दूसरे, देश में उन उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा और
मैन्युफैक्चरिंग जीडीपी में तो वृद्धि होगी ही, रोजगार निर्माण में भी सफलता मिलेगी। यहां यह
उल्लेख करना महत्त्वपूर्ण है कि भारत डब्ल्यूटीओ के नियमों के तहत भी आयात शुल्क 40 प्रतिशत
तक बढ़ा सकता है, जबकि आज भी हमारे आयात शुल्क औसतन 10 प्रतिशत के आसपास ही हैं।
(लेखक कालेज के एसोशिएट प्रोफेसर है)