



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )
(यह ऐसी नासमझी भरी दास्तां है, जो एक लड़की को कैसे अपने प्रेमी से बिछोह देती है और लोगों के
बीच हंसी का पात्र बना देती है। यह एक लड़की के भोलेपन की कहानी है, जो दुनियादारी को नहीं
समझती और अपने जीवन को लगभग खराब करने की स्थिति तक पहुंचा देती है। उसकी पढ़ाई छूट
जाती है सो अलग। इस कहानी में लेखिका ने एक लड़की के जीवन की कई परतों पर एक साथ काम
किया है।)
हे दीदी, तू हिजड़ी है का?
छुटके ने तपाक से बोला तो डेहरी पर से लहसुन का झाबा उतारती नैय्या भीतर तक सुलग गई। छुटके
को घूर कर निहारा। वह जैसे उसकी निगाहों के ताप से सिहर सा गया और उछल के भाग खड़ा हुआ।
16 साल की नैय्या ने डेहरी पर से लहसुन का झाबा उतारा और रसोई की ओर चली गई। एक विचित्र
सी वितृष्णा उसके भीतर घुल गई। अम्मा पर क्षोभ सा हुआ।
ई अम्मा तो जिनगी नर्क बनाय दिहिस है। जाने कऊन सा मंत्र पढ़ाय दिहिस हम्मैं कि जीना दूभर होई
गया। ये बात नैय्या लगभग दो साल से सुनती आ रही थी। अब तो उसके कान भी पक गए थे। कई
बार इस बात को ले कर उसका सखियों और दूसरी लड़कियों से झगड़ा भी हो चुका था। बाहर जाती तो
सखियां उसके मजे लेतीं, ह नैय्या, तैने तो मजे हैं। हर महीने की झंझा से फुर्सत। दूसरी बोलती, पर तेरे
सीने तो ई बात नाहीं कहते कि तू… फिर सारी सखियां खिलखिला के हंस पड़तीं। नैय्या पर घड़ो पानी
पड़ जाता। खीझ उठती।
नैय्या को मन ही मन झुंझलाहट होती। ई कउन से जंजाल में फंसाए दिहा भगवान ने। कऊन अईसे कांटे
निकल आए हैं हम में कि सभै हिजड़ी-हिजड़ी कहि के जीना दूभर किहे हैं।
उसे याद है जबसे अम्मा ने उसे वो बात समझाई थी, और बड़की भाभी से उसने अम्मा की कही बात
दोहराई थी, तभी से उसे ऐसे उलाहने मिलने लगे थे। पर लोगों को उससे कौन सी दुश्मनी है वह कभी
समझ न पाई। गांव की लड़कियों के इस बर्ताव से वह इतनी आहत हुई कि उसने घर से निकलना ही
बंद कर दिया। पाठशाला भी छोड़ दी। मां बड़बड़ाती रहतीं, जाने का रख्खा है ई घरेम कि बाहेर निकलतय
नाहीं। चार अच्छर पढ़ जाती ता कमसकम एक ढंग का घर तो मिल जात। आज कल तो अपढ़
लड़कियन का वरय नाहीं नसीब होत हंय मगर ई महारानी की समझ मां आवै तब ना। कई बार उससे
पूछा भी, तू स्कूल जईय्हौ कि नाहीं। ई घरेम घुसी-घुसी का उखारा करती हौ?
घरेम पढ़ि लईब। वह खामोशी से उत्तर देती।
हुं। ह जनै कऊन घर-घुसनू परेत सवार होई गवा है। कहती हुई अम्मा इधर-उधर टहल आतीं। वह पढ़ाई
के नाम पर खाली समय में किताब में देख-देख नकल उतारती रहती। हालांकि स्कूल की वह मेधावी छात्रा
थी पर जबसे उक्त अफवाह फैली, मन स्कूल से भी भागने लगा। कक्षा में कुंठित और क्षुब्ध सी बैठी
रहती। उस दिन स्कूल में बड़े मनोयोग से बैठी अपना प्रिय विषय गणित पढ़ रही थी। एक के बाद एक
सारे सवाल हल करती जा रही थी मगन सी। तभी कक्षा अध्यापक नीरज मास्साब ने गुहारा, नैय्या,
काम?
वह मगन। कोई जवाब नहीं। पुनः गुहारा, नैय्या, कुछ कह रहा हूं। वह फिर भी हिसाब में गुम। तभी एक
अन्य सहपाठिनी ने चुटकी ली, मास्टर जी, हिजड़ी कहिए तब सुनेगी। तत्क्षण पूरी कक्षा कहकहों से घुमड़
पड़ी। मास्टर जी भी पहले तो मुस्काए फिर सहसा कुछ सोच कर उस लड़की को घुड़का, चुप रहो
नालायक कहीं की। लेकिन कहकहों ने उसकी तंद्रा तोड़ दी। अपने पर कसी गई इस कुत्सित फब्ती पर
वह रूआंसी हो गई। लड़के भी उसे देख धीमे-धीमे मुस्करा रहे थे। नैय्या के अंदर जैसे शूल उतर गया।
चेहरे पर पसीने की बूंदे चमकने लगीं। लगा कई पहाड़ों का बोझ उसके कंधों पर आ कर टिक गया हो।
उसने झुंझला कर पुस्तक, नोटबुक और कलम-दवात समेट कर बस्ते में खोंस लिया और मन ही मन
मास्टर जी को गरियाया, या मास्टरौ बड़ा हरामी हय।
खैर ऐसे ही माहौल से उकता कर वह धीरे-धीरे स्कूल से कटने लगी। फिर जाना ही बंद कर दिया। अम्मा
अधिक तंग करती पढ़ने के लिए तो झल्ला कर बस्ता उठा लेती और कहीं दूर खलिहान के किसी कोने में
या फिर किसी अमराई की तरफ निकल जाती और कभी कुछ पढ़ती लिखती या फिर मन नहीं चाहता तो
किसी घने बिरूए पर चढ़ी बैठी रहती। कभी केाई उसे वहां देख लेता तो गुहारता, हे हिजड़िया हिंयां का
करत हीं?
उसके भीतर सहसा कुछ टूट जाता। कहीं ब्याह-बारात में जाती तो भी ऐसी निरर्थक फुसफुसाहटें उसका
पीछा करती रहतीं। कभी बात सामने आ भी जाती तो अम्मा जरूर सबके लत्ते ले लेती। ललकारतीं,
खबरदार जो हमरी बिटिय प उंगली उठाईस कऊनौ। राखी लगाएक जुबान अईंच लईब।
अम्मा खैर दबंग महिला थी ही। उसके हनक के सामने सबकी बोलती बंद। पर कभी-कभी झड़प भी हो
जाती, जब कोई बराबर की मिल जाती। हां, समस्या तब होती थी जब वह अकेली निकलती थी। लेकिन
फिर भी एक जो कुटिल आभाष था वह सातों पहर उसका पीछा करता रहता। पल-पल उसके भीतर शीशे
की तरह चटखता रहता। तीखे नैन-नक्श और मादक कद काठी के बावजूद उसके भीतर एक ग्लानि पैठ
गई थी। पीरू, उसके बचपन का मित्र, जो उस पर जां निसार करता था वह भी सहसा उससे कतराने
लगा था। एक दिन उसने ही उसके घर जा कर गिला उठाया था, पीरू, दोस्ती पियार सब छोड़ दई का
तूने। न मिलत हय, न कऊनो बातचीत। कत्ते दिनन से हम एक साथे टहरे नाई हन?
वह खामोश रहा। हालांकि उसका किशोर मन नैय्या को देख एकबारगी लहका जरूर था मगर अगले क्षण
कुसुम की बात याद आ गई, पिरूआ, तोरी हिजड़ी कहां हय, दिखती नाहीं आजकल।
वह अक्रामक हो उठा।
अत्ते थप्पड़ मारिब न कि बहिरी होई जईहव।
अरे जाव-जाव। सारा गंव्वा कहत हय। केका-केका थप्पड़ मरिहव जब बिहव्वा करि लेहो उससे तब पता
लागी। वह सन्नाटे में आ गया। अकेले में दादी के पास गया और पूछा, दादी रे, ई हिजड़ी का होत?
हे दइया, तूहौ बे पर की हांकै लागत हौ। फिर उसे दुलारती हुई बोली थी, ईकै मतलब न स्त्री न पुरूष।
अईसै स्त्री-पुरूष बिहाव के लाईक नाहीं रहत हंय उनसे दूर रहेक चाही। जईसे कि अपन नैय्या। अत्ती
सुंदर-सुशील छोरीस जनै भगवान कऊन जनम का बदला लई लिहिन। उसी दिन वह नैय्या से दूर हो
गया। नैय्या जब लगातार उसे फटकारती रही तो वह झुंझला पड़ा और एक ही वाक्य में सब खत्म कर
दिया, अब चिल्लाती का हव, तू तो हिजड़ी हव न तो तुसे मतलब का दोस्ती-यारी का?
नैय्या को काटो तो खून नहीं। लगा उसे सहसा किसी ने दहकते ज्वालामुखी सम्मुख ला कर खड़ा कर
दिया हो।
वह अटकते हुए टूटते शब्दों में इतना ही बोल पाई, पीरू तूहव अईसा बोलब। सोंचे नाई रहन। आगे कुछ
नहीं कह सकी। जब पीड़ाएं अपनी पराकाष्ठा पार कर जाती हैं तो वहां शब्दों की मर्यादाएं टूट जाती हैं।
वह अवाक खड़ी रही। पीरू झल्ल से मुड़ा और वापस घर में घुस गया। वह एक लुट जाने वाली स्थिति
लिए खड़ी रह गई। आंखें में दुनिया भर का अंधेरा भर गया। फिर खामोशी से वापस लौट आई। उस दिन
के बाद से उसने घर से निकलना भी बंद कर दिया। गहरी कुंठाओं ने उसे घेर लिया। इसी मनोदश में
लगभग साल भर बीत गया। अम्मा भी अब कहते-कहते थक गई थीं। सो उसे उसके हाल पर छोड़ दिया
गया। हां अब उसके विवाह की चिंता की जाने लगी थी। कुछ दिनों की तलाश के बाद आखिर नजदीक के
गांव में एक लड़का मिल ही गया। लड़का शहर में कमाता था। पिता बड़े कास्तकार थे। नैय्या के माता-
पिता फूले नहीं समा रहे थे सोच कर कि बिटिया राज करी। विवाह से पूर्व की औपचारिकताएं पूरी कर
ली गई थीं। क्वांर के महीने का मुहूरत निकला था। नैय्या के पिता ने अपने 20 बीघे के खेत में से एक
पट्टी बेच दी थी और ब्याह के खातिर अखराजात जुटाने लगे थे। अभी तीन महीने का समय था। नैय्या
अपने ढंग से अपने ब्याह की खुशी मनाने लगी थी। सबसे बड़ी बात अब उसे हिजड़ी शब्द से मुक्ति
मिलने वाली थी। अम्मा ने उसे बेसन का उबटन बना के दे दिया, ईका रोज मलौ सरीरेप। तनि इंसान
बनौ। ब्याहेम कछु अलग तव लागौ। और वह दिन में कई दफा उबटन मलने लगी। हर बार उबटन मलने
और धोने के बाद आईना निहारना नहीं भूलती। यहां तक कि एक दिन फुफ्फू ने टोक भी दिया, हाय
दईया, या तव दिनम दस बार दर्पनै निहारा करती है। कस बेसरम, बेहया हुई जाती हय। वह फुफ्फू की
बात टाल जाती और मन ही मन बड़बड़ाती, या बुढ़ियक जनै कऊन जलन लागी रहत हय। अपन तव
ससुराल छोड़ि भगियाई। अब हिंया हुकुम चलावत ही।
ब्याह की तारीख करीब आ गई थी। नैय्या के पिता ने सारी तैयारी कर ली थी। बड़े मनोयोग से सब कुछ
जुटाने में लगे थे। अम्मा तो बात करना ही भूल गई थीं। सपने भी उन्हें नैय्या के ब्याह के ही आते।
कव्वाती रहतीं, को नैय्या के बापू, अभै त परात खरीदेक बाकी है। पैजनिया गढ़वावैक हय, कपड़वा सी
गवा होई।
एक दिन की बात, सुबह-सवेरे लड़के के पिता व माता अचानक फट पड़े। नैय्या की अम्मा का माथा
ठनका। मनै, सकारे-सकारे। कहीं कऊनव गड़बड़ तव नाहीं कऊनव मांगे मंगनी तव नाहीं। फिर नैय्या के
बापू की तरफ घूमके धीमे से फुसफुसाई, सुनत हव, जो साईकिलिया मांगीन तव साफ कहेव कि हमसे न
होई। कहूं कम मां आवत हय साकिल।
अच्छा, तनि जावै त देव हुंवा तक। बिटेवाक हाथे नास्ता चाय भेजवाए दिहेव।
कहते हुए वह बाहरी दालान की ओर चले गए। नैय्या को कुछ निर्देश दे कर अम्मा भी पीछे से दालान
की तरफ हो लीं।
दोनों पक्ष से कुशल-क्षेम की औपचारिकताएं निभाई गईं। उसके बाद एक नीम खामोशी छा गई। जैसे हर
कोई कहीं खोया हुआ कोई सिरा ढूंढ रहा हो और वह मिल नहीं रहा हो। आाखिर नैय्या की अम्मा एक
सिरा टटोलते हुए बोलीं, का समधिन अत्ती भोरहय मां। मनै, कऊनव खास बात?
हां, खासै, मुला तुमसे तनि अकेरेम बतियावैक हय। नैय्या के माता-पिता का चेहरा उतर गया। पिता,
समधी के साथ ओसारे में ही बैठे रहे। समधिन को नैय्या की अम्मा कोठरे में ले कर चली गईं। पलंग
खींच कर बैठ गईं। फिर सहमती सी बोलीं, हां अब बताव। बहिन जी, तू हमरी बातियक बुरा न मानेव।
मनै हर बाप-महतारी अपने बेटा-बेटिन का भलय चाहत हंय। उमस हमहूं हन तुमहूं हव।
देखौ समधिन सब सफा सफा बताव। माजरा का हय?
मुला, हम कुछ सुना हय तोरी बिटियक बारेम कि तोर नैवा ब्याह कै जोगै नाहीं हय फिर काहे करत हौ
उकै बयाहव। अईसै परी रहय देव कौनय कोना अंतड़िम।
तू कस बात करत हव समधिन। अस कुछौ नाहीं। हमरी बिटिया पूर हय। बाकी ई बतिया कऊन कहिस
हय तनि बताय देव उकै नाव, राखी लगायक उकै जुबान अईंच लईब। ई सब बहुत रहत हंय दुई पांच
मां।
अब ई सब छोड़ौ। ई बताव ई बतिया सही हय कि नाहीं?
नाहीं सोलहौंव आना गलत।
हम मानी कईसे? नैय्या की अम्मा सोच में पड़ गईं तो लड़के की मां ने खुद सुझाव दिया, सुनव, अभै ई
महीनेम लड़की का महीना होई गवा कि नाहीं।
पूछेक पड़ी। कहते हुए नैय्या की अम्मा बाहर की तरफ गईं और नैय्या से पूछ कर कुछ ही क्षण में
वापस आ गईं ओर बोलीं, नाहीं, अभै टैम हय।
तो ठीक हय, जब ऊ महीनस होय त हमका खबर करि दिहेव। हम आई के चेक करिब। बेटक मामला है।
ढिराहीस काम नाहीं लेबै।
ई कऊन बात करत हव। तू खामखां बेइज्जत करत हव हमार छोरियक। हमरी बातप विसवास नाहीं हय
तुका?
देखौ समधिन, अकीन की बात छोड़ौ, बेटी-बेटक मामलेम आंख मूंद कै समझौता नाहीं करैक चाही। मानौ
कलिहा बात न बनै त हमार लड़कवा हमरै मुंहेप तमाचा मरिहय कि हिजड़िक संग फेराय दिहेव।
नैय्या की अम्मा खूब सनाका खाईं। छोटी बहन यमुना ने आकर नैय्या को सारा किस्सा बता दिया।
नैय्या सुध-बुध खोए सब सुनती रही। सोचती रही ई सब भवा कईसै? अतिथि जा चुके थे। नैय्या की
अम्मा के सीने में बेइज्जती की जो आग लगी थी वह बेतहाशा धधक रही थी। अईसा अपमान, अईसी
बेइज्जती। जब कुछ न सूझा तो जा के ढोढ़ें की पत्नी से भिड़ गईं।
काहे हो ढोढ़ाईन, ई का प्रचार कई के बईठी हव हमार छोकरियाक लगे। पहिले त याक दुई मर्तबा तुरी
सिकायित त करिस ऊ, हम जावै दिहा कि चलौ हंसी मजाकेम होई गवा कभौ-कभौ मगर हिंया त पानी
सिर के उप्पर सनी गुजरि गवा।
का मतलब। हम समझिन नाहीं।
हमका बहुत पहिलय पता चलि गवा रहाय कि तू पूरे गंव्वाम हमार बिटेवक ना-अउरत घोषित कई दिहे
हव खुबै प्रचार किहे हव।
द्याखै नैय्या क अम्मा, जुबान सम्भार कय निकारेव हमका का गरज परी हय कि वा का हिजड़ी घोषित
करत चली। वा अपनी गोंईय्यन, सखियन, औ भौजईय्यन से खुदै बताईस कि ऊ अबही तक महीनेस
नाय होत हय, हमार सुग्गी त 13वैं साल महीनेस होय लागै रही, हमहूं लोन अईसन बड़कई तो बरहवैं
पकड़त पकड़त तैयार होई गई रहा औ कहां नैवा हय तोहार। 16वां लागै लागै का है औ अबहिन तकै
वईसेन सूख-साखा। जाकै का मतलब जब्बै उससे पूछौ कहत है नाहीं।
कऊनै सुवर कहत हय उकै महीना नाय होत। तू लोन देखत हव का? तोहार बिटिया बोलिस जाईकै उससे
पूछौ।
नैय्या की अम्मा मुंह की खा के चली आईं। नैय्या कोठरे में बिखरी पड़ी सुबक रही थी कि अम्मा का
स्वर सुनाई दिया, ओरे नैय्या, कहां मरि गई रे। वह चुपचाप बेसुध सी पड़ी रही। दूसरी बार अम्मा हांक
लगाती उसी के कोठरे में पहुंच गई, का रे सुनाई नाय देत कानम कोढ़ चुई गवा हय का? वह उठ कर
बैठ गई। अम्मा ने समीप बैठते हुए पूछा, का रे अपन गोंईयन से का कहि के आई हय कि तू हिजड़ी
निकरि गई। तोके महीना नाय होत हय। तै ना-अऊरत होई गई हय?
तब नैय्या सुबकियों के बीच बड़ी कठिनाई से बोली थी, तूहै त कहे रहा अम्मा कि के कौना बतायव इकै
बारेम। औ जब बड़की भैजाई पूछिस रहा तब्बौ त तू कहै रहा कि अभी नाहीं। उमिर का हय अबहिन।
हमहूं वहाय बोला जऊन तू कहेव।
हे दय्या वहय बात का बतंगड़ बनावा गवा। मुला अत्ती बात बढ़ि गए। अच्छा ई बता कऊन तरीखेक
आवत हय? औ हां जईसन आई हमका खबर कई दिहेव। उसने सिर हिला दिया। वह बगैर तारीख जाने
ही बाहर निकल गई। मगर नैय्या के भीतर जैसे जाने कितने अवसाद के काले बादल भर गए। उसकी
किशोर वय ही एक कलुषित अवधारण से लोहित होने लगी। ब्याह की जो खुशी कल तक चेहरे पर दमक
रही थी वह सयास कहीं लुप्त हो गई थी। वह खामोश बैठी यहां-वहां कुछ मन ही मन गढ़ती रही। ऐसे
ही 20-22 दिन बीत गए। नैय्या उन दिनों से भी गुजरी। मगर अम्मा को भनक तक न लगने दी।
समधियाने में इस खबर की प्रतीक्षा की जाती रही। नैय्या की अम्मा भी चिंतित। नैय्या ने पूरे चार-पांच
दिन बड़ी खमोशी से गुजार दिए। आखिर अम्मा ने एक दिन फिर टटोला, का रे नैवा मुला महीना त पूरा
निकरि गवा। कभै होईहय। तरिखिया ठीक सनी याद हय कि नाही। कउनै तरिखियाक होत हय। वह
खामोश रही तो अम्मा फिर चिल्लाई, कछु बतईहय। बकोसिहय। माजरा का हय?
नैय्या ने जमीन की मिट्टी को पांव के नाखून से खुरचते हुए नीचे ही देखते हुए कहा, आवा त रहा
अम्मा। हम बतावा नाहीं। मोका लाज आवत रहा।
हाय भगवान, गजबै भवा। मुला ऊ सबै प्रतीक्षम बईठ हंय औ हिंया ई महारानी सब पिए बईठ हंय। आंय
रे। काहे करे धेाका, काहे परीसान कय रही हम सबका।
और वहीं पड़े एक डंडे से जो नैय्या की पिटाई शुरू की तो फिर तब तक नहीं रूकी जब तक थक नहीं
गई। नैय्या पिट-पिटा के कोठरे घुस के पड़ रही। छोटी बहन ने शाम को तेल गरमा कर उसकी चोटों पर
लगाया। वह तेल मलती रही नैय्या उसी से अपनी व्यथा कहती रही, के यमुनवा, इमा हमार का गलती।
अपनय मनादी करिस कि काहुस न बतायव कि तू होय लागी हव। इससे लोन उमरि का हनाजा लगावय
लागत हंय। त हम सबसे यहय बोल दिहा। कहां अब ऊई लोन अईहंय हमका चेक करै। ई कऊन बात
भई। लाजौ सरम कउनव चीज होत हय। सबै खिलवाड़ बनाय लिहिन हंय हमका। तू कहूंस एक पुड़िया
संख्या लाय देव हमका। दुनियैस चले जाई। ई बेइज्जती नाहीं बर्दास होत हय।
न दिदिया मरै तोर दुसमन। गलती हमार महतारी के आए। भुगतैक परा हम सबकां। मगर ई भरम से
निकारै खत्ती ई जरूरी हय। मरि कै त तू ऊ सबकी बतियन का सच्चा साबित कई देहौ। लोन ई बात का
सही मान लिहैं। ई लांछन का हटावै खत्ती जऊनै होत हय होय देव। याक दिन खुदै ऊ सबके मुंहेप तमाचा
पड़ि जईहय।
इस बात की चर्चा पूरे गांव में फैल गई। महिलाओं को तो समय गुजारने का खूबसूरत शगल मिल गया
था। दिन भर यहां-वहां खिचड़ी पकती रहती। नैय्या ने बाहर निकलना ही छोड़ दिया था। बस कोठरे में ही
पड़ी रहती। साहस ही दम तोड़ गया था। खाना-पीना छूटा सो अलग। छोटी बहन यमुना कहीं विनती-
चिरौरी कर थोड़ा बहुत खिला-पिला देती। बाकी वह यही सोच-सोच कर कुढ़ती रहती कि कैसे करेगी
सामना उन लोगों का जब वे उसकी जांच पड़ताल करने आएंगे। मन ही मन झुंझलाती, ई अम्मा कईसी
मुसीबत मां डारि दिहिस हय। सगरा गंवम हंसाई करवाय दिहिस। सखियां, गोईयां सभै कस मजा लेत
होईहंय।
उसे पहले के सारे मंजर स्मरण हो आते। किस तरह उससे सखियां और गोईयां बातों-बातों में पूछ लिया
करती थीं, का रे नैय्या, अबही तक तोरे महीना नाय आव?
ऊ का होत हय। वह अनजान बन जाती तो सखियां बड़े मजे लेतीं और क्या-क्या न इशारे करतीं। ऐसे
संशयपूर्ण सवालात उससे प्रायः युवा महिलाएं और किशोरियां कर बैठतीं और उसका जवाब सुन कर तरह-
तरह के अंदेशों से घिर जातीं। इन्हीं अंदेशों ने उनके मन में एक धारणा बना दी और उसे हिजड़ी का
तमगा मिल गया। शुरू में वह बहुत आहत हुई। कई दफा अम्मा से भी शिकायत की। अम्मा ने उन
सबको गरिया-गरिया के बात खत्म कर दी। किंतु उसका मनोबल टूटने लगा। वह धीरे-धीरे लोगों से
कटती गई। स्कूल से भागने लगी। मन में कुंठित धाराएं रेंगने लगीं। करारा झटका तब लगा जब पीरू ने
भी हाथ जोड़ लिए। कई दिनों तक वह यही सोच-सोच कर विचलित होती रही, मनै कस निकरा। समाज
के संग वहव मिल गवा। कहां कि जलम-मरन की सौगंध लिहिस रहा कहां कि बिच्चम छोड़ि गवा। तनुक
गईरत नाय आई तनुक नाय सोचिस। जमानक बतियम आय गवा।
अम्मा ओसारे में बैठी गेहूं पछोड़ रही थीं कि नैय्या उसी के समीप आ के बैठ गई अैर गेहूं बिचारने
लगी। अम्मा ने एक उड़ती सी निगह डाली उस पर और फिर अपने काम में लग गईं। वह कुछ देर
खामोश रह फिर झिझकती सी बोली, अम्मा, मनै ऊ आए गवा।
को?
ऊहै जाके खातिर हमका पिछला महीना पीटे रहा।
हो, मोरी बिटिया कहते हुए अम्मा ने उसे चिपटा लिया फिर सूप वहीं फेंक कर आंगन की ओर भागीं,
अरे हो नय्याक बापू। तनि सुनत हव, भोरहे जाईकै समधिन का लिवाय लाव।
दूसरे दिन नैय्या के बापू मुंह-अंधेरे ही निकल गए। दोपहर तक वह समधिन ओर उनकी बेटी को लिवा
कर आ गए। नैय्या की अम्मा ने बड़ी तैयारी की थी उनके सत्कार की मगर उन्होंने आते ही कहा, नाही
बहिन जी, कुछ नाहीं। बस हमका लड़िकियाक दिखाय देव।
नैय्या की अम्मा ने पुकारा, नैय्या ओ नैय्या।
नैय्या सकुचाती सी उनके पास आ कर खड़ी हो गई। इस समय वह बड़ी निखरी सी फिरोजी परी सी दिख
रही थी। सास मुग्ध सी देखती रह गईं। फिर संभलती सी बोलीं, चलौ बेटा कोठरियम चलौ तनि। वह
थकी सी उठी और कोठरे की तरफ हो ली। पीछे-पीछे दोनों माँ-बेटी। फिर कोठरे में तीन ही प्राणी रह
गए। कोठरा भीतर से बंद कर लिया गया।
तीन-चार मिनट बाद कोठरा खुला। दोनों महिलाएं बाहर निकलीं। उनके चेहरे से अश्वस्तता का भाव टपक
रहा था। आ कर ओसारे में बैठ गईं। नैय्या कोठरे से बाहर ही नहीं निकली। कुछ देर बाद यमुना कोठरे
के भीतर गई तो देखा वह पलंग पे पड़ी सिसक रही थी। उसने पुकारा, जिजिया, का भवा तू त परीछा मां
पास होई गईव जिजिया।
हूं, मगर ई पास होय का दुःख फैल होय के दुःख से कहूं जादा हय यमुना। वह सिसकती सी बोली।
यमुना उसका मुंह चुपचाप तकती रही। वह आगे बोली, .ई परीछा हम पीरू के लगे नाहीं दई पाईन। ई
परीछा त सीता माता की अग्नि परीछा से भी जादा दुष्कर रही यमुनवा। और वह फूट-फूट कर रोने लगी।
कुछ देर बाद लड़के की मां और बहन चली गईं। तब अम्मा ने आ के उसका माथा चूम लिया और बोलीं,
बहुत बड़ा बोझा उतरि गवा आज। और विवाह की तारीख की घोषणा कर दी। नैय्या निर्विकार भाव से
बस्स बैठी रहीं।
कविता
सुबह
-मणि मोहन-
आज फिर खुली रह गई
नींद की खिड़की
आज फिर घुस गया
बेशुमार अंधेरा भीतर तक
आज फिर जहन में
तैरते रहे
शब्द और सपने
अंधकार की सतह पर
आज फिर
सुबह हुई
इस अंधेरे को
उलीचते-उलीचते।