



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )
कराची में भी उसका यही धंधा था और बांद्रे में भी यही। कराची में संधू हलवाई के घर की सीढियों
के पीछे तंग-अंधेरी कोठरी में सोता, यहां भी उसे सीढियों के पीछे जगह मिली थी। कराची में मैला-
कुचैला बिस्तर, जंग-लगा छोटा सा काला ट्रंक और पीतल का लोटा था। यहां भी वही है। मानसिक
लगाव न कराची से था, न मुंबई से। उसे मालूम ही न था कि मानसिक लगाव होता क्या है! जब से
आंख खोली, खुद को संधू हलवाई के घर बर्तन मांजते, झाडू देते, पानी ढोते, फर्श साफ करते और
गालियां खाते पाया। उसे दुख नहीं होता था, क्योंकि गाली खाने के बाद रोटी मिलती थी। उसका
शरीर तेजी से बढ रहा था और रोटी की उसे सख्त जरूरत थी।
उसके मां-बाप कौन थे? हलवाई अकसर कहता था कि वह उसे सडक से उठा लाया था। चंदरू को
इतना ही पता था कि कुछ लोगों के मां-बाप होते हैं, कुछ के नहीं होते। कुछ के पास घर होता है,
कुछ सीढियों के पीछे सोते हैं। कुछ गाली देते हैं, कुछ गाली सुनते हैं। कुछ काम कराते हैं, कुछ काम
करते हैं। यह दुनिया ऐसी ही है और रहेगी। ऐसा कब, क्यों और कैसे हुआ..यह जानने में उसकी
दिलचस्पी न थी। उसे किस्मत से कोई शिकायत न थी। वह खुशमिजाज-मेहनती लडका था। काम में
इतना मगन कि बीमार पडने की भी फुर्सत न मिलती।
कराची में तो वह छोटा-सा था, मगर मुंबई आकर उसके हाथ-पैर खुल गए, सीना फैल गया, गंदुमी
(गेहुआं) रंग साफ होने लगा। बालों में लछे पडने लगे। आंखें रोशन और बडी मालूम होने लगीं।
उसकी आंखें और होंठ देखकर मालूम होता था कि उसकी मां बडे घर की रही होगी। चैडे सीने, बांहों
की मजबूत मछलियां और सख्त हाथ देख कर लगता था कि उसके खानदान में कोई जवान या
तगडा नौकर रहा होगा।
चंदरू सुन सकता था, मगर बोल नहीं सकता था। गूंगा था मगर बहरा नहीं। संधू हलवाई ने बचपन
में उसे डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने कहा कि चंदरू के गले में जन्मजात त्रुटि है, जिसे ऑपरेशन से
ठीक किया जा सकता है। हलवाई ने नुक्स दूर करने के बारे में नहीं सोचा। शायद वह सोचता हो कि
चंदरू सिर्फ सुने, बोले नहीं, इसी में उसकी भलाई है। वैसे संधू दिल का बुरा नहीं था। वह चंदरू को
चाहता भी था। सबसे कहता कि उसने चंदरू की परवरिश बेटे की तरह की है।
जब तक चंदरू छोटा था, संधू उससे घर का काम लेता रहा। बडा हुआ तो संधू ने उसकी खातिर नया
काम शुरू कर दिया। उसने कुछ दिन चाट की दुकान लगाई। धीरे-धीरे चंदरू को चाट बनाने की कला
आ गई। जलजीरा और कांजी खाने की कला, गोल-गप्पे और दही-बडे बनाने के तरीके, तीखे मसाले
की कुरकुरी पापडियां और चने का लजीज मिर्चीला सालन, भठूरे बनाने और तलने के अंदाज सीख
गया। फिर समोसे और आलू की टिकिया भरने का काम, लहसुन की चटनी, लाल मिर्च की चटनी,
हरे पुदीने की चटनी, खट्टी-मीठी चटनी, अदरक, प्याज, अनारदाने की चटनी बनाना सीख गया।
दही-बडे, कांजी बडे, पकोडे, आलू की चाट, आलू-पापडी चाट, हरी मूंग, आलू और कांजी के गोल-गप्पे,
हर मसाले के गोल-गप्पे.., जितने बरसों में चंदरू ने यह काम सीखा, उतने में आम लडके पोस्ट
ग्रेजुएशन कर चुके होते, फिर भी बेरोजगार होते। चंदरू तो ट्रेंड था। जब संधू ने देखा कि चंदरू काम
में प्रवीण हो चुका है तो उसने एक ठेला खरीदा और चंदरू को काम पर लगा दिया-डेढ रुपये रोज
पर..।
जहां चंदरू चाट बेचता था, वहां दूसरा चाट वाला न था। संधू ने सोच-समझकर जगह चुनी थी। खार-
लिंक रोड और पानी के नल के चैराहे के पास टेलीफोन एक्सचेंज के सामने। एक तरफ यूनियन बैंक
था, दूसरी तरफ टेलीफोन एक्सचेंज, तीसरी तरफ ईरानी की दुकान और चैथी तरफ घुडबंदर रोड का
नाका। शाम के समय खाते-पीते नौजवान लडके-लडकियों का हुजूम रहता था। चंदरू की चाट ताजा,
उम्दा और करारी होती थी।
उसकी मुस्कराहट दिलकश और सौदा खरा होता था। बात साफ और तौल पूरा। शाम के समय ठेले के
चारों ओर भीड जुट जाती। संधू अब चंदरू को तीन रुपये रोज देने लगा। चंदरू पहले भी खुश था,
अब भी। खुश रहना उसकी आदत थी। वह लोगों को खुश करना जानता था। शाम के चार बजे वह
चाट-गाडी लेकर नाके पर आ जाता। चार से आठ बजे तक हाथ रोके बिना काम करता। आठ बजे
ठेला खाली हो जाता और वह उसे लेकर मालिक के घर आ जाता। खाना खाता और फिर सिनेमा
चला जाता। लौट कर सीढियों के पीछे सो जाता। सुबह फिर काम शुरू कर देता। यही उसकी जिंदगी
थी। वह बेफिक्र व जिंदादिल था। मां-बाप, भाई-बहन, बीवी-बचे कोई नहीं। जैसा अंदर से था-वैसा ही
बाहर से भी।
सांवली पारो को उसे तंग करने में बडा मजा आता था। कानों में चांदी के बाले झुलाती, पांव में पायल
खनकाती जब सहेलियों के साथ उसके ठेले के पास खडी होती तो चंदरू समझ जाता कि उसकी
शामत आ गई है। दही-बडे की पत्तल में वह जरा सी चाट बचा कर कहती, अबे गूंगे, तू बहरा भी है
क्या? मैंने दही-बडे नहीं, दही-पटाकरी मांगी थी। उसके पैसे कौन देगा? कह कर वह खाली पत्तल को
जमीन पर फेंक देती। वह जल्दी-जल्दी दही पटाकरी बनाने लगता। पारो फटाफट खाती, आधी छोड
कर गुस्से से कहती, उफ इतनी मिर्च? चाट बनाना नहीं आता? ले अपनी पटाकरी वापस ले।
यह कह कर वह जूठी पत्तल हाथ में लेकर ठेले के चक्कर लगाने लगती कि चाट के भगोने में जूठन
डाल देगी। उसकी सहेलियां हंसतीं, तालियां बजातीं। चंदरू दोनों हाथों से ना-ना के इशारे करता पारो
से जूठी पत्तल जमीन पर फेंकने का इशारा करता। आखिर पारो धमकाती, चल जल्दी से आलू की
टिक्की तल और गर्म-गर्म मसाले वाले चने दे.. नहीं तो यह पटाकरी अभी जाएगी तेरे काले गुलाब-
जामुनों के बर्तन में..।
चंदरू खुश होकर बत्तीसी निकाल देता। माथे पर आई घुंघराली लट पीछे हटातौलिए से हाथ पोंछ कर
जल्दी से पारो के लिए आलू की टिक्की बनाने में मगन हो जाता। पारो हिसाब में घपला करती, साठ
पैसे की टिक्की..तीस की पटाकरी..दही बडे तो मैंने मांगे ही नहीं, हो गए नब्बे पैसे..। दस पैसे कल के
बाकी हैं.. ले एक रुपया..।
गूंगा चंदरू पैसे लेने से इंकार करता। कभी पारो की शोख चमकती आंखों को देखता, कभी उसके हाथों
में कंपकंपाते सिक्के को देखता। आखिर सिर हिला कर इंकार कर देता। वह वक्त कयामत का होता,
जब वह पारो को हिसाब समझाता था। दही-बडे की थाल की तरफ इशारा कर अपनी उंगली मुंह पर
रखकर चुप-चुप की आवाज पैदा करते हुए मानो कहता, दही-बडे खा तो गई हो.. उसके पैसे क्यों नहीं
दोगी..?
तीस पैसे दही-बडे के भी लाओ, वह गल्ले से तीस पैसे निकाल कर पारो को दिखाता। अब पारो
कहती, अछा, तीस पैसे वापस दोगे? लाओ। चंदरू हाथ पीछे खींच लेता और इंकार में सिर हिला कर
समझाने की कोशिश करता, मुझे नहीं, तुम्हें देने होंगे तीस पैसे। पारो फिर डांटने लगती तो वह
बेबस, मजबूर और खामोश निगाहों से देखने लगता। तब पारो को दया आ जाती। जेब से पैसे निकाल
कर बोलती, तू घपला करता है हिसाब में, कल से मैं नहीं आऊंगी।
मगर दूसरे दिन वह फिर आ धमकती। उसे चंदरू को छेडने में मजा आता था। अब तो चंदरू को भी
मजा आने लगा था। जिस दिन वह नहीं आती, उसे सूना-सूना लगता। हालांकि उसकी कमाई पर
असर न पडता। पहले-पहल चंदरू का ठेला यूनियन बैंक के सामने नाके पर था। हौले-हौले चंदरू ठेले
को खिसकाते-खिसकाते पारो की गली के सामने ले आया। अब वह दूर से पारो को घर से निकलते
देख सकता था। पहले दिन पारो ने देखा तो गुस्से से भडक गई, अरे तू इधर क्यों आ गया रे गूंगे?
गूंगे चंदरू ने टेलीफोन-एक्सचेंज की इमारत की ओर इशारा किया, जहां वह ठेला लगाता आ रहा था।
केबल बिछाने के लिए जमीन खोदी जा रही थी और काले पाइप रखे थे। वजह माकूल थी। पारो कुछ
न बोली। फिर केबल बिछ गए, जमीन की मिट्टी समतल कर दी गई, मगर चंदरू ने ठेला नहीं
हटाया। पारो उसे पहले से ज्यादा सताने लगी। उसकी सहेलियां और छोटे-छोटे लडके भी उसे सताते।
लडकों को तो वह डांट कर भगा देता, मगर सहेलियों को डांटा तो पारो इतनी नाराज हुई कि अगले
तीन-चार रोज बोली ही नहीं। चंदरू ने तरह-तरह के हील-बहाने से चाहा कि पारो डांटे, मगर वह सभ्य
बन कर चाट खाती रही। एक बार तो चंदरू ने हिसाब में घपला कर दिया। लडाई हुई। अंत में चंदरू
ने गलती मानी, मानो इस बहाने पिछली गलतियों का प्रायश्चित हो गया था।
अब पारो और उसकी सहेलियां फिर उसे सताने लगी थीं। उसे इतना ही तो चाहिए था। पायल की
खनक और हंसी, जो उसकी गूंगी दुनिया के वीराने को पल भर रोशन कर दे। दूसरी लडकियां भी
पायल पहनती थीं, मगर पारो की पायल का संगीत कुछ अलग था। वह संगीत, जो उसके कानों में
नहीं, दिल के अकेले-शर्मीले कोने में सुनाई देता था।
अचानक मुसीबत प्रकट हुई एक दूसरे ठेले की शक्ल में। ठेला नए डिजाइन का था। चारों तरफ कांच
लगा था, चिकनी प्लेटें थीं। एक हेल्पर था, जो ग्राहक को मुस्तैदी से प्लेट और साफ-सुथरी नैपकिन
पेश करता। घडे के गिर्द मोगरे के फूलों का हार लिपटा रखा था। एक हार चाट वाले ने कलाई पर भी
बांध रखा था। जब वह मसालेदार पानी में गोलगप्पे डुबो कर प्लेट में रख कर ग्राहक के हाथों की
ओर सरकाता तो चाट की करारी खुशबू के साथ ग्राहक के नथुने में मोगरे की महक भी शामिल हो
जाती।
चंदरू के कई ग्राहक नए ठेले पर जाने लगे, तो भी चंदरू को परेशानी नहीं हुई। कब तक वह चंदरू
की असली और सही मसालों से बनी चाट का सामना कर सकेगा। ग्राहकों के हाव-भाव से उसने
अंदाजा तो लगा ही लिया था कि उम्दा सर्विस के बावजूद उन्हें नए ठेले की चाट पसंद नहीं आ रही
है।
फिर उसने देखा, गली से पारो सहेलियों के साथ प्रकट हो रही थी। अबाबीलों की तरह तैरती वे उसके
ठेले की ओर बढने लगीं..। तभी पारो की निगाह नए ठेले की ओर उठी। वह रुक गई। सहेलियां भी
रुक गई। पारो ने उचटती सी निगाह चंदरू के ठेले पर डाली। फिर नए ठेले वाले के पास पहुंच गई।
तुम भी? पारो तुम भी.?
चंदरू का चेहरा गुस्से और शर्म से लाल हो गया। लगता था मानो बोलने की कोशिश कर रहा हो और
चीख-चीख कर कह रहा हो, तुम भी..? क्या पारो तुम भी?
मगर उसके कान बढते तूफान की आवाजें सुन रहे थे और उसका बदन थरथर कांप रहा था। वह
ग्राहकों में व्यस्त दिखता था, पर बेचैन पायल की खनक अभी तक उसके दिल में थी। उसने पारो की
आवाज सुनी, हाय, कितनी लजीज चाट है। चंदरू को तो चाट बनाने की तमीज ही नहीं है। चंदरू
गूंगों सी वहशत-भरी चीख के साथ ठेला छोडकर आगे बढा और नए ठेले वाले से गुत्थमगुत्था हो
गया। लडकियां चीख मार कर पीछे हट गई। नए ठेले वाले पर वह भारी साबित हुआ वह। उसने ठेले
के कांच तोड डाले। ठेले को सडक पर औंधा कर दिया, फिर जोर-जोर से हांफने लगा।
पुलिस आई और उसे गिरफ्तार करके ले गई। अदालत में उसने जुर्म का इकरार कर लिया। अदालत
ने उसे दो माह की कैद और पांच सौ रुपये जुर्माने की सजा सुनाई। जुर्माना न देने पर चार माह की
कैद। संधू हलवाई ने जुर्माना नहीं भरा। वह छह माह जेल में रहा।
जेल काट कर चंदरू संधू हलवाई के घर पहुंचा। पहले तो संधू ने उसे खूब खरी-खोटी सुनाई। उसका
जुर्म यह नहीं था कि उसने ठेले वाले को मारा था, यह था कि उसने पायल की खनक सुनी थी। संधू
ने दिल की भडास निकाल ली, मगर चंदरू था मेहनती और ईमानदार। संधू ने फिर समझा-बुझा कर
चंदरू को ठेला देकर भेज दिया। चंदरू की गैर-हाजिरी में संधू ने यह काम जरूर किया कि उसके ठेले
पर रंग-रोगन करा दिया, ऊपर कांच लगा दिया। पत्तलों की जगह चीनी-मिट्टी की प्लेट और चम्मच
रख दीं।
चंदरू छह महीने बाद फिर से ठेला लेकर रवाना हुआ। कई सडकें पार करके लिंकिंग रोड के नाके पर
आया। यूनियन बैंक से घूम कर फोन एक्सचेंज के पास पहुंचा। जहां पहले उसका ठेला लगता था,
वहां नए ठेले वाले का कब्जा था। ठेले वाले ने घूर कर चंदरू को देखा तो चंदरू ने नजरें चुरा लीं।
उसने कुछ फासले पर एक्सचेंज के एक कोने पर ठेला रोका।
चार बजे, फिर पांच भी बज गए, मगर ढंग के ग्राहक न फटके। इक्का-दुक्का लोग आए और चार-छह
रुपये की चाट खाकर चलते बने। चंदरू सिर झुकाए खुद को व्यस्त रखने की कोशिश करने लगा।
कभी तौलिये से कांच चमकाता, कभी हौले-हौले भुरते में मटर के दाने और मसाले डाल कर टिक्की
बनाता। एकाएक उसके कानों में पायल की खनक सुनाई दी। दिल जोर-जोर से धडकने लगा। वह सिर
ऊपर उठाना चाहता था..। अब पायल की खनक सडक पर आ गई थी। पूरा जोर लगा कर उसने
गर्दन ऊपर की तो आंखें ठिठक गई। हाथ से डोई गिर गई, तौलिया भरी बाल्टी में गिर गया। एक
ग्राहक ने करीब आकर कहा, दो समोसे दे दो।
उसने कुछ नहीं सुना। बदन में जितनी संज्ञाएं थीं, जितने एहसास थे, सब खिंच कर उसकी आंखों में
आ गए थे। उसके पास जिस्म नहीं था। सिर्फ आंखें थीं। वह ताके जा रहा था कि पारो किधर
जाएगी?
हौले-हौले सरगोशियों में बातें करते-करते लडकियां सडक पर चलते हुए दोनों ठेलों के करीब आ रही
थीं। एकाएक जैसे बहस का अंत हो गया। लडकियों ने सडक पार कर नए ठेले वाले को घेर लिया।
पर चंदरू की निगाहें उधर नहीं फिरीं। वह शून्य में देख रहा था। गली और सडक के संगम पर, जहां
छह महीने बाद पारो दिखी थी। एकाएक तेजी से पारो उसके ठेले की ओर आ गई और उसके सामने
मजरिम की तरह खडी हो गई। गूंगा फूट-फूट कर रोने लगा। वहां आंसू न थे। शब्द थे कृतज्ञता के
और शिकायतें थीं। आंसुओं का सैलाब टूटे-फूटे वाक्यों की तरह उसके गालों पर बह रहा था और पारो
सिर झुकाए सुन रही थी। आज पारो गूंगी थी, चंदरू बोल रहा था। पारो कैसे कहे पगले से कि उसने
भी छह महीने उन्हीं आंसुओं की प्रतीक्षा की थी..।
कविता
मन की व्यथा
-दिव्या यादव-
रीत गया है
मन का घट अब
शेष नहीं
कुछ और विकार
खाली घट में झाँका मैंने
तो देखी एक दरार
एक समय था
जब मन का हर कोना महका था
बची नहीं कोई दरकार
अब तो अन्तर्मन में
छाया रहता है अन्धकार
जितना घट में भरते जल को
रिसता जाता बारम्बार
जाने कितनी चोटें खाकर
मन करता था अब प्रतिकार
माटी का घट बना सहज था
सह नहीं पाया ठसक अपार
मात्र एक छोटे झटके से
करने लगा वह हा-हाकार
मन की प्रकृति और सहज थी
उडता फिरता था चहुं ओर
बहुत तेज थी उसकी रफतार
समय ने कुछ करवट ली
छीन लिए सारे अधिकार
घट से अब जल रुठ गया था
पाता नहीं था विस्तार
और अन्त में वही हुआ था
जिसका था कब से इन्तजार
घट भी उतर गया अब मन से
फेंका गया समझ निष्प्राण
किन्तु टूटकर सिसक रहा था
मानो पूछ रहा हो जग से
ये कैसा अन्याय?
जब तक मैं भी नया नया था
जल से मैं भी भरा भरा था
प्यास बुझाता था इस जग की
चाह नहीं थी मेरे मन की
किन्तु आज मैं हुआ निरर्थक
व्यर्थ हुआ सब आज परिश्रम
ये कैसी अनहोनी प्रभु की
समझ न पाया रीत जग की
मुझे इस तरह व्यर्थ न पाते
पत्थरों के बीच न फिंकवाते
भरते माटी मेरे अन्दर
और रोपते पौधा सुन्दर
मैं उसका आश्रय बन जाता
मोक्ष किन्तु मैं फिर भी न पाता
रिसकर भी जीवन दे जाता
मुक्ति इस तरह पा जाता
मन भी इसी तरह कराहता
पाना मुक्ति वह भी चाहता
रीते मन की यही व्यथा है
पहचानी सी यही कथा है
टूटा है फिर भी जीता है
मरकर भी जीवन देता है।।
(साभार: रचनाकार)