अपराध बोध (कहानी)

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अपराध-बोध | Hindi Tragedy Story | Aradhana Rai

विनीत माहेश्वरी (संवाददाता) 

मैं हवाई जहाज से उतरते ही एक अजीब चिपचिपाहट में घिर गया था। बस बंबई की सबसे खराब
चीज मुझे यही लगती है। एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही सामने कंपनी की गाड़ी थी। मैं फटाफट
उसमें बैठ गया और वह दुम दबाकर भाग खड़ी हुई। बंबई में कुछ नहीं बदला था फिर भी बहुत कुछ
बदल गया था। कार कालिमा में लिपटी सड़क को रौंदती हुई, बंबई के लोगों को पीछे ध्केलती हुई
भागे जा रही थी। बीच, इमारतें, पेड़, लोग सब पीछे छूटते जा रहे थे।
दोपहर के दो बजे थे। बीच सुस्ता रहा था। सूरज और समुद्र में द्वंद्व युद्ध चल रहा था। लहरें आ-
आकर बार-बार झुलसी रेत को लेप कर रही थीं, उसके जख्मों को सहला रही थीं। बंबई की रफ्रतार
शाम और रात की बजाय इस समय कुछ कम थी या शायद चिपचिपाहट की नदी ने सबकी रफ्रतार
को कुछ कम कर दिया था।
कितनी अजीब बात है…. मेरे लिए बंबई नया नहीं है…. मैं हर महीने यहां आता हूं…… लेकिन आज
बंबई बिल्कुल नया शहर लग रहा है जैसे मैं पहली बार यहां आया हूं या फिर मेरी -ष्टि में कुछ बदल
गया है या फिर मुझे बंबई को देखने की फुर्सत ही अब मिली है।
हमेशा तो मैं टैक्सी में बैठते ही कैफी को फोन मिलाने लगता था या फिर होटल तक पहुंचने तक का
सारा समय उसे नान-वेज जोक्स भेजने में ही बिताता था जो दोस्तों ने मुझे भेजे होते थे। कब ताज
पैलेस आ जाता था पता ही नहीं चलता था। आज सब बदल गया है या फिर मेरी आंखों पर से कैफी
का पर्दा हट गया है और उसके नीचे से सब अपने वास्तविक रूप में नजर आने लगा है। सड़क के
दोनों ओर की इमारतें मैंने पहली बार देखी थीं।
दो साल पहले यहीं ताज पैलेस में ही कैफी से मुलाकात हुई थी, मैं अपनी पत्नी से बेहद प्यार करता
था। पत्नी के बिना रहना मेरे लिए सचमुच एक प्रताड़ना से कम नहीं होता था। फोन पर बातें करते
रहने के बाद भी मैं उसकी कमी बंबई में महसूस करता था। उसकी नौकरी के कारण उसे साथ लाना
भी संभव नहीं होता था। आॅफिस के बाद शामें और रातें बड़ी वीरान होती थीं। ऐसे में कैफी का
मिलना किसी मूल्यवान तोहफे के कम नहीं था। शुरु-शुरु में हम दोनों बस साथ घूमते, चाय पीते,
बातें करते।

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कब वह मेरे बंबई प्रवास की जरूरत बन गई मुझे पता ही नहीं चला। आखिर एक दिन हम दोनों में
एक काॅन्ट्रैक्ट हुआ।
मेरे बंबई प्रवास में वह पूरा समय मेरे साथ रहेगी। जब मैं मीटिंग्ज में जाऊंगा तब भी वह होटल में
मेरे कमरे में ही रहेगी। मेरे बंबई में रहते वह किसी गैर मर्द के साथ रात नहीं बिताएगी। इतने दिन
वह पूरी तरह से मेरी होगी, बिस्तर पर भी और उसके बदले उसे मुंह मांगी रकम मिलेगी। कैफी
आसानी से राजी हो गई।
मैं उसे अपने आने की पूर्व सूचना देता और वह उन तिथियों में मेरे लिए सुरक्षित होती और बंबई
प्रवास मेरे लिए एक सुखद और रंगीन अवकाश बन जाता। मैं बंबई आने के बहाने खोजने लगा। बंबई
के नाम से मन पुलकित आनंदित हो उठता था और मैं कैफी की यादों से सराबोर हो जाता।
सच कहता हूं मैं तब भी पत्नी को बहुत प्यार करता था। कैफी का होना पत्नी के प्रति प्यार को
तनिक भी कम नहीं कर पाया था। दिल्ली में रहते हुए मैं अब भी पूरी तरह एक समर्पित पति था।
उसकी व्यस्तताओं को कुछ कम करने की कोशिश करता, उसकी हर इच्छा-अनिच्छा का ध्यान
रखता। वह भी मुझे बेहद प्यार करती। उसकी क्षमताओं पर कभी-कभी मुझे हैरत होती। मैं उसके
साथ एक सुखद गृहस्थ का अनुभव करता था। लेकिन जाने क्यूं कभी-कभी मैं चाहने लगता कि वह
कैफी की अदा में बिस्तर पर क्यों नहीं आती पर मैं शीघ्र ही इस ख्याल को मन से निकाल देता।
उसकी व्यस्तताओं के बारे में सोचता और शीघ्र ही उसे अर्धांगिनी के शीर्षासन पर बैठा देता। मैं
सौगंध खाकर कहता हूं मैंने उसे कभी कैफी से कमतर नहीं आंका। कैफी के मुकाबले उसकी गरिमा
के आगे हमेशा नतमस्तक हुआ हूं।
लेकिन यह भी सच है कि कैफी का अध्याय भी बंबई में खुल चुका था। दोनों शहरों में मैं अलग-
अलग दो जिंदगियां जी रहा था और दोनों का लुत्फ उठा रहा था।
मेरी पत्नी दिल्ली में अकेली मेरे रिश्तेदारों के साथ निभाती, नौकरी भी करती, घर भी देखती, मेरे
मां-बाप का भी ध्यान रखती। मैं कैफी के आगे भी उसकी प्रशंसा करता। उसकी असीम क्षमताओं का
बखान करता। मैं आशा करता कि कैफी पत्नी की प्रशंसा से रुष्ट होगी पर ऐसा कभी नहीं हुआ। मैंने
सुना था ईष्र्या औरत का दूसरा नाम है पर कैफी में मुझे कोई ईष्र्या नजर नहीं आई।
एक दिन मैंने मूर्खता की थी जो उससे पूछ लिया था और उसके जवाब से भीतर कहीं खुद ही शर्मिंदा
हुआ था। मैं क्यों ईष्र्या करूंगी तुम्हारी पत्नी से? हम दोनों औरतें दो अलग-अलग नदियों के समान
हैं। हमारे रास्ते अलग-अलग हैं। हमारे रास्ते हमारे चुने हुए रास्ते हैं। हमें अपनी सीमाओं का पता है।
अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर नदी अपना स्वरूप खो देती है और विनाश करने वाली बाढ़ बन
जाती है। कोई भी औरत बिना वजह बाढ़ नहीं बनती, उसे बाड़ बनने में ही सुख मिलता है।

पहली बार मुझे कैफी में भी कुछ गहराई नजर आई थी। मैं समझ गया था हर औरत की महिमा
न्यारी है।
बहरहाल मैं बंबई और दिल्ली में दो अलग-अलग जन्म गुजार रहा था और खुश था। पत्नी को मैंने
कैफी के बारे में कुछ नहीं बताया था। अपने मोबाइल में मैंने उसका नाम मोहम्मद कैफ के नाम से
फीड किया था। ऐसा नहीं कि मेरे फोन में किसी लड़की का नाम फीड नहीं है। आॅफिस की सब
लड़कियों के नाम और नंबर फीड हैं और मेरी पत्नी ने कभी इस ओर झांका भी नहीं पर चोर की
दाढ़ी में तिनका होता है इसलिए कैफी मेरे मोबाइल में मोहम्मद कैफ थी।
दुनिया में शायद मुझ जैसा सुखी इंसान कोई नहीं था। मैं सदा सुख से मदमस्त, लहराता घूमता।
दोस्त भी कहने लगे थे, तू तो शायद कभी शादी के बाद भी यूं नहीं दमका।
धीरे-धीरे मेरे सपनों में भी कैफी ने जगह बना ली थी। उसका सौंदर्य मुझे बांधे था। एक बार उसने
कहा भी था, मेरे पेश का उसूल है, काम, दाम और बाय-बाय। सिर्फ तुम हो जिसके साथ मैं बातें
करती हूं वरना यह मेरे पेशे के उसूलों के खिलाफ है।
मैं जानता था मेरे न रहने पर वह गैर मर्दों के साथ रात बिताती थी। मैं उसके लिए भावुक होने लगा
था। मैं उसके लिए सोच कर परेशान हो उठता। पता नहीं वह कैसे सहती होगी इतनी हिंसा, उसका
मन तार-तार रोता होगा।
एक बार पूछा तो कहने लगी अब आदत हो गई है। पहली बार कपड़े उतारना बड़ा तकलीफ भरा और
कष्टदायक था। उसके बाद झिझक खुल गई। अब तो आदमियों की शक्ल देखते ही उसकी किस्म
पता लग जाती है।
भविष्य के बारे में पूछा था तो टका-सा जवाब दिया था कैफी ने, मैं सिर्फ वर्तमान में जीती हूं।
परिवार के बारे में पूछा था तो चेहरा सख्त हो गया था और बोली थी, मैं अकेली हूं, कोई मेरा अपना
नहीं है।
मुझे अपना नहीं मानती। मैंने प्रश्न उसकी ओर उछाल दिया था और आंखें उसके चेहरे पर गड़ा दी
थीं।
कुछ झिझक कर वह बोली थी, तुम तो मेरे कस्टमर हो। हां, बस एक बात है निर्मम नहीं हो।
अपनी जितनी प्रशंसा मैं उसके मुंह से सुनना चाहता था उतनी उसने नहीं की मैंने बात को आया-
गया कर दिया।

फिर जाने क्या हुआ, एक भयंकर तूफान आया। दिल्ली-बंबई दोनों शहर उसमें समा गए। सब तहस-
नहस हो गया। तूफान मुझे बहाए लिए जा रहा था। मेरे पैर उखड़ने लगे थे। तेज हवा में मैं आंखें
खोलने की कोशिश कर रहा था पर असफल हो रहा था। मैं अपने हाथों से चीजों को पकड़ने की
नाकाम कोशिश कर रहा था। मैं चाहता था कुछ तो साबुत बच जाए।
मैंने अपनी कपड़ों की अलमारी में किसी और के कपड़े टंगे देखे थे। पत्नी ने उन संबंधें को स्वीकार
कर लिया। यह एक इत्तेफाक था कि मैं पत्नी को बिना बताए दो दिन पहले घर लौट आया था। मैंने
उसे एक थप्पड़ रसीद किया और बंबई चला आया। इस भयंकर तूफान में भी थप्पड़ की वह अनुगूंज
खो नहीं पाई थी।
मैं भीतर से बिखरने लगा था।
मैं लगातार कैफी को फोन कर रहा था। इन पलों मे मुझे एकमात्र उसी का सहारा था। सिर्फ वही गोद
थी जहां मैं रो सकता था। सिर्फ वही वक्ष था जो मुझे आश्रय दे सकता था। पर वह फोन नहीं उठा
रही थी। बार-बार एक ही गाना बज रहा था और उस गाने को सुनकर मुझे और बेचैनी हो रही थी।
खोलो खोलो दरवाजे,
परदे करो किनारे।
खूंटे से बंधी है हवा,
मिल के छुड़ाओ सारे।
मुझे लग रहा था कोई मुंह चिढ़ा रहा है।
यह भी ठीक है कि मैंने उसे अपने आने की पूर्व सूचना भी नहीं दी थी। मैं यह भी जानता हूं वह
दिन में कहीं आना-जाना पसंद नहीं करती। धूप और चिपचिपाहट उसे बर्दाश्त नहीं।
एक दिन कह रही थी तपस्वी और वेश्या दिन में सोते हैं। जब सारी दुनिया सोती है तो ये दोनों
जागते हैं। शायद वह सोई हो।
मैं अब भी उसे फोन मिलाए जा रहा था और वह कमबख्त उठा नहीं रही थी।
मैंने उसके फोन पर शीघ्रातिशीघ्र मिलने का मैसेज छोड़ दिया था। पर उसका न फोन आ रहा था न
मैसेज। मेरी बेचैनी और घबराहट बढ़ती जा रही थी।

मैं होटल के कमरे में अकेला था। वेटर भी पहचानने लगा था। मेरे चेहरे की व्यग्रता को समझकर वह
भी तमाचा मार गया था, कैफी मैडम आती ही होंगी। बंबई की सड़कों पर ट्रैफिक भी बहुत है कहीं
जाम में फंसी होंगी। जी में आया उसका मुंह तोड़ दूं। उसकी हिम्मत कैसे हुई पर एक और बवाल
खड़ा करने की हिम्मत नहीं हुई।
मेज पर पानी का जग था और खाली दो गिलास उल्टे रखे थे। मैं बार-बार अपने जीवन को उन
खाली उल्टे गिलास से जोड़ने लगा। मुझे दोनों में अद्भुत साम्य नजर आया।
खिड़कियों पर सज्जित परदों से छनकर आती रोशनी से पता लग रहा था कि अभी भी सूरज देवता
ठंडे नहीं हुए हैं। अभी भी कैफी सोई होगी या कहीं पार्लर में बैठी होगी।
होटल का कमरा गुनगुना उठा। मैंने जल्दी से भागकर फोन उठाया, पत्नी का फोन था, मैंने फोन
काट दिया। मैं उसकी शक्ल भी देखना नहीं चाहता था।
मैं बहुत अकेली हो गई थी। कब सब हो गया मुझे पता ही नहीं चला पर अब ऐसा नहीं होगा। प्लीज
एक बार मुझे माफ कर दो। पत्नी का मैसेज आया था।
मैं अपने आपको अपमानित महसूस कर रहा था। अपमान के इस दंश को सहना मेरे लिए दुष्कर था।
मुझे लग रहा था अगर इस समय मेरी पत्नी सामने होती तो शायद मैं उसका गला दबा देता।
मैंने फिर फोन मिलाने की कोशिश की। वही गाना मुझे मुंह चिढ़ा रहा था।
हैलो। उसने फोन उठा लिया।
मैं कब से फोन मिला रहा हूं तुम फोन उठाती क्यों नहीं। मैं लगभग गुस्से से चिल्ला पड़ा।
मैं तुम्हारी बीवी नहीं हूं, ठीक से बात करो।
मैं सकपका गया था।
कैफी से इस व्यवहार की उम्मीद नहीं थी।
फोन तो उठा सकती थीं। मैंने स्वर को कुछ कोमल बनाया।
तुम्हें पता है मैं दिन में कहीं आती-जाती नहीं।
कभी इमरजेंसी में तो अपना व्रत तोड़ सकती हो।

कुछ बोली नहीं थी कैफी।
कितने बजे पहुंचना है?
अभी, जितनी जल्दी हो सके।
वह कुछ नहीं बोली।
मैं इंतजार कर रहा हूं। मैंने कहा और मोबाइल बंद कर दिया। मुझे सारे कमरे में सिर्फ अपनी पत्नी
का चेहरा नजर आ रहा था और मेरी कपड़ों की अलमारी में टंगे उस आदमी के कपड़े… जो मेरी
गैरहाजिरी में मेरी पत्नी के साथ मेरे ही बिस्तर पर…. मैं आपे में नहीं था। मैंने होटल के कमरे में
बैड पर बिछी चादर ही नोच डाली।
मेरा सिर गुस्से से भन्नाने लगा था। मैं गुस्से में एक गिलास तोड़ चुका था।
मैने व्हिस्की मंगा ली। मैं पूरी तरह उसमें डूब जाना चाहता था।
अब मैं निराशा के समुंदर में गहरे कहीं डूबता जा रहा था। कैफी आ गई थी। वह चुप थी। उसने
आकर न कुछ पूछा न कुछ कहा। वह ज्यादातर चुप ही रहती थी। उसे बुलवाना पड़ता था।
मैं बालकनी में खड़ा था। बंबई शहर बहुत छोटा हो गया था। तेइसवीं मंजिल से नीचे चलते लोग चींटे
चींटियां लग रहे थे और कारें भागते हुए कुछ बिंदु। कैफी भी मेरे पास बालकनी में आ खड़ी हुई थी।
कुछ देर पहले मैं उसे बहुत कुछ कहना चाहता था पर अब एकदम खामोश हो गया। मेरे हाथ में अब
भी शराब थी। मैं सोच रहा था जब ईश्वर ने हमें अकेले पैदा किया है तो हम क्यों रिश्तों के बंधनों
में बंधते हैं। रिश्ते हैं तो आशा और उम्मीद है। उम्मीदें हैं तो कष्ट हैं, दुःख हैं।
गिलास में जितनी शराब थी मैंने एक घूंट में पी ली।
कैफी मुझे बालकनी से अंदर ले आई थी।
उसने दरवाजा बंद करके परदा खींच दिया। कमरे में मद्धिम रोशनी थी। वह मेरे चेहरे की ओर
लगातार देख रही थी। जैसे वह जानना चाहती हो कि इतना हड़कंप क्यों मचा रखा था।
कैफी, तुम जानती हो मैं अपनी पत्नी से कितना प्यार करता हूं लेकिन वह किसी और के साथ….

मेरी मुट्ठियां कस गई थीं, कैफी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। मैं उससे प्रतिक्रिया चाहता था।
मैं चाहता था वह मेरी पत्नी के कुकृत्य पर उसे लताड़े पर वह चुप थी। यह सब मेरे लिए असहनीय
था।
उसे क्या जरूरत थी मुझे जलील करने की, उसने एक बार भी नहीं सोचा।
तुमने एक बार भी सोचा था? उसने सवाल दागा।
गुस्से में मैं हकलाने लगा था।
ये औरतजात…. मैंने अभी वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि शेरनी की तरह लपककर कैफी मेरे
सामने आ खड़ी हुई। उसने अपने पेशे के उसूलों को ताक पर रख दिया था।
तुम बीबी को थाली में सजाकर जलालत पेश करो, कोई बात नहीं। अगर वह भी उसी थाली में वही
जलालत वापिस परोस दे तो लगे औरतजात को गाली देने। औरतजात को तब कोसते जब तुम यहां
मेरे साथ न होते।
मेरा मुंह खुला का खुला रह गया।
कैफी ने उसी बिस्तर पर थूक दिया। उसने आगे बढ़कर पर्स उठाया और कमरे से बाहर चली गई।
मैं आंखे फाड़े उसकी गर्वोन्नत चाल को देखता रहा।
कैफी का अध्याय जहां से शुरू हुआ था वहीं खत्म हो गया।
वह अब मेरे फोन काट देती है।
मैं और पत्नी साथ रह रहे हैं पर हमारे भीतर बहुत कुछ पहले जैसा नहीं रहा। पत्नी की आंखों में
गहरा अपराधबोध देखकर मुझे भीतर कहीं खुशी मिलती है।
मैंने अपने और कैफी के संबंध में उसे कुछ नहीं बताया है। मुझे कोई अपराधबोध नहीं सालता।
मैं बंबई अब भी आता हूं। अब भी ताज पैलेस में ठहरता हूं पर अब फोन करने के बावजूद कैफी नहीं
आती।
ताज की वीथियों में अब भी हमारी चर्चा है।

(रचनकार से साभार प्रकाशित)

कविता
फिलिस्तीनी मुहब्बत
-अब्दुल लतीफ अक्ल-
जब नहीं था मुमकिन
मैं लाया सौगातें तुम्हारे लिए
महकता रहा तुम्हारा बदन खयालों में
तुम्हारी सूनी आंखों में
पड़े थे कभी मेरे सपने
मुर्दा
मैं चाहता हूं तुमको अब भी
जब सताती है भूख
सूंघ लेता हूं तुम्हारी खुशबूदार जुल्फे
और पोंछ लेता हूं आंसू
दर्द और धूल से भरा चेहरा
खिल उठता है
तुम्हारी हथेलियों के बीच आते ही
लगता है मैं
अभी पैदा ही नहीं हुआ
फिर भी बढ़ रहा हूं उम्र-दर-उम्र
तुम्हारी निगाहों के सामने
सीखता हूं बहुत कुछ
मेरा वजूद
लेता है शक्ल एक इरादे की
और उड़ जाता है सरहदों के पार
तुम हो मेरा असबाब और नकली पासपोर्ट
हंसता हूं
बिन पकड़े सरहद पार कर जाने की खुशी में
हंसता हूं
शान से
क्या पकड़ पायेगी पुलिस कभी हमें?
अगर पकड़ ले

और कुचल डाले मेरी आंखें
फिर भी, न होगा शिकवा या गिला
शर्म धोकर कर देगी मुझे
साफ और नर्म
घबराकर, मेरे जुनून और ताकत से
बंद कर दे मुझे किसी तनहा कोठरी में
लिख दूंगा तुम्हारा नाम
हर कागज पर
ले जाये अगर
फांसी के तख्ते पर
बरसाते कोड़े दनादन
अपनी मर्जी के मुताबिक
सोचूंगा फिर भी
हम हैं दो दीवाने
मौत के दरवाजे पर
तुम्हारा गेहुंआ रंग
है पहले जैसा
मैं और तुम
हैं एक जिस्म, एक जान
कुचल दिया जायेगा जब मेरा सर
ढकेल दिया जायेगा
सीलनन भरे अंधेरे दोजख में
चाहूंगा तुम्हें भूलना तब
और ज्यादा चाहते हुए।।
(रचनकार से साभार प्रकाशित)

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