



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )
हम तुम्हरे पांय परत हैं बिटिया, इनका बचाय लेओ। बुढ़िया हाथ जोड़े, अधझुकी होकर सुगना के
सामने मिन्नतें कर रही थी जबकि सुगना का पूरा शरीर क्रोध से कांप रहा था और हथेलियां गुस्से से
भिंची हुईं थीं।
सुगना! तनिक देख लल्ली… ई तुम्हरा बाप है।
कौउन बाप! सुगना उबल पड़ी। हमरा कउनहु बाप नाहीं… लई जाओ इनका हिंया से।
सुगना ने अब तक स्ट्रेचर पर कराहते वृद्ध की ओर एक नजर भी नहीं डाली थी लेकिन उसके
कराहने की आवाज लगातार उसके कानों में पड़ रही थी।
नाहीं बिटिया! अइसन ना बोलौ… बचाय लेओ इनका। बुढ़िया ने फिर एक बार गिड़गिड़ाते हुए सुगना
के पांव पकड़ लिए।
बि…टि…या…! इस बार बूढ़े व्यक्ति की कराह के साथ निकले ये शब्द टूटते हुए वहां बिखर गए।
सुगना ने न चाहते हुए भी नफरत से भरी एक नजर उस ओर डाली… सचमुच हालत बेहद खराब थी।
सांसों की डोर किसी भी वक्त जिन्दगी का साथ छोड़ सकती थी। सुगना ने वॉर्ड-ब्यॉय को आवाज
लगाई- ब्यॉय! मरीज को भीतर लइ जाओ… और पावनी मैडम को भी बुलाए देओ, तुरंत… मरीज की
हालत नाजुक है।
ब्यॉय दौड़कर आया और सुगना के आदेश का पालन करने लगा।
यह अस्पताल सुगना की मालकिन का था। सुगना ने बेहद गरीबी के बावजूद हिम्मत नहीं हारी और
कठिन तपस्या करके अपनी बेटी पावनी को डॉक्टर बनाया। सुगना बहुत सालों से अपनी मालकिन का
घर और अस्पताल दोनों संभालती आई थी। अब तो वह इस अस्पताल में इतनी पुरानी हो चुकी थी
कि पूरा स्टाफ उसकी इज्जत करता था। यहां उसका रुतबा भी मालकिन से कम न था।
पावनी भी इस अस्पताल में जी-जान से काम करती थी। डॉक्टर, पेशेंट, स्टाफ सब उसे बेहद पसंद
करते। वह भी तो सबके लिए दिन-रात एक किए रहती। वह इस अस्पताल में सबकी लाडली डॉक्टर-
दीदी थी। दोनों मां-बेटी के लिए यह अस्पताल ही उनकी दुनिया थी।
आज उसी सुगना को ढूंढते-ढांढ़ते उसके बूढ़े मां-बाप इस अस्पताल तक पहुंच गए थे।… वे ही मां-बाप
जिन्हें वह कभी नहीं भूली… लेकिन कभी याद भी नही किया।
रात को घर जाते हुए कार में पावनी ने पूछा-अम्मा! आज जो बुजुर्ग पेशेंट आया था, गांव का… वो
कौन था? आप जानतीं हैं उसे? ब्यॉय बता रहा था कि सुगना मैडम ने भेजा है?
नाहीं! नाहीं! कोई खास जान-पहचान नाहीं है बिटिया!… हमें बे लोग सीधे-सादे से गांव के लगे…और
उनकी हालत बड़ी खराब होय रही थी… बस्स।
पावनी ने भी मां से अधिक सवाल नहीं किए, थकी थी शायद। पावनी रोज सुबह अपने घर से
निकलती फिर मां को उनके क्वार्टर से लेती और अस्पताल आती। जब तक पावनी पढ़ती थी तब तक
सुगना अपनी मालकिन के घर और अस्पताल दोनों का काम देखती थी। तब उसकी उम्र भी ऐसी
ज्यादा नहीं थी लेकिन जब से पावनी डॉक्टर बनी तबसे सुगना सिर्फ अस्पताल का ही काम देखती
है। अब वह दो-दो जगह के काम नहीं देख पाती, उम्र भी तो हो चली है। पावनी की शादी के बाद से
वह मालकिन का घर छोड़कर अस्पताल के स्टाफ क्वार्टर में आकर रहने लगी थी। वह अकेली थी,
पावनी के अलावा उसका और कोई नहीं था। रात को भी मां-बेटी एक साथ ही घर वापस जातीं।
पावनी पहले अपनी मां को घर छोड़ती फिर अपने घर जाती, जहां उसका पति उसका इंतजार कर रहा
होता। सुगना के कारण ही उसकी मालकिन भी निश्चिंत रहने लगीं थीं। कभी-कभी वे पूरे स्टाफ के
सामने हंसते हुए उसे छोटी-दीदी पुकार देतीं। सुगना झेंप जाती। पावनी को तो वे अक्सर ही छोटी-
मेमसाहब कहा करतीं थीं। पावनी भी उन्हें डॉक्टर-मां कहकर उनसे लिपट जाती थी।
सुगना कमरे में आकर कुछ देर लेट गई। आज उसका मन बहुत बेचैन था। उसने खाना भी नहीं
खाया। धीरे-धीरे रात गहरी होती जा रही थी लेकिन सुगना की आंखों से नींद गायब थी। उसकी आंखों
के सामने रह-रहकर अपनी मां का रोता हुआ चेहरा तैर जाता था। सुगना खिड़की के पास आकर खड़ी
हो गई और ऊपर से दूर-दूर तक फैली काली डामर वाली सड़क को देखने लगी। कतार से लगीं स्ट्रीट-
लाइट उस सड़क पर अपनी रोशनी बिखेर रहीं थीं। सुगना ने भी तो अपनी काली सड़क जैसी वीरान
और लंबी जिन्दगी में बड़ी कठिनाइयों से रोशनी हासिल की थी। उसके दिमाग में पुरानी यादों के
झंझावात उठने लगे। सुगना की आंखों से आंसू ढुलक गए। उसने आंसुओं की बूंदें अपनी हथेली पर
टिकानी चाही लेकिन वे बिखर कर उनकी आड़ी-तिरछी रेखाओं में समा गईं… गुम हो गईं।
सुगना पुरानी यादों में बह गई।
तेरह साल की अल्हड़, नटखट, हंसती-खिलखिलाती रहने वाली सुगना। ढीले-ढाले सलवार-कुर्ते में जहां-
तहां घूमती-फिरती रहती और पूरे गांव से बतियाती। एक दिन यूं ही उछलती-कूदती अपने झोंपड़ेनुमा
घर की ओर चली जा रही थी कि उसकी निगाह पिछवाड़े की निम्बिया के नीचे खड़े बापू पर पड़ी।
बापू किसी से बतिया रहे थे और उनके हाथ में खूब सारे पैसे भी थे। सुगना पास जाकर उनकी बातें
सुनना चाहती थी… बापू के हाथ मा इत्ते सारे नोटन की गड्डी! सुगना हैरान रह गई और छुपकर
उनकी बातें सुनने की कोशिश करने लगी… उसे इतनी दूर से कुछ सुनाई तो नहीं दिया लेकिन कुछ
दिनों बाद ये हुआ कि वह दूर के एक गांव में ब्याह दी गई और अपने घर से ससुराल चली आई।
ये लोग भी उसके मायके वालों की ही तरह किसानी का काम करते थे लेकिन दोनों के बीच बहुत
बड़ा आर्थिक-अंतर था। उसका बापू एक बंधुआ मजदूर किसान था जो कि दूसरों के खेतों पर बटाई
पर काम करता था जबकि ससुर गांव की लगभग आधी जमीन का मालिक था। वह अपने खेत बटाई
पर उठाता और गांव के गरीब किसान उसके खेतों पर किसानी करते थे। तीनो बेटे ऊपरी देख-रेख का
काम संभालते थे… साहूकारी का काम था सो अलग। परिवार में कुल चार ही लोग थे… और सब के
सब मर्द… उसका पति, ससुर, एक देवर और एक जेठ। घर में उसके सिवाय कोई और औरत नहीं
थी। धीरे-धीरे सुगना को पता चला कि सास कई बरस पहले ही बीमारी से चल बसी थी और जेठानी
किसी कारण से अपने पति का घर छोड़ मायके में जाकर रहने लगी थी।
सुगना के लिए बड़े अचरज की बात थी कि इस गांव में औरतें बड़ी कम थीं! ऐसा नहीं था कि सब
की सब औरतें घर के भीतर या परदे में रहतीं थीं क्योंकि जितनी भी औरतें थीं उनमें से अधिकतर
अपने-अपने घर के मर्दों के साथ खेती-बाड़ी और बाकी के कामों में उनका हाथ बंटाने बराबर से घर
के बाहर निकलतीं थीं। वह अपने टोला-पड़ोस के घरों में भी जाती तो उसे उनके घरों में भी औरतें
कम ही दिखतीं… बच्चों में भी छोरे ही छोरे नजर आते, कोई एकाध छोरी दिख गई तो गई।
सुगना को इस घर में आए पन्द्रह दिन ही हुए थे… अभी तो वह अपने पति के चेहरे को ठीक से
पहचान तक नहीं पाई थी जबकि वह हर रात आकर उसे रौंद जाता था। चैदह साल की सुगना इस
असहनीय दर्द को सह नहीं पा रही थी। न जाने कैसे परिवार में ब्याह दी गई थी, जहां न कोई बोलने
वाला… न दुःख-दर्द सुनने वाला… न ही प्रेम-प्यार की दो बातें करने वाला।
एक दिन ससुर ने रसोई के भीतर आकर कहा-बहू! जा बिरजू के घर जाकर दुःख मणा आ, उसकी
कल की जाई छोरी मर गई सै।
…धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। सुगना को एहसास होने लगा कि जे गांव मा छोरे ही जिअत हैं… न
जाने कैसे छोरियां पैदा होत ही या कबहूं-कबहूं दूसरे-तीसरे दिन तक मर ही जाती हैं… या शायद…
धीरे-धीरे सुगना ने उसी घर में अपना मन लगाना शुरू कर दिया… इसके सिवाए कोई और चारा भी
तो नहीं था। वह घर संवारती, सबके लिए खाना बनाती। औरत के आते ही वह उजाड़-सा दिखने वाला
घर भी मुस्कुरा उठा। पहले यह घर चार मर्दों के रहते हुए भी मातमी-सा ही लगता था। जबकि घर
में खाने-पीने-पहनने की कोई कमी नहीं थी। वह गरीबी और भूख जो सुगना अपने मायके में भोगती
आई थी, वह यहां कतई नहीं थी… यहां था तो बस अकेलापन… नितांत अकेलापन। अब कभी-कभी
सुगना भी अपने पति के साथ खेत की ओर चल देती लेकिन उसका ससुर रोक देता-बहू! तू कै करैगी
खेत्तण में जाकै… तू तो बस घर नै सम्हाल।
दिन बीतने के साथ-साथ सुगना के चेहरे से घूंघट कम होने लगा और अब वह घर के सभी व्यक्तियों
के चेहरे पहचानने लगी थी। वह पहचान गई थी कि उस दिन उसका बापू खेत में जिसके साथ बात
कर रहा था और पैसे ले रहा था वो उसका ससुर ही था।… पर बापू ने ई लोगन ते पइसे कौन बात
के लए! यह प्रश्न अब भी उसके लिए एक पहेली बना हुआ था।
घर में बंद रहकर उसका जी उचट जाता था। खेतों की ठंडी-ठंडी हवा और उड़ती मिट्टी की सुगंध उसे
बेहद पसंद थी। आज फिर सुगना खेत की ओर चल दी।… लेकिन पीछे से ससुर ने टोका-बहू! इब तू
कित कौ चाल दी? भीत्तर जा। ससुर की कड़क आवाज सुनकर सुगना सहम गई। धीमे-धीमे अपने
कमरे में आई और पलंग पर लेटकर सुबकने लगी। ससुर उसे पीछे से घूरता रहा।
कुछ ही देर बाद वह उसके कमरे में आकर मीठी आवाज में बोला – बहू! तू बुरा माण गई कै? देख
म्हारी बातण का बुरा कोणी माणा कर। ईब चार-चार जण कै होते हुए तू कै करेगी खेत्त मै!
सुगना ससुर को सामने खड़ा देख उठकर बैठ गई। अपनी साड़ी संवारने लगी।
ससुर ने सुगना के पलंग पर बैठते हुए आगे कहा-तू कितणी कोमल और कम उमर की सै, तू इतणा
काम करै, मन्नै देख कै अच्छा कोणी लागै। ऐसा कहते-कहते सुगना के ससुर ने उसकी हथेली अपने
हाथों में ले ली। सुगना चैंक के दूर जा खड़ी हुई। लेकिन अब तक अधेड़ ससुर के भीतर का मर्द पूरी
तरह से जाग चुका था और सुगना एक कमजोर लड़की थी, कब तक विरोध करती… आखिर में एक
मासूम बहू अपने ही ससुर की हवस का शिकार बन गई।
शाम को जब उसका पति लौटा तो उसने सुगना को कमरे में हाल-बेहाल पड़ा पाया… लेकिन आश्चर्य!
सारी स्थिति भांपने के बाद भी उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। रात का खाना भी चारों आदमियों ने
मिलकर ही पकाया और खाया। हां! उसका देवर जरूर आया था, उसके कमरे में। एक थाली लगाकर
सुगना के सामने रख गया था… बिना कुछ बोले।
दिन बीतते गए… सुगना रात को पति की हवस मिटाती और दिन में ससुर की। एक रात अचानक
सुगना ने महसूस किया कि आज जो मर्दाना बदन उसे मसल रहा है… उसके शरीर के ऊपर चढ़ा
हुआ है, उसका भार और दिनों से ज्यादा है… सांसों के उतार-चढ़ाव भी कुछ अलग हैं… औरत अंधेरे
में भी अपने पति के शरीर की गंध पहचान लेती है। सुगना को संदेह हुआ कि यह उसका पति नहीं
है और तभी बाहर जलते लैंप की रोशनी उस मर्द के बदन पर पड़ी। यह न तो उसके पति का जिस्म
था और न ही ससुर का… ओह! यह तो उसका जेठ था।
सुगना घबरा कर उठ बैठी लेकिन दो बलिष्ठ हाथों ने उसे अपनी ओर खींचा और उसके शरीर को
फिर से अपने नीचे धर लिया… सुगना पूरी रात इस तीसरे मर्द के साथ उघड़ी पड़ी उसकी हवस का
शिकार बनती रही।
धीरे-धीरे दिन बीतते गए। सुगना अब समझ गई थी कि वह इस घर में सिर्फ भोगने की चीज है।
उसका काम भूख मिटाना है… पेट की और शरीर की। वह मानसिक रूप से तैयार थी कि किसी दिन
देवर भी उससे अपनी भूख मिटाएगा… और वही हुआ भी।
सुगना दिन भर घर के काम करती और रात को किसी न किसी के जिस्म के नीचे कुचली जाती।
अब उसे उन नोटों की गड्डी की पहेली भी पता चल चुकी थी, जो उस दिन उसका ससुर उसके बापू
को दे रहा था। वह जान गई थी कि उसके बाप ने चंद नोटों के लालच में उसे चार मर्दों वाले इस घर
में बेचा है।
इन रईसजादों ने अपने पैसों के दम पर गरीब घर की लड़की को खरीद लिया था। अपने इस पाप को
ब्याह का जामा इसलिए पहनाया ताकि कानूनी पचड़ों से बचे रह सकें और अपनी चहारदीवारी के
भीतर हाड़-मास के इस शरीर को जी भरकर भोग सकें।
वह इस घर में नाम के लिए ही ब्याही गई थी। असल बात तो यह थी कि वह इस घर के मर्दों की
हवस मिटाने के लिए खरीदी गई थी। उसके बापू ने भी उसका ब्याह पूरे रस्मो-रिवाज के साथ किया
ताकि समाज और बिरादरी में इज्जत बनी रहे। घर बैठे इतना रुपया मिल रहा था सो गरीबी से जूझ
रहा पिता लालच में अंधा हो उठा और सोचने लगा कि घर की बड़ी लड़की निबटे ताकि दूसरे बच्चों
को भी हिल्ले लगाया जा सके।
सुगना मासूम थी। अधिकार, कानून, न्याय-अन्याय कुछ नहीं समझती थी लेकिन वह अपने साथ हुए
इस कृत्य के लिए अपने पिता से लड़ना चाहती थी… पूछना चाहती थी कि उसका कुसूर क्या था…
क्या वह इतनी बोझ बन चुकी थी कि उसे इन जालिमों के हाथों बेच दिया! सुगना अपने माता-पिता
से उस दिखावे की शादी का कारण जानना चाहती थी… उन्हें अपने साथ हुई नाइंसाफी और इस
घिनौने काम के लिए उलाहना देना चाहती थी… चीख-चीखकर रोना चाहती थी। उन्हें अपनी ही जाई
का दर्द दिखाना चाहती थी। इसीलिए सुगना ने मायके जाने का निश्चय किया। लेकिन पति ले जाने
को तैयार न हुआ… किसी और के साथ वह जाना नहीं चाहती थी। लड़की थी न!… अब भी मां-बाप
की इज्जत के बारे में ही सोच रही थी। यदि ससुर, जेठ या देवर के साथ गई तो लोग नाम धरेंगे,
गांव में उनकी बड़ी बदनामी होगी। सो वह अकेली ही मायके चल दी।
जिस आस के साथ मायके आई थी वह यहां आते ही टूट गई। पिता ने खुद ही पूछ लिया-तुम अपनी
ससुराल मा सबन को खुश रखती हो के नाहीं?
मां ने समझाया – बिटिया! अब ऊ ही तोहरा घर है। सबन की बात मानके उनकी सेवा करियो… यही
औरत को धरम होवत है।
कउन धरम अम्मा! का तुमहू ऐसे धरम को मानतीं हौं? जब बेटी ने मां को एकांत में अपने साथ
होने वाले रोज-रोज के बलात्कार के बारे में बताया तो मां का मन भी रोने को हो आया… लेकिन हल
तो उसके पास भी नहीं था।
बिटिया! तुम ऊ घर मा रहके अलग-अलग इंसानन के एकही जुलम सह रही हो जबकि हम ई घर मा
कित्ते ही बरसन से एक ही इंसान के अलग-अलग जुलम सहन कर रहीं हैं। बिटिया! औरतन को
जीवन ऐसो ही है। अब जो है, जैसो है… ऊ ही तुम्हरा घर है। तोका उन लोगन के साथ ही निबाह
करै का पड़ी। जे तुम कौनहु गलत कदम उठहिओ तो हम सबन की थू-थू हुई है। बिटिया… तुम्हरे
छोटे-छोटे भाई-बहन हैं, फिर उन सबन को निस्तार कैसे हुई है! अम्मा अपनी ही जाई को अपने दूसरे
बच्चों की दुहाई देने लगी। सुगना तड़प उठी। किसी से कुछ न बोली… पुरानी सहेलियां मिलने दौड़ी
चली आईं लेकिन वह उनसे भी न मिल सकी।
आश्चर्य! दूसरे ही दिन उसका मर्द उसे लेने पहुंच गया था। अम्मा! सुगणा नै लैणै आया सूं। ईब
सुगणा कै बिणा घर सूणा-सूणा सा लागै सै।
सुगना कड़वाट निगलते हुए मन ही मन बड़बड़ाई-ऊंहह! घर सून-सूना-सा लागै है कि तुम जालिमन-
अधर्मियन को अपना बिस्तरा सूना-सुना सा लागै है! एक रात तक न काट पाए तुम चारों औरत के
जिसम के बिना!
सुगना का मन अब अपने मायके से भी भर गया था। वह समझ गई थी कि उसे किसी का आसरा
नहीं बचा है। मायके से लेकर ससुराल तक सब के सब स्वार्थ के सगे हैं… मतलब के रिश्ते हैं। सुगना
जैसी लड़कियां बरसों-बरस अत्याचार सहती रहतीं हैं और अपने घर-परिवार के खिलाफ कभी कोई
आवाज नहीं उठातीं। वे इसे अपनी नियति मानने लगती हैं और यूं ही अपना जीवन काट देतीं हैं।
सुगना ससुराल लौट आई लेकिन कुछ ही दिन बाद एक और घटना घटी… सुगना मां बनने वाली थी।
घर में सब खुश हो उठे। रात-दिन बस एक ही चर्चा कि लड़के का नाम ये रखेंगे, उसे ऐसे पढ़ाएंगे,
ऐसे खिलाएंगे लेकिन किसी को भी न तो इस बात में दिलचस्पी थी कि ये भ्रूण किसका है और न ही
इस बात में कि हम चार भोगी मर्दों में से इसका असली बाप कौन है?
नौ महीने बीते… घर में किलकारी गूंजने लगी। लड़का ही हुआ था। शक्ल किस पर गई, यह कहना
भी मुश्किल क्योंकि तीनों भाइयों की शक्ल अपने बाप से ही मिलती थी, सो यह नवजात भी शक्ल-
सूरत से उन्हीं पर गया था। सुगना के ससुर ने गांव भर में लड्डू बंटवाए, नाच-गाना हुआ, खूब जश्न
मनाया गया। गांव की औरतें उसके आंगन में जुटीं और जच्चा गाए गए। सुगना बार-बार अपने बच्चे
का मुंह देखती और घर के चारों मर्दों को देखती।
समय फिर सरकने लगा। सुगना दिनभर घर संवारती, बच्चे को संभालती और रात में बारी-बारी से
भूखे मर्दों की भूख मिटाती। उसे अब अपने ही शरीर से घिन आने लगी थी। ताज्जुब यह था कि यदि
वह उन चारों मर्दों में से किसी एक का भी विरोध करती या अपना बदन उघाड़ने से ना नुकुर करती
तो वे सब के सब एक हो जाते थे और उसे तरह-तरह से सताते थे। धीरे-धीरे वह नन्हा बच्चा भी
अपनी मां के साथ नहीं बल्कि उन्हीं में से किसी न किसी के साथ सोने लगा। सोने क्या लगा!…
छोटे बच्चे को बहादुर बच्चा कहकर अपनी मां से दूर कर दिया गया ताकि वहशियों की रातें गुलजार
रहें… कोई अड़चन न आए। धीरे-धीरे बच्चा भी अपनी मां की बजाए बाप, दादा, चाचा और ताऊ की
ही बोली बोलने लगा। अक्सर मां को पलटकर जवाब दे देता… उसका दिल दुखा देता। वो कहते हैं न-
पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं। सुगना को भी जब-तब उसकी शक्ल देखकर यही विचार
हो आता कि, का एक दिना जे लड़का हु इस घर के बाकी मर्दन की तरहा कउनहु औरत की इज्जत
से खेलिहै? ऊकी इज्जत को तार-तार करिहै?…खून को असर जइहै कहां! लेकिन फिर अगले ही पल
वह अपने विचार को झटक देती और बच्चे पर अपनी ममता लुटाने लगती। आखिर तो मां ही थी न!
बहुत जल्दी सुगना को दूसरा गर्भ ठहर गया। फिर दिन बीते… और इस बार लड़की ने जन्म लिया।
यकायक घर में कोहराम मच गया। टोला-पड़ोस के लोग फिर उसके आंगन में जुट आए लेकिन इस
बार न कोई बधाई, न कोई गीत-संगीत, बस एक ही चर्चा… हाय हाय! छोरी हुई सै! सुगना जापे में
थी सो कभी अपने कमरे में लेटी-लेटी कान लगाकर बाहर की आवाजें सुनती तो कभी अपनी मासूम
बेटी का चेहरा देखने लगती।
अरे अम्मा! बिटिया ही तो पैदा भई है, का कोई डायन पैदा होय गई है! तुम सब लोग इत्ती हाय-तौबा
काहे मचाएं हो! सुगना ने अपने कमरे में आई दाई से पूछा।
बहुरिया! ईका डायन ही जान… लड़कनी की जात पूरो को पूरो बंस लील जात है। जउन घर मा
लड़कनी पैदा होय जात है, ऊ घर मा मुसीबतन को अम्बार लग जात है।
तुम अउरत होये के ऐसी बातें कइसे कह सकतीं हो अम्मा!
हम ही काहे! तुमहु तौ अउरत हो… का अउरत होयवे को दुःख तुम ना जानतीं हो? अम्मा ने सुगना
की आंखों में आंखें डालकर कुछ इस अंदाज में बोला कि सुगना भीतर तक सिहर गई।
दाई उसके कमरे में कुछ छुटपुट काम करके बाहर निकल गई। सुगना यूं ही बिस्तर पर लेटी रही।
वैसे भी उसे चालीस दिन के लिए इन मर्दों से मुक्ति तो मिली।
तभी उसे दरवाजे के बाहर से दाई और ससुर के फुसफुसाने की आवाज सुनाई दी-दाई! इब तू ही किते
कोई हल निकाल। आज छोरी नै पहला दिण सै, कदीं कुछ ऐसा कर कि कल रात तक निपटारा हो
जाए। बस्स!!
हां! हां! पूरे गांव की निपटाऊं हूं, तुम्हारी भी निपटाय दूंगी। बस, तुम तो जे सोचो कि उस धुधमुंही
की मां का और हमार मुंह कइसे बंद करना है।
हां! हां! इब तू उसकी चिंता कोणी कर। हमणै पहले कदी तेरे खुल्ले विच कोई कमी रहणे दी जो ईब
रहणे देंगे?… तेरी हर खुल्ली जगह में ठूंस-ठूंस कर भर देंगे। तू पहलै इस छोरी सूं हम सबण का
पीछ्छा छुड़ा दै मेरी राणी।… और दोनों बेशर्मी से खिलखिलाने लगे।
सुगना अपनी बच्ची का भविष्य जान चुकी थी। वह जब से इस गांव में ब्याह कर आई थी तब से
कितनी ही बच्चियों का भविष्य देखती आई है। सुबह जन्म लेतीं हैं बेचारीं… और रात भर में या तो
धरती माता उन्हें अपने सीने से लगा लेती है, कभी गंगा मैया तार देती है, तो कभी कोई कुआं या
बावड़ी लील जाती है। किसी-किसी के साथ यह सब नहीं होता तो उनकी सांस उनका साथ छोड़ देती
है या कोई-कोई जन्मते ही मिर्गी के दौरे से मर जाती है। साबित कर ले जिसको जो साबित करना
हो… मौत इतने सलीके से आती है कि कब आकर छू गई, बच्ची की मां भी नहीं जान पाती…और
जो बेचारी जान भी जाती तो क्या कर पाती इस निर्दयी समाज का, जिसमें सारे कारे बादर औरत
जात पर ही मंडराते हैं… मर्द तो मानों कोई अमृत-बटी खाकर आया हो। सोचते-सोचते सुगना की
आंख लग गई। साथ ही लेटी उसकी बच्ची भी सो चुकी थी… गहरी नींद में… उसका जिस्म धीरे-धीरे
नीला पड़ रहा था। सुबह-सुबह पूरे गांव में जगार हो गया। गांव भर के औरत-मर्द उसके आंगन में
आकर मातम मनाने लगे। बच्ची को रात में जहरीले सांप ने डस लिया था, मगर कैसे!… .आह!
कइसे का? हियां तो डगर-डगर पर सांप ही रेंगत हैं, नन्ही-सी जान कइसे बच पाती इन जहरीले
लोगन से! सुगना ने ममता की सारी पीड़ा मन में दबा ली और बिलख-बिलखकर कर रो पड़ी। बच्ची
का अंतिम संस्कार कर दिया गया… आखिर वो एक आत्मा जो थी।
यहां जीते-जी किसी की आत्मा को कितना भी कष्ट दिया जा सकता है लेकिन मरने के बाद उसकी
आत्मा का संस्कार पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ किया जाता है। गजब है हमारा समाज!
छह महीने भी नहीं बीते और सुगना फिर पेट से थी। सुगना फिर एक-एक दिन डर के साथ गुजारने
लगी जबकि उसका मर्दों वाला परिवार एक और मर्द के इंतजार में सपने संजोने लगा। क्योंकि इत्ती
बड़ी जमींदारी है, घर है, दुकाने हैं, सब संभालने के लिए तो मर्द ही चाहिए न! औरत का क्या है…
मिल ही जाती है हरे-हरे नोटों के सहारे।
सुगना को अब बस देवी मां का ही आसरा था। रोज सुबह एक औरत नहा धोकर दूसरी औरत के
सामने दिया जलाती और उसकी कोख से औरत जात न जने, यह फरियाद करती… लेकिन देवी मां
ने सुगना की प्रार्थना नहीं सुनी और आठ महीने बीतते ही बच्ची ने जन्म ले लिया। इससे पहले कि
पूरा परिवार मातम मनाता… बच्ची की बलि चढ़ाता, सुगना उस नन्हीं-सी जान को अपने सीने के
भींचकर फूट-फूटकर रो पड़ी… और बड़ी देर तक रोती रही। थोड़ी देर में उसकी चेतना लौटी जब दाई
उसके सिरहाने आकर खड़ी हो गई और बोली-बहुरिया! लाओ बिटिया को दे देओ। नहला धुलाकर नए
कपड़े पहनाय दें।
न अम्मा! थोड़ी देर ऐसी ही रहन देओ।
देख बहुरिया समझा कर… इस घड़ी दो घड़ी की मेहमान से इत्ती ममता ठीक ना है। दाई नाराज हुई।
ना अम्मा! हम इसे ना देंगे, तुम हमें कुछ देर ईके साथ अकेली छोड़ देओ, तुम्हें देवी मां की सौहं।
अब तुम देवी मां की सौगंध दे रहीं हों तो… । दाई ऐसा कहकर चली गई। लेकिन सुगना जानती थी
कि वह कुछ ही देर में फिर आ जाएगी।… और वही हुआ। दाई एक चम्मच में शहद लेकर आ गई।
अम्मा जे का है?
सहद है…बच्चन को दओ जात है। दाई ने बच्ची के होठों से शहद लगाया और कमरे से बाहर चली
गई। उसके जाते ही सुगना तुरंत बिजली-सी झपटी और सारा का सारा शहद बच्ची के होठों से पोंछ
दिया। फिर उसने अपने पल्लू को उंगली में लपेटकर बच्ची के कोमल मुंह के भीतर डाला और पूरा
मुंह अच्छी तरह पोंछ डाला। बच्ची दर्द से बिलबिला उठी… सुगना ने उसे अपनी छाती से लगाकर
दूध पिलाना शुरू कर दिया और फिर उसकी पीठ पर हौले-हौले से कुछ धौल मारे ताकि बच्ची पीया
हुआ दूध उलट दे।… बच्ची ने उबकाई भरी और दूध उलट दिया। अब सुगना के चेहरे पर संतोष तैर
गया। इसके बाद वह इत्मीनान से अपनी जाई को दूध पिलाने लगी।
लेकिन यह सिलसिला हर घंटे दोहराया जाता रहा। दाई आती… बच्ची को शहद चटाती और सुगना
बच्ची के पेट तक वह शहद पहुंचने ही न देती। किसी तरह से वह रात कट गई। सुबह से बच्ची ने
अपने रोने की आवाज से घर के मर्दों के कान में सीसा पिघलाना शुरू कर दिया था।
जाणै कैसे बच गी सुसरी! ससुर बड़बड़ाया।
बापू! मणै लागै कि दाई का मुंह इब ज्यादा ही खुल्लण लग्या सै… स्साली ने शहद में असली जहर
णा मिलाया सै।
इब आण दै… देख लूंगा उसनै भी। बुड्ढे ने गन्दी-सी गाली देते हुए पुलिया के किनारे पीक थूक दी।
दाई ने आज भी आते ही बच्ची को नहलाने की जिद्द शुरू कर दी लेकिन सुगना किसी भी तरह न
मानी। दाई और तरकीबें सोचने लगी… सुगना भी बेहद चैकन्नी हो उठी। दाई ने मालिश करने के
लिए बच्ची को जमीन में बिछे कालीन में लिटा लिया। दाई बच्ची की मालिश करती जाती और बार-
बार उसकी कोमल नाक दबा देती… सुगना चिल्ला पड़ती। एकाएक मालिश करते हुए दाई ने बच्ची
का मुंह पास रखे कम्बल से ढांप दिया… बच्ची छटपटाने लगी। सुगना चीख पड़ी… वह तीर की तरह
झपटी और बच्ची का मुंह खोल दिया। दाई खिसियानी-सी हंसी हंस दी। वह बच्ची को वहीं जमीन पर
ही छोड़कर कमरे से बाहर निकल गई। सुगना ने उस मासूम को उठाकर अपने सीने से लगा लिया…
मां-बेटी बड़ी देर तक सुबक-सुबक कर रोतीं रहीं। ममता आज कसौटी पर थी… बच्ची को तरह-तरह
से मारने की कोशिश की जा रही थी लेकिन सुगना चैकस मां बनकर अपनी बेटी और उसकी मौत के
बीच मजबूत दीवार की तरह खड़ी हो चुकी थी। घर में सभी को सुगना का यह विद्रोह साफ नजर आ
रहा था लेकिन वे उसका खुलकर विरोध भी तो नहीं कर सकते थे… वे मां के आंचल से जबरन
खींचकर बच्ची को मौत के घाट नहीं उतार सकते थे… कानून अब पहले जैसा नहीं था, बहुत सख्त
हो गया था।
इसी उधेड़बुन में रात हो गई। यह इस बच्ची की इस घर में दूसरी रात थी… नहीं अंतिम! और सुगना
की भी… अंतिम रात!
रात के अंधेरे में सुगना ने मौका देखकर अपनी बच्ची को चादर में लपेटा और दीवार की आढ़ लेकर
पुलिया पार करते हुए खेतों की सीमा तक आ पहुंची। घर के भेड़ियों और खेतों के कुत्तों से बचते-
बचाते वह मुख्य सड़क तक आ गई। बच्ची मां की छाती से चिपटी हुई थी। दूर से एक ट्रक आता
दिखा… सुगना ने उसे रुकने का इशारा किया और वह भला मानुस मानों सब समझ गया हो, मां-बेटी
को अपने ट्रक में बैठाकर शहर की ओर चल दिया। सुगना ट्रक में उस मर्द से भी सावधान बनी
रही… क्योंकि उसे मर्दों से नफरत हो चुकी थी। हालांकि वह अपने बेटे के प्रति अपना दिल बड़ी ही
मुश्किल से कड़ा कर पाई थी। इस बेटी की जान बचाने की खातिर उसे बड़ी कठिनाई से अकेला
छोड़कर आ पाई थी।
बहण! ईब तू इस नन्ही-सी जाण नै लेके कित कौ जावैगी? शहर में तेरा जाण-पहचाण वाला कौन
सै?
बहन… बहन शब्द सुनते ही जैसे कोई मुरझाया रिश्ता खिल उठा हो… सुगना इस एक शब्द से महक
उठी। उसने उस ट्रक वाले से शहर की सीमा तक छोड़ देने का निवेदन किया। आधी रात हो चुकी थी
और ट्रक अंधेरे को चीरता हुआ शहर की ओर बढ़ रहा था। एकाएक ट्रक रुक गया।
भइया! का भओ… तुमने टिरक काहे रोक दओ?
देखूं सूं।
सुगना का मन सशंकित हो उठा… बुरे खयाल आने लगे। जब कोई बुरी घटना घटने वाली होती है
तब अक्सर हमारा अचेतन मन सावधान होने की चेतावनी देने लगता है।… और सुगना का तो अपने
सगे रिश्तों तक से विश्वास उठ चुका था, फिर ये इंसान तो राह चलते भाई बना था, उस पर कैसे
विश्वास कर लेती! ट्रक वाला नीचे उतर कर अपने ट्रक का इधर-उधर से मुआयना कर ही रहा था कि
सुगना भी अपनी बच्ची को गोद में दबोचे हुए दबे पांव ट्रक से उतरी और नीचे झाड़ियों में जाकर
छुप गई। चारों तरफ घुप्प अंधेरा था… लेकिन ट्रक की हल्की-हल्की रोशनी में धुंधला-सा दृश्य नजर
आ रहा था। सुगना ऊपर से नीचे तक सिहर गई जब उसने ट्रक वाले को शराब गटकते हुए और
अपने गुप्तांग को सहलाते हुए देखा। उसे अहसास हुआ कि वह सही समय पर चेती और ट्रक से नीचे
उतर आई थी। अचानक तभी बच्ची कुनमुनाई… सुगना ने तुरंत अपना स्तन उस मासूम के मुंह में दे
दिया। वह शांत हो गई। इस समय उसके पास उन झाड़ियों में छुपे रहने के अलावा और कोई चारा न
था क्योंकि यदि वह एक कदम भी बढ़ाती तो झाड़ियों में हरकत हो उठती।… और एक भेड़िया शराब
के नशे में धुत्त उसी को खोज रहा था। थोड़ी ही देर में उस पर शराब का जबरदस्त सुरूर चढ़ गया
और वह बड़बड़ाने लगा… सुगना को गंदी-गंदी गालियां देता हुआ ट्रक में जाकर बैठ गया। सुगना के
लिए यह पूरा दृश्य बड़ा ही भयावह था। उसने बचपन में राक्षसों की कई कहानियां सुनीं थीं और इस
वक्त यह ट्रक वाला किसी भयंकर राक्षस से कम नहीं लग रहा था। वह सीट पर बैठा कुछ देर और
अपने हलक में शराब उतारता रहा, गालियां देता रहा… फिर ट्रक चलाकर आगे बढ़ गया। उसके जाते
ही सुगना की जान में जान आई। वह अपनी बच्ची को संभालती हुई झाड़ियों से बाहर निकली और
कुछ देर तक वहीं सड़क के किनारे निढाल होकर बैठी रही। यह रात बहुत भारी थी इन मां-बेटी के
लिए।
सुगना ने फिर हिम्मत बटोरी और उसी रास्ते पर धीरे-धीरे आगे चलने लगी। अंधेरा था, लेकिन
सुगना धीरे-धीरे ही सही आगे बढ़ती रही… रुकी नहीं। इस सुनसान रास्ते में इक्का-दुक्का ही कोई
वाहन निकल रहा था, वो भी खूब-खूब देर के बाद। दूर से कोई भी वाहन आता हुआ नजर आता तो
सुगना किसी पेड़ या झाड़ी के पीछे छिप जाती। सुगना अब किसी भी गाड़ी में नहीं बैठना चाहती
थी… वह अब किसी पर भी भरोसा नहीं करना चाहती थी। वह चलती रही… देर तक… दूर तक… देह
थककर चूर-चूर हो गई थी लेकिन वह बिना रुके चलती ही जा रही थी…
एकाएक सुगना की चेतना लौटी… उसकी आंख खुली और उसने देखा कि वह किसी कोठी के बगीचे
में पड़े कालीन पर लेटी है। उसकी बच्ची भी पास ही के तखत पर लेटी है जिसे एक मेमसाहब जैसी
दिखने वाली औरत बोतल से दूध पिला रही है। सुगना हड़बड़ाकर उठ बैठी। उसने इधर-उधर निगाह
दौड़ाई। यह किसी रईस का घर था।
घबराओ मत! यह मेरा घर है और मैं एक डॉक्टर हूं। मेरे पति भी डॉक्टर हैं लेकिन वे कुछ समय के
लिए विदेश गए हुए हैं। जब मैं सुबह सैर पर गई तब तुम मुझे सड़क के किनारे बेहोश पड़ी मिलीं,
तुम्हारी बच्ची भूख से रो रही थी। अब तुम बताओ कि तुम कौन हो और इतनी छोटी-सी बच्ची को
लेकर यहां-वहां क्यों भटक रही हो?
मेमसाहब!…
उसने बात काटते हुए कहा-मेमसाहब नहीं दीदी कहो।
दीदी! हम अपनी जा बिटिया की जान बचावे के खातिर ही रात के अंधेरे में घर से भागी हैं।… और
सुगना ने अब तक की सारी आपबीती सुना डाली। सुगना का संघर्ष सुनते-सुनते उस भद्र महिला का
दिल भर आया लेकिन उसने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा-ठीक है, मैं तुम पर
विश्वास कर लेती हूं। लेकिन तुम्हें अपने आगे के जीवन के बारे में खुद ही सोचना होगा… कहां
जाओगी… क्या करोगी? जब तक तुम्हारा कोई बंदोबस्त नहीं होता तब तक तुम मेरे घर में रह
सकती हो। यहां तुम पूरी तरह से सुरक्षित हो।
दीदी! हम आपके छोटे-बड़े सबरे काम कर दीहें। आप हमे और हमरी बिटिया को आसरा दइ देओ।
हम तो जे सहर को नाम तक नहीं जानतीं। वह रो पड़ी।
ठीक है, लेकिन तुम्हें पुलिस स्टेशन में अपनी फोटो और नाम दर्ज करवाना होगा। हां! तुम अपने
पहचान वालों में मेरा नाम डाल सकती हो। देखो सुगना! शहर में सुरक्षा की दृष्टि से यह सब
फॉर्मेलिटीज जरूरी होतीं हैं।
दीदी हम आपकी सब बात मानिहें। नरक से भाग के तो हियां आए हैं… अब हियन ते भाग के भला
कहां जइहैं? आप तो बस ई गरीब-दुखियारी मां को आसरा दई देओ।
धीरे-धीरे सुगना ने अपनी मालकिन के घर का सारा काम संभाल लिया। उन्हें भी सुगना के रूप में
विश्वासपात्र सेविका मिल गई थी। उनके कोई औलाद नहीं थी इसलिए वे सुगना की बच्ची को अपना
सारा दुलार देने लगीं।
सुगना फिर जी उठी। उसे कभी-कभी अपने बेटे की याद जरूर आती लेकिन वह खुद को संभाल लेती,
वह नहीं चाहती थी कि उसकी बच्ची कभी-भी अपना अतीत जाने, फिर उस अतीत की चिंगारियों को
खंगाले… सुगना अपनी बेटी को उन लपटों से बचाकर रखना चाहती थी।… और वैसे भी जैसा उसके
ससुराल का माहौल था, उसे विश्वास था कि उसका बेटा प्यार से पाला जा रहा होगा। वहां औरतों को
जख्म देने का रिवाज था मर्दों को नहीं।
सुगना अब तक अपने जिन सगे रिश्तों से आहत होती आई थी… उनके दिए जख्म लेकर सिसक रही
थी, इस बे-रिश्ते की महिला ने अपने प्रेम और संरक्षण से उन सारे जख्मो को भर दिया था। दोनों ने
मिलकर उस बच्ची का नाम पावनी रखा। पावनी ने स्कूल जाना शुरू कर दिया। सुगना अब अपनी
डॉक्टर-दीदी के साथ उनके अस्पताल भी जाने लगी थी। उनके पति भी बहुत भले इंसान थे। उनके
रूप में सुगना ने पहली बार किसी देवता समान भले पुरुष को देखा था।
अपनी मालकिन को देख-देखकर सुगना ने पावनी को भी डॉक्टर बनाने का सपना संजो लिया और
उसकी मालकिन भी पावनी को डॉक्टर बनते ही देखना चाहती थी। वह बच्ची सुगना की बेटी कम
उनकी बेटी अधिक हो गई थी। पावनी सुगना को अम्मा और उन्हें डॉक्टर-मां कहती। पावनी की
परीक्षा अच्छी न जातीं तो उसे अपनी डॉक्टर-मां से खूब डांट सुननी पड़ती। उसकी टीचर के साथ
मीटिंग भी डॉक्टर-मां ही करतीं थीं।
सुगना घर और हॉस्पिटल में मेहनत से काम करती थी। पावनी भी अपने स्कूल की पढ़ाई में जी-जान
लगा रही थी।… और एक दिन सुगना का सपना पूरा हो गया उसकी बेटी पावनी डॉक्टर बन गई।
धीरे-धीरे समय बीता और पावनी के कई ऑपरेशन बेहद सफल रहे।… आज वह शहर की बड़ी डॉक्टर्स
में गिनी जाती है।
घनन्न… घनन्न… घनन्न… घनन्न… रात के सन्नाटे में सुगना के फोन की घंटी घनघना उठी। वह
तत्काल अपने वर्तमान में लौट आई। खिड़की से हटकर पलंग की ओर बढ़ी और फोन का चोंगा अपने
कान से लगाकर बोली-हैलो!
उधर से ब्यॉय की आवाज थी-मैडम! आज सुबह वाला पेशेंट नहीं रहा। वो बुढ़िया बहुत रो रही थी।
मैंने पूछा भी कि, क्या सुगना मैडम को बुला दूं? लेकिन उसने मना कर दिया।
बुढ़िया नाहीं… मां जी कहो, वो तुमसे बड़ी हैं… कहां हैं वो? हमरी बात कराओ।
मैडम! वे तो कुछ देर पहले ही अपने पति की बॉडी को लेकर गांव चलीं गईं।
अच्छा!…
सुगना पलंग पर बैठ गई… फोन हाथ से छूट गया और अपने-आप ही कट गया।… नहीं दूसरी ओर
से काट दिया गया था।
(सृजनगाथा से साभार प्रकाशित)
कविता
निस्तब्धता
-आचार्य बलवन्त-
जब गहन निस्तब्धता में,
दर्द की लौ टिमटिमायी,
फिर तुम्हारी याद आयी।
पूछता हूं कौन आया,
दर्द को किसने जगाया,
बात वो किसने चलायी?
फिर तुम्हारी याद आयी।
सिसकियों में शाम लेकर,
सुबह का पैगाम लेकर,
रात जब भी मुस्कुरायी।
फिर तुम्हारी याद आयी।।
(सृजनगाथा से साभार प्रकाशित)
हम तुम्हरे पांय परत हैं बिटिया, इनका बचाय लेओ। बुढ़िया हाथ जोड़े, अधझुकी होकर सुगना के
सामने मिन्नतें कर रही थी जबकि सुगना का पूरा शरीर क्रोध से कांप रहा था और हथेलियां गुस्से से
भिंची हुईं थीं।
सुगना! तनिक देख लल्ली… ई तुम्हरा बाप है।
कौउन बाप! सुगना उबल पड़ी। हमरा कउनहु बाप नाहीं… लई जाओ इनका हिंया से।
सुगना ने अब तक स्ट्रेचर पर कराहते वृद्ध की ओर एक नजर भी नहीं डाली थी लेकिन उसके
कराहने की आवाज लगातार उसके कानों में पड़ रही थी।
नाहीं बिटिया! अइसन ना बोलौ… बचाय लेओ इनका। बुढ़िया ने फिर एक बार गिड़गिड़ाते हुए सुगना
के पांव पकड़ लिए।
बि…टि…या…! इस बार बूढ़े व्यक्ति की कराह के साथ निकले ये शब्द टूटते हुए वहां बिखर गए।
सुगना ने न चाहते हुए भी नफरत से भरी एक नजर उस ओर डाली… सचमुच हालत बेहद खराब थी।
सांसों की डोर किसी भी वक्त जिन्दगी का साथ छोड़ सकती थी। सुगना ने वॉर्ड-ब्यॉय को आवाज
लगाई- ब्यॉय! मरीज को भीतर लइ जाओ… और पावनी मैडम को भी बुलाए देओ, तुरंत… मरीज की
हालत नाजुक है।
ब्यॉय दौड़कर आया और सुगना के आदेश का पालन करने लगा।
यह अस्पताल सुगना की मालकिन का था। सुगना ने बेहद गरीबी के बावजूद हिम्मत नहीं हारी और
कठिन तपस्या करके अपनी बेटी पावनी को डॉक्टर बनाया। सुगना बहुत सालों से अपनी मालकिन का
घर और अस्पताल दोनों संभालती आई थी। अब तो वह इस अस्पताल में इतनी पुरानी हो चुकी थी
कि पूरा स्टाफ उसकी इज्जत करता था। यहां उसका रुतबा भी मालकिन से कम न था।
पावनी भी इस अस्पताल में जी-जान से काम करती थी। डॉक्टर, पेशेंट, स्टाफ सब उसे बेहद पसंद
करते। वह भी तो सबके लिए दिन-रात एक किए रहती। वह इस अस्पताल में सबकी लाडली डॉक्टर-
दीदी थी। दोनों मां-बेटी के लिए यह अस्पताल ही उनकी दुनिया थी।
आज उसी सुगना को ढूंढते-ढांढ़ते उसके बूढ़े मां-बाप इस अस्पताल तक पहुंच गए थे।… वे ही मां-बाप
जिन्हें वह कभी नहीं भूली… लेकिन कभी याद भी नही किया।
रात को घर जाते हुए कार में पावनी ने पूछा-अम्मा! आज जो बुजुर्ग पेशेंट आया था, गांव का… वो
कौन था? आप जानतीं हैं उसे? ब्यॉय बता रहा था कि सुगना मैडम ने भेजा है?
नाहीं! नाहीं! कोई खास जान-पहचान नाहीं है बिटिया!… हमें बे लोग सीधे-सादे से गांव के लगे…और
उनकी हालत बड़ी खराब होय रही थी… बस्स।
पावनी ने भी मां से अधिक सवाल नहीं किए, थकी थी शायद। पावनी रोज सुबह अपने घर से
निकलती फिर मां को उनके क्वार्टर से लेती और अस्पताल आती। जब तक पावनी पढ़ती थी तब तक
सुगना अपनी मालकिन के घर और अस्पताल दोनों का काम देखती थी। तब उसकी उम्र भी ऐसी
ज्यादा नहीं थी लेकिन जब से पावनी डॉक्टर बनी तबसे सुगना सिर्फ अस्पताल का ही काम देखती
है। अब वह दो-दो जगह के काम नहीं देख पाती, उम्र भी तो हो चली है। पावनी की शादी के बाद से
वह मालकिन का घर छोड़कर अस्पताल के स्टाफ क्वार्टर में आकर रहने लगी थी। वह अकेली थी,
पावनी के अलावा उसका और कोई नहीं था। रात को भी मां-बेटी एक साथ ही घर वापस जातीं।
पावनी पहले अपनी मां को घर छोड़ती फिर अपने घर जाती, जहां उसका पति उसका इंतजार कर रहा
होता। सुगना के कारण ही उसकी मालकिन भी निश्चिंत रहने लगीं थीं। कभी-कभी वे पूरे स्टाफ के
सामने हंसते हुए उसे छोटी-दीदी पुकार देतीं। सुगना झेंप जाती। पावनी को तो वे अक्सर ही छोटी-
मेमसाहब कहा करतीं थीं। पावनी भी उन्हें डॉक्टर-मां कहकर उनसे लिपट जाती थी।
सुगना कमरे में आकर कुछ देर लेट गई। आज उसका मन बहुत बेचैन था। उसने खाना भी नहीं
खाया। धीरे-धीरे रात गहरी होती जा रही थी लेकिन सुगना की आंखों से नींद गायब थी। उसकी आंखों
के सामने रह-रहकर अपनी मां का रोता हुआ चेहरा तैर जाता था। सुगना खिड़की के पास आकर खड़ी
हो गई और ऊपर से दूर-दूर तक फैली काली डामर वाली सड़क को देखने लगी। कतार से लगीं स्ट्रीट-
लाइट उस सड़क पर अपनी रोशनी बिखेर रहीं थीं। सुगना ने भी तो अपनी काली सड़क जैसी वीरान
और लंबी जिन्दगी में बड़ी कठिनाइयों से रोशनी हासिल की थी। उसके दिमाग में पुरानी यादों के
झंझावात उठने लगे। सुगना की आंखों से आंसू ढुलक गए। उसने आंसुओं की बूंदें अपनी हथेली पर
टिकानी चाही लेकिन वे बिखर कर उनकी आड़ी-तिरछी रेखाओं में समा गईं… गुम हो गईं।
सुगना पुरानी यादों में बह गई।
तेरह साल की अल्हड़, नटखट, हंसती-खिलखिलाती रहने वाली सुगना। ढीले-ढाले सलवार-कुर्ते में जहां-
तहां घूमती-फिरती रहती और पूरे गांव से बतियाती। एक दिन यूं ही उछलती-कूदती अपने झोंपड़ेनुमा
घर की ओर चली जा रही थी कि उसकी निगाह पिछवाड़े की निम्बिया के नीचे खड़े बापू पर पड़ी।
बापू किसी से बतिया रहे थे और उनके हाथ में खूब सारे पैसे भी थे। सुगना पास जाकर उनकी बातें
सुनना चाहती थी… बापू के हाथ मा इत्ते सारे नोटन की गड्डी! सुगना हैरान रह गई और छुपकर
उनकी बातें सुनने की कोशिश करने लगी… उसे इतनी दूर से कुछ सुनाई तो नहीं दिया लेकिन कुछ
दिनों बाद ये हुआ कि वह दूर के एक गांव में ब्याह दी गई और अपने घर से ससुराल चली आई।
ये लोग भी उसके मायके वालों की ही तरह किसानी का काम करते थे लेकिन दोनों के बीच बहुत
बड़ा आर्थिक-अंतर था। उसका बापू एक बंधुआ मजदूर किसान था जो कि दूसरों के खेतों पर बटाई
पर काम करता था जबकि ससुर गांव की लगभग आधी जमीन का मालिक था। वह अपने खेत बटाई
पर उठाता और गांव के गरीब किसान उसके खेतों पर किसानी करते थे। तीनो बेटे ऊपरी देख-रेख का
काम संभालते थे… साहूकारी का काम था सो अलग। परिवार में कुल चार ही लोग थे… और सब के
सब मर्द… उसका पति, ससुर, एक देवर और एक जेठ। घर में उसके सिवाय कोई और औरत नहीं
थी। धीरे-धीरे सुगना को पता चला कि सास कई बरस पहले ही बीमारी से चल बसी थी और जेठानी
किसी कारण से अपने पति का घर छोड़ मायके में जाकर रहने लगी थी।
सुगना के लिए बड़े अचरज की बात थी कि इस गांव में औरतें बड़ी कम थीं! ऐसा नहीं था कि सब
की सब औरतें घर के भीतर या परदे में रहतीं थीं क्योंकि जितनी भी औरतें थीं उनमें से अधिकतर
अपने-अपने घर के मर्दों के साथ खेती-बाड़ी और बाकी के कामों में उनका हाथ बंटाने बराबर से घर
के बाहर निकलतीं थीं। वह अपने टोला-पड़ोस के घरों में भी जाती तो उसे उनके घरों में भी औरतें
कम ही दिखतीं… बच्चों में भी छोरे ही छोरे नजर आते, कोई एकाध छोरी दिख गई तो गई।
सुगना को इस घर में आए पन्द्रह दिन ही हुए थे… अभी तो वह अपने पति के चेहरे को ठीक से
पहचान तक नहीं पाई थी जबकि वह हर रात आकर उसे रौंद जाता था। चैदह साल की सुगना इस
असहनीय दर्द को सह नहीं पा रही थी। न जाने कैसे परिवार में ब्याह दी गई थी, जहां न कोई बोलने
वाला… न दुःख-दर्द सुनने वाला… न ही प्रेम-प्यार की दो बातें करने वाला।
एक दिन ससुर ने रसोई के भीतर आकर कहा-बहू! जा बिरजू के घर जाकर दुःख मणा आ, उसकी
कल की जाई छोरी मर गई सै।
…धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। सुगना को एहसास होने लगा कि जे गांव मा छोरे ही जिअत हैं… न
जाने कैसे छोरियां पैदा होत ही या कबहूं-कबहूं दूसरे-तीसरे दिन तक मर ही जाती हैं… या शायद…
धीरे-धीरे सुगना ने उसी घर में अपना मन लगाना शुरू कर दिया… इसके सिवाए कोई और चारा भी
तो नहीं था। वह घर संवारती, सबके लिए खाना बनाती। औरत के आते ही वह उजाड़-सा दिखने वाला
घर भी मुस्कुरा उठा। पहले यह घर चार मर्दों के रहते हुए भी मातमी-सा ही लगता था। जबकि घर
में खाने-पीने-पहनने की कोई कमी नहीं थी। वह गरीबी और भूख जो सुगना अपने मायके में भोगती
आई थी, वह यहां कतई नहीं थी… यहां था तो बस अकेलापन… नितांत अकेलापन। अब कभी-कभी
सुगना भी अपने पति के साथ खेत की ओर चल देती लेकिन उसका ससुर रोक देता-बहू! तू कै करैगी
खेत्तण में जाकै… तू तो बस घर नै सम्हाल।
दिन बीतने के साथ-साथ सुगना के चेहरे से घूंघट कम होने लगा और अब वह घर के सभी व्यक्तियों
के चेहरे पहचानने लगी थी। वह पहचान गई थी कि उस दिन उसका बापू खेत में जिसके साथ बात
कर रहा था और पैसे ले रहा था वो उसका ससुर ही था।… पर बापू ने ई लोगन ते पइसे कौन बात
के लए! यह प्रश्न अब भी उसके लिए एक पहेली बना हुआ था।
घर में बंद रहकर उसका जी उचट जाता था। खेतों की ठंडी-ठंडी हवा और उड़ती मिट्टी की सुगंध उसे
बेहद पसंद थी। आज फिर सुगना खेत की ओर चल दी।… लेकिन पीछे से ससुर ने टोका-बहू! इब तू
कित कौ चाल दी? भीत्तर जा। ससुर की कड़क आवाज सुनकर सुगना सहम गई। धीमे-धीमे अपने
कमरे में आई और पलंग पर लेटकर सुबकने लगी। ससुर उसे पीछे से घूरता रहा।
कुछ ही देर बाद वह उसके कमरे में आकर मीठी आवाज में बोला – बहू! तू बुरा माण गई कै? देख
म्हारी बातण का बुरा कोणी माणा कर। ईब चार-चार जण कै होते हुए तू कै करेगी खेत्त मै!
सुगना ससुर को सामने खड़ा देख उठकर बैठ गई। अपनी साड़ी संवारने लगी।
ससुर ने सुगना के पलंग पर बैठते हुए आगे कहा-तू कितणी कोमल और कम उमर की सै, तू इतणा
काम करै, मन्नै देख कै अच्छा कोणी लागै। ऐसा कहते-कहते सुगना के ससुर ने उसकी हथेली अपने
हाथों में ले ली। सुगना चैंक के दूर जा खड़ी हुई। लेकिन अब तक अधेड़ ससुर के भीतर का मर्द पूरी
तरह से जाग चुका था और सुगना एक कमजोर लड़की थी, कब तक विरोध करती… आखिर में एक
मासूम बहू अपने ही ससुर की हवस का शिकार बन गई।
शाम को जब उसका पति लौटा तो उसने सुगना को कमरे में हाल-बेहाल पड़ा पाया… लेकिन आश्चर्य!
सारी स्थिति भांपने के बाद भी उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। रात का खाना भी चारों आदमियों ने
मिलकर ही पकाया और खाया। हां! उसका देवर जरूर आया था, उसके कमरे में। एक थाली लगाकर
सुगना के सामने रख गया था… बिना कुछ बोले।
दिन बीतते गए… सुगना रात को पति की हवस मिटाती और दिन में ससुर की। एक रात अचानक
सुगना ने महसूस किया कि आज जो मर्दाना बदन उसे मसल रहा है… उसके शरीर के ऊपर चढ़ा
हुआ है, उसका भार और दिनों से ज्यादा है… सांसों के उतार-चढ़ाव भी कुछ अलग हैं… औरत अंधेरे
में भी अपने पति के शरीर की गंध पहचान लेती है। सुगना को संदेह हुआ कि यह उसका पति नहीं
है और तभी बाहर जलते लैंप की रोशनी उस मर्द के बदन पर पड़ी। यह न तो उसके पति का जिस्म
था और न ही ससुर का… ओह! यह तो उसका जेठ था।
सुगना घबरा कर उठ बैठी लेकिन दो बलिष्ठ हाथों ने उसे अपनी ओर खींचा और उसके शरीर को
फिर से अपने नीचे धर लिया… सुगना पूरी रात इस तीसरे मर्द के साथ उघड़ी पड़ी उसकी हवस का
शिकार बनती रही।
धीरे-धीरे दिन बीतते गए। सुगना अब समझ गई थी कि वह इस घर में सिर्फ भोगने की चीज है।
उसका काम भूख मिटाना है… पेट की और शरीर की। वह मानसिक रूप से तैयार थी कि किसी दिन
देवर भी उससे अपनी भूख मिटाएगा… और वही हुआ भी।
सुगना दिन भर घर के काम करती और रात को किसी न किसी के जिस्म के नीचे कुचली जाती।
अब उसे उन नोटों की गड्डी की पहेली भी पता चल चुकी थी, जो उस दिन उसका ससुर उसके बापू
को दे रहा था। वह जान गई थी कि उसके बाप ने चंद नोटों के लालच में उसे चार मर्दों वाले इस घर
में बेचा है।
इन रईसजादों ने अपने पैसों के दम पर गरीब घर की लड़की को खरीद लिया था। अपने इस पाप को
ब्याह का जामा इसलिए पहनाया ताकि कानूनी पचड़ों से बचे रह सकें और अपनी चहारदीवारी के
भीतर हाड़-मास के इस शरीर को जी भरकर भोग सकें।
वह इस घर में नाम के लिए ही ब्याही गई थी। असल बात तो यह थी कि वह इस घर के मर्दों की
हवस मिटाने के लिए खरीदी गई थी। उसके बापू ने भी उसका ब्याह पूरे रस्मो-रिवाज के साथ किया
ताकि समाज और बिरादरी में इज्जत बनी रहे। घर बैठे इतना रुपया मिल रहा था सो गरीबी से जूझ
रहा पिता लालच में अंधा हो उठा और सोचने लगा कि घर की बड़ी लड़की निबटे ताकि दूसरे बच्चों
को भी हिल्ले लगाया जा सके।
सुगना मासूम थी। अधिकार, कानून, न्याय-अन्याय कुछ नहीं समझती थी लेकिन वह अपने साथ हुए
इस कृत्य के लिए अपने पिता से लड़ना चाहती थी… पूछना चाहती थी कि उसका कुसूर क्या था…
क्या वह इतनी बोझ बन चुकी थी कि उसे इन जालिमों के हाथों बेच दिया! सुगना अपने माता-पिता
से उस दिखावे की शादी का कारण जानना चाहती थी… उन्हें अपने साथ हुई नाइंसाफी और इस
घिनौने काम के लिए उलाहना देना चाहती थी… चीख-चीखकर रोना चाहती थी। उन्हें अपनी ही जाई
का दर्द दिखाना चाहती थी। इसीलिए सुगना ने मायके जाने का निश्चय किया। लेकिन पति ले जाने
को तैयार न हुआ… किसी और के साथ वह जाना नहीं चाहती थी। लड़की थी न!… अब भी मां-बाप
की इज्जत के बारे में ही सोच रही थी। यदि ससुर, जेठ या देवर के साथ गई तो लोग नाम धरेंगे,
गांव में उनकी बड़ी बदनामी होगी। सो वह अकेली ही मायके चल दी।
जिस आस के साथ मायके आई थी वह यहां आते ही टूट गई। पिता ने खुद ही पूछ लिया-तुम अपनी
ससुराल मा सबन को खुश रखती हो के नाहीं?
मां ने समझाया – बिटिया! अब ऊ ही तोहरा घर है। सबन की बात मानके उनकी सेवा करियो… यही
औरत को धरम होवत है।
कउन धरम अम्मा! का तुमहू ऐसे धरम को मानतीं हौं? जब बेटी ने मां को एकांत में अपने साथ
होने वाले रोज-रोज के बलात्कार के बारे में बताया तो मां का मन भी रोने को हो आया… लेकिन हल
तो उसके पास भी नहीं था।
बिटिया! तुम ऊ घर मा रहके अलग-अलग इंसानन के एकही जुलम सह रही हो जबकि हम ई घर मा
कित्ते ही बरसन से एक ही इंसान के अलग-अलग जुलम सहन कर रहीं हैं। बिटिया! औरतन को
जीवन ऐसो ही है। अब जो है, जैसो है… ऊ ही तुम्हरा घर है। तोका उन लोगन के साथ ही निबाह
करै का पड़ी। जे तुम कौनहु गलत कदम उठहिओ तो हम सबन की थू-थू हुई है। बिटिया… तुम्हरे
छोटे-छोटे भाई-बहन हैं, फिर उन सबन को निस्तार कैसे हुई है! अम्मा अपनी ही जाई को अपने दूसरे
बच्चों की दुहाई देने लगी। सुगना तड़प उठी। किसी से कुछ न बोली… पुरानी सहेलियां मिलने दौड़ी
चली आईं लेकिन वह उनसे भी न मिल सकी।
आश्चर्य! दूसरे ही दिन उसका मर्द उसे लेने पहुंच गया था। अम्मा! सुगणा नै लैणै आया सूं। ईब
सुगणा कै बिणा घर सूणा-सूणा सा लागै सै।
सुगना कड़वाट निगलते हुए मन ही मन बड़बड़ाई-ऊंहह! घर सून-सूना-सा लागै है कि तुम जालिमन-
अधर्मियन को अपना बिस्तरा सूना-सुना सा लागै है! एक रात तक न काट पाए तुम चारों औरत के
जिसम के बिना!
सुगना का मन अब अपने मायके से भी भर गया था। वह समझ गई थी कि उसे किसी का आसरा
नहीं बचा है। मायके से लेकर ससुराल तक सब के सब स्वार्थ के सगे हैं… मतलब के रिश्ते हैं। सुगना
जैसी लड़कियां बरसों-बरस अत्याचार सहती रहतीं हैं और अपने घर-परिवार के खिलाफ कभी कोई
आवाज नहीं उठातीं। वे इसे अपनी नियति मानने लगती हैं और यूं ही अपना जीवन काट देतीं हैं।
सुगना ससुराल लौट आई लेकिन कुछ ही दिन बाद एक और घटना घटी… सुगना मां बनने वाली थी।
घर में सब खुश हो उठे। रात-दिन बस एक ही चर्चा कि लड़के का नाम ये रखेंगे, उसे ऐसे पढ़ाएंगे,
ऐसे खिलाएंगे लेकिन किसी को भी न तो इस बात में दिलचस्पी थी कि ये भ्रूण किसका है और न ही
इस बात में कि हम चार भोगी मर्दों में से इसका असली बाप कौन है?
नौ महीने बीते… घर में किलकारी गूंजने लगी। लड़का ही हुआ था। शक्ल किस पर गई, यह कहना
भी मुश्किल क्योंकि तीनों भाइयों की शक्ल अपने बाप से ही मिलती थी, सो यह नवजात भी शक्ल-
सूरत से उन्हीं पर गया था। सुगना के ससुर ने गांव भर में लड्डू बंटवाए, नाच-गाना हुआ, खूब जश्न
मनाया गया। गांव की औरतें उसके आंगन में जुटीं और जच्चा गाए गए। सुगना बार-बार अपने बच्चे
का मुंह देखती और घर के चारों मर्दों को देखती।
समय फिर सरकने लगा। सुगना दिनभर घर संवारती, बच्चे को संभालती और रात में बारी-बारी से
भूखे मर्दों की भूख मिटाती। उसे अब अपने ही शरीर से घिन आने लगी थी। ताज्जुब यह था कि यदि
वह उन चारों मर्दों में से किसी एक का भी विरोध करती या अपना बदन उघाड़ने से ना नुकुर करती
तो वे सब के सब एक हो जाते थे और उसे तरह-तरह से सताते थे। धीरे-धीरे वह नन्हा बच्चा भी
अपनी मां के साथ नहीं बल्कि उन्हीं में से किसी न किसी के साथ सोने लगा। सोने क्या लगा!…
छोटे बच्चे को बहादुर बच्चा कहकर अपनी मां से दूर कर दिया गया ताकि वहशियों की रातें गुलजार
रहें… कोई अड़चन न आए। धीरे-धीरे बच्चा भी अपनी मां की बजाए बाप, दादा, चाचा और ताऊ की
ही बोली बोलने लगा। अक्सर मां को पलटकर जवाब दे देता… उसका दिल दुखा देता। वो कहते हैं न-
पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं। सुगना को भी जब-तब उसकी शक्ल देखकर यही विचार
हो आता कि, का एक दिना जे लड़का हु इस घर के बाकी मर्दन की तरहा कउनहु औरत की इज्जत
से खेलिहै? ऊकी इज्जत को तार-तार करिहै?…खून को असर जइहै कहां! लेकिन फिर अगले ही पल
वह अपने विचार को झटक देती और बच्चे पर अपनी ममता लुटाने लगती। आखिर तो मां ही थी न!
बहुत जल्दी सुगना को दूसरा गर्भ ठहर गया। फिर दिन बीते… और इस बार लड़की ने जन्म लिया।
यकायक घर में कोहराम मच गया। टोला-पड़ोस के लोग फिर उसके आंगन में जुट आए लेकिन इस
बार न कोई बधाई, न कोई गीत-संगीत, बस एक ही चर्चा… हाय हाय! छोरी हुई सै! सुगना जापे में
थी सो कभी अपने कमरे में लेटी-लेटी कान लगाकर बाहर की आवाजें सुनती तो कभी अपनी मासूम
बेटी का चेहरा देखने लगती।
अरे अम्मा! बिटिया ही तो पैदा भई है, का कोई डायन पैदा होय गई है! तुम सब लोग इत्ती हाय-तौबा
काहे मचाएं हो! सुगना ने अपने कमरे में आई दाई से पूछा।
बहुरिया! ईका डायन ही जान… लड़कनी की जात पूरो को पूरो बंस लील जात है। जउन घर मा
लड़कनी पैदा होय जात है, ऊ घर मा मुसीबतन को अम्बार लग जात है।
तुम अउरत होये के ऐसी बातें कइसे कह सकतीं हो अम्मा!
हम ही काहे! तुमहु तौ अउरत हो… का अउरत होयवे को दुःख तुम ना जानतीं हो? अम्मा ने सुगना
की आंखों में आंखें डालकर कुछ इस अंदाज में बोला कि सुगना भीतर तक सिहर गई।
दाई उसके कमरे में कुछ छुटपुट काम करके बाहर निकल गई। सुगना यूं ही बिस्तर पर लेटी रही।
वैसे भी उसे चालीस दिन के लिए इन मर्दों से मुक्ति तो मिली।
तभी उसे दरवाजे के बाहर से दाई और ससुर के फुसफुसाने की आवाज सुनाई दी-दाई! इब तू ही किते
कोई हल निकाल। आज छोरी नै पहला दिण सै, कदीं कुछ ऐसा कर कि कल रात तक निपटारा हो
जाए। बस्स!!
हां! हां! पूरे गांव की निपटाऊं हूं, तुम्हारी भी निपटाय दूंगी। बस, तुम तो जे सोचो कि उस धुधमुंही
की मां का और हमार मुंह कइसे बंद करना है।
हां! हां! इब तू उसकी चिंता कोणी कर। हमणै पहले कदी तेरे खुल्ले विच कोई कमी रहणे दी जो ईब
रहणे देंगे?… तेरी हर खुल्ली जगह में ठूंस-ठूंस कर भर देंगे। तू पहलै इस छोरी सूं हम सबण का
पीछ्छा छुड़ा दै मेरी राणी।… और दोनों बेशर्मी से खिलखिलाने लगे।
सुगना अपनी बच्ची का भविष्य जान चुकी थी। वह जब से इस गांव में ब्याह कर आई थी तब से
कितनी ही बच्चियों का भविष्य देखती आई है। सुबह जन्म लेतीं हैं बेचारीं… और रात भर में या तो
धरती माता उन्हें अपने सीने से लगा लेती है, कभी गंगा मैया तार देती है, तो कभी कोई कुआं या
बावड़ी लील जाती है। किसी-किसी के साथ यह सब नहीं होता तो उनकी सांस उनका साथ छोड़ देती
है या कोई-कोई जन्मते ही मिर्गी के दौरे से मर जाती है। साबित कर ले जिसको जो साबित करना
हो… मौत इतने सलीके से आती है कि कब आकर छू गई, बच्ची की मां भी नहीं जान पाती…और
जो बेचारी जान भी जाती तो क्या कर पाती इस निर्दयी समाज का, जिसमें सारे कारे बादर औरत
जात पर ही मंडराते हैं… मर्द तो मानों कोई अमृत-बटी खाकर आया हो। सोचते-सोचते सुगना की
आंख लग गई। साथ ही लेटी उसकी बच्ची भी सो चुकी थी… गहरी नींद में… उसका जिस्म धीरे-धीरे
नीला पड़ रहा था। सुबह-सुबह पूरे गांव में जगार हो गया। गांव भर के औरत-मर्द उसके आंगन में
आकर मातम मनाने लगे। बच्ची को रात में जहरीले सांप ने डस लिया था, मगर कैसे!… .आह!
कइसे का? हियां तो डगर-डगर पर सांप ही रेंगत हैं, नन्ही-सी जान कइसे बच पाती इन जहरीले
लोगन से! सुगना ने ममता की सारी पीड़ा मन में दबा ली और बिलख-बिलखकर कर रो पड़ी। बच्ची
का अंतिम संस्कार कर दिया गया… आखिर वो एक आत्मा जो थी।
यहां जीते-जी किसी की आत्मा को कितना भी कष्ट दिया जा सकता है लेकिन मरने के बाद उसकी
आत्मा का संस्कार पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ किया जाता है। गजब है हमारा समाज!
छह महीने भी नहीं बीते और सुगना फिर पेट से थी। सुगना फिर एक-एक दिन डर के साथ गुजारने
लगी जबकि उसका मर्दों वाला परिवार एक और मर्द के इंतजार में सपने संजोने लगा। क्योंकि इत्ती
बड़ी जमींदारी है, घर है, दुकाने हैं, सब संभालने के लिए तो मर्द ही चाहिए न! औरत का क्या है…
मिल ही जाती है हरे-हरे नोटों के सहारे।
सुगना को अब बस देवी मां का ही आसरा था। रोज सुबह एक औरत नहा धोकर दूसरी औरत के
सामने दिया जलाती और उसकी कोख से औरत जात न जने, यह फरियाद करती… लेकिन देवी मां
ने सुगना की प्रार्थना नहीं सुनी और आठ महीने बीतते ही बच्ची ने जन्म ले लिया। इससे पहले कि
पूरा परिवार मातम मनाता… बच्ची की बलि चढ़ाता, सुगना उस नन्हीं-सी जान को अपने सीने के
भींचकर फूट-फूटकर रो पड़ी… और बड़ी देर तक रोती रही। थोड़ी देर में उसकी चेतना लौटी जब दाई
उसके सिरहाने आकर खड़ी हो गई और बोली-बहुरिया! लाओ बिटिया को दे देओ। नहला धुलाकर नए
कपड़े पहनाय दें।
न अम्मा! थोड़ी देर ऐसी ही रहन देओ।
देख बहुरिया समझा कर… इस घड़ी दो घड़ी की मेहमान से इत्ती ममता ठीक ना है। दाई नाराज हुई।
ना अम्मा! हम इसे ना देंगे, तुम हमें कुछ देर ईके साथ अकेली छोड़ देओ, तुम्हें देवी मां की सौहं।
अब तुम देवी मां की सौगंध दे रहीं हों तो… । दाई ऐसा कहकर चली गई। लेकिन सुगना जानती थी
कि वह कुछ ही देर में फिर आ जाएगी।… और वही हुआ। दाई एक चम्मच में शहद लेकर आ गई।
अम्मा जे का है?
सहद है…बच्चन को दओ जात है। दाई ने बच्ची के होठों से शहद लगाया और कमरे से बाहर चली
गई। उसके जाते ही सुगना तुरंत बिजली-सी झपटी और सारा का सारा शहद बच्ची के होठों से पोंछ
दिया। फिर उसने अपने पल्लू को उंगली में लपेटकर बच्ची के कोमल मुंह के भीतर डाला और पूरा
मुंह अच्छी तरह पोंछ डाला। बच्ची दर्द से बिलबिला उठी… सुगना ने उसे अपनी छाती से लगाकर
दूध पिलाना शुरू कर दिया और फिर उसकी पीठ पर हौले-हौले से कुछ धौल मारे ताकि बच्ची पीया
हुआ दूध उलट दे।… बच्ची ने उबकाई भरी और दूध उलट दिया। अब सुगना के चेहरे पर संतोष तैर
गया। इसके बाद वह इत्मीनान से अपनी जाई को दूध पिलाने लगी।
लेकिन यह सिलसिला हर घंटे दोहराया जाता रहा। दाई आती… बच्ची को शहद चटाती और सुगना
बच्ची के पेट तक वह शहद पहुंचने ही न देती। किसी तरह से वह रात कट गई। सुबह से बच्ची ने
अपने रोने की आवाज से घर के मर्दों के कान में सीसा पिघलाना शुरू कर दिया था।
जाणै कैसे बच गी सुसरी! ससुर बड़बड़ाया।
बापू! मणै लागै कि दाई का मुंह इब ज्यादा ही खुल्लण लग्या सै… स्साली ने शहद में असली जहर
णा मिलाया सै।
इब आण दै… देख लूंगा उसनै भी। बुड्ढे ने गन्दी-सी गाली देते हुए पुलिया के किनारे पीक थूक दी।
दाई ने आज भी आते ही बच्ची को नहलाने की जिद्द शुरू कर दी लेकिन सुगना किसी भी तरह न
मानी। दाई और तरकीबें सोचने लगी… सुगना भी बेहद चैकन्नी हो उठी। दाई ने मालिश करने के
लिए बच्ची को जमीन में बिछे कालीन में लिटा लिया। दाई बच्ची की मालिश करती जाती और बार-
बार उसकी कोमल नाक दबा देती… सुगना चिल्ला पड़ती। एकाएक मालिश करते हुए दाई ने बच्ची
का मुंह पास रखे कम्बल से ढांप दिया… बच्ची छटपटाने लगी। सुगना चीख पड़ी… वह तीर की तरह
झपटी और बच्ची का मुंह खोल दिया। दाई खिसियानी-सी हंसी हंस दी। वह बच्ची को वहीं जमीन पर
ही छोड़कर कमरे से बाहर निकल गई। सुगना ने उस मासूम को उठाकर अपने सीने से लगा लिया…
मां-बेटी बड़ी देर तक सुबक-सुबक कर रोतीं रहीं। ममता आज कसौटी पर थी… बच्ची को तरह-तरह
से मारने की कोशिश की जा रही थी लेकिन सुगना चैकस मां बनकर अपनी बेटी और उसकी मौत के
बीच मजबूत दीवार की तरह खड़ी हो चुकी थी। घर में सभी को सुगना का यह विद्रोह साफ नजर आ
रहा था लेकिन वे उसका खुलकर विरोध भी तो नहीं कर सकते थे… वे मां के आंचल से जबरन
खींचकर बच्ची को मौत के घाट नहीं उतार सकते थे… कानून अब पहले जैसा नहीं था, बहुत सख्त
हो गया था।
इसी उधेड़बुन में रात हो गई। यह इस बच्ची की इस घर में दूसरी रात थी… नहीं अंतिम! और सुगना
की भी… अंतिम रात!
रात के अंधेरे में सुगना ने मौका देखकर अपनी बच्ची को चादर में लपेटा और दीवार की आढ़ लेकर
पुलिया पार करते हुए खेतों की सीमा तक आ पहुंची। घर के भेड़ियों और खेतों के कुत्तों से बचते-
बचाते वह मुख्य सड़क तक आ गई। बच्ची मां की छाती से चिपटी हुई थी। दूर से एक ट्रक आता
दिखा… सुगना ने उसे रुकने का इशारा किया और वह भला मानुस मानों सब समझ गया हो, मां-बेटी
को अपने ट्रक में बैठाकर शहर की ओर चल दिया। सुगना ट्रक में उस मर्द से भी सावधान बनी
रही… क्योंकि उसे मर्दों से नफरत हो चुकी थी। हालांकि वह अपने बेटे के प्रति अपना दिल बड़ी ही
मुश्किल से कड़ा कर पाई थी। इस बेटी की जान बचाने की खातिर उसे बड़ी कठिनाई से अकेला
छोड़कर आ पाई थी।
बहण! ईब तू इस नन्ही-सी जाण नै लेके कित कौ जावैगी? शहर में तेरा जाण-पहचाण वाला कौन
सै?
बहन… बहन शब्द सुनते ही जैसे कोई मुरझाया रिश्ता खिल उठा हो… सुगना इस एक शब्द से महक
उठी। उसने उस ट्रक वाले से शहर की सीमा तक छोड़ देने का निवेदन किया। आधी रात हो चुकी थी
और ट्रक अंधेरे को चीरता हुआ शहर की ओर बढ़ रहा था। एकाएक ट्रक रुक गया।
भइया! का भओ… तुमने टिरक काहे रोक दओ?
देखूं सूं।
सुगना का मन सशंकित हो उठा… बुरे खयाल आने लगे। जब कोई बुरी घटना घटने वाली होती है
तब अक्सर हमारा अचेतन मन सावधान होने की चेतावनी देने लगता है।… और सुगना का तो अपने
सगे रिश्तों तक से विश्वास उठ चुका था, फिर ये इंसान तो राह चलते भाई बना था, उस पर कैसे
विश्वास कर लेती! ट्रक वाला नीचे उतर कर अपने ट्रक का इधर-उधर से मुआयना कर ही रहा था कि
सुगना भी अपनी बच्ची को गोद में दबोचे हुए दबे पांव ट्रक से उतरी और नीचे झाड़ियों में जाकर
छुप गई। चारों तरफ घुप्प अंधेरा था… लेकिन ट्रक की हल्की-हल्की रोशनी में धुंधला-सा दृश्य नजर
आ रहा था। सुगना ऊपर से नीचे तक सिहर गई जब उसने ट्रक वाले को शराब गटकते हुए और
अपने गुप्तांग को सहलाते हुए देखा। उसे अहसास हुआ कि वह सही समय पर चेती और ट्रक से नीचे
उतर आई थी। अचानक तभी बच्ची कुनमुनाई… सुगना ने तुरंत अपना स्तन उस मासूम के मुंह में दे
दिया। वह शांत हो गई। इस समय उसके पास उन झाड़ियों में छुपे रहने के अलावा और कोई चारा न
था क्योंकि यदि वह एक कदम भी बढ़ाती तो झाड़ियों में हरकत हो उठती।… और एक भेड़िया शराब
के नशे में धुत्त उसी को खोज रहा था। थोड़ी ही देर में उस पर शराब का जबरदस्त सुरूर चढ़ गया
और वह बड़बड़ाने लगा… सुगना को गंदी-गंदी गालियां देता हुआ ट्रक में जाकर बैठ गया। सुगना के
लिए यह पूरा दृश्य बड़ा ही भयावह था। उसने बचपन में राक्षसों की कई कहानियां सुनीं थीं और इस
वक्त यह ट्रक वाला किसी भयंकर राक्षस से कम नहीं लग रहा था। वह सीट पर बैठा कुछ देर और
अपने हलक में शराब उतारता रहा, गालियां देता रहा… फिर ट्रक चलाकर आगे बढ़ गया। उसके जाते
ही सुगना की जान में जान आई। वह अपनी बच्ची को संभालती हुई झाड़ियों से बाहर निकली और
कुछ देर तक वहीं सड़क के किनारे निढाल होकर बैठी रही। यह रात बहुत भारी थी इन मां-बेटी के
लिए।
सुगना ने फिर हिम्मत बटोरी और उसी रास्ते पर धीरे-धीरे आगे चलने लगी। अंधेरा था, लेकिन
सुगना धीरे-धीरे ही सही आगे बढ़ती रही… रुकी नहीं। इस सुनसान रास्ते में इक्का-दुक्का ही कोई
वाहन निकल रहा था, वो भी खूब-खूब देर के बाद। दूर से कोई भी वाहन आता हुआ नजर आता तो
सुगना किसी पेड़ या झाड़ी के पीछे छिप जाती। सुगना अब किसी भी गाड़ी में नहीं बैठना चाहती
थी… वह अब किसी पर भी भरोसा नहीं करना चाहती थी। वह चलती रही… देर तक… दूर तक… देह
थककर चूर-चूर हो गई थी लेकिन वह बिना रुके चलती ही जा रही थी…
एकाएक सुगना की चेतना लौटी… उसकी आंख खुली और उसने देखा कि वह किसी कोठी के बगीचे
में पड़े कालीन पर लेटी है। उसकी बच्ची भी पास ही के तखत पर लेटी है जिसे एक मेमसाहब जैसी
दिखने वाली औरत बोतल से दूध पिला रही है। सुगना हड़बड़ाकर उठ बैठी। उसने इधर-उधर निगाह
दौड़ाई। यह किसी रईस का घर था।
घबराओ मत! यह मेरा घर है और मैं एक डॉक्टर हूं। मेरे पति भी डॉक्टर हैं लेकिन वे कुछ समय के
लिए विदेश गए हुए हैं। जब मैं सुबह सैर पर गई तब तुम मुझे सड़क के किनारे बेहोश पड़ी मिलीं,
तुम्हारी बच्ची भूख से रो रही थी। अब तुम बताओ कि तुम कौन हो और इतनी छोटी-सी बच्ची को
लेकर यहां-वहां क्यों भटक रही हो?
मेमसाहब!…
उसने बात काटते हुए कहा-मेमसाहब नहीं दीदी कहो।
दीदी! हम अपनी जा बिटिया की जान बचावे के खातिर ही रात के अंधेरे में घर से भागी हैं।… और
सुगना ने अब तक की सारी आपबीती सुना डाली। सुगना का संघर्ष सुनते-सुनते उस भद्र महिला का
दिल भर आया लेकिन उसने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा-ठीक है, मैं तुम पर
विश्वास कर लेती हूं। लेकिन तुम्हें अपने आगे के जीवन के बारे में खुद ही सोचना होगा… कहां
जाओगी… क्या करोगी? जब तक तुम्हारा कोई बंदोबस्त नहीं होता तब तक तुम मेरे घर में रह
सकती हो। यहां तुम पूरी तरह से सुरक्षित हो।
दीदी! हम आपके छोटे-बड़े सबरे काम कर दीहें। आप हमे और हमरी बिटिया को आसरा दइ देओ।
हम तो जे सहर को नाम तक नहीं जानतीं। वह रो पड़ी।
ठीक है, लेकिन तुम्हें पुलिस स्टेशन में अपनी फोटो और नाम दर्ज करवाना होगा। हां! तुम अपने
पहचान वालों में मेरा नाम डाल सकती हो। देखो सुगना! शहर में सुरक्षा की दृष्टि से यह सब
फॉर्मेलिटीज जरूरी होतीं हैं।
दीदी हम आपकी सब बात मानिहें। नरक से भाग के तो हियां आए हैं… अब हियन ते भाग के भला
कहां जइहैं? आप तो बस ई गरीब-दुखियारी मां को आसरा दई देओ।
धीरे-धीरे सुगना ने अपनी मालकिन के घर का सारा काम संभाल लिया। उन्हें भी सुगना के रूप में
विश्वासपात्र सेविका मिल गई थी। उनके कोई औलाद नहीं थी इसलिए वे सुगना की बच्ची को अपना
सारा दुलार देने लगीं।
सुगना फिर जी उठी। उसे कभी-कभी अपने बेटे की याद जरूर आती लेकिन वह खुद को संभाल लेती,
वह नहीं चाहती थी कि उसकी बच्ची कभी-भी अपना अतीत जाने, फिर उस अतीत की चिंगारियों को
खंगाले… सुगना अपनी बेटी को उन लपटों से बचाकर रखना चाहती थी।… और वैसे भी जैसा उसके
ससुराल का माहौल था, उसे विश्वास था कि उसका बेटा प्यार से पाला जा रहा होगा। वहां औरतों को
जख्म देने का रिवाज था मर्दों को नहीं।
सुगना अब तक अपने जिन सगे रिश्तों से आहत होती आई थी… उनके दिए जख्म लेकर सिसक रही
थी, इस बे-रिश्ते की महिला ने अपने प्रेम और संरक्षण से उन सारे जख्मो को भर दिया था। दोनों ने
मिलकर उस बच्ची का नाम पावनी रखा। पावनी ने स्कूल जाना शुरू कर दिया। सुगना अब अपनी
डॉक्टर-दीदी के साथ उनके अस्पताल भी जाने लगी थी। उनके पति भी बहुत भले इंसान थे। उनके
रूप में सुगना ने पहली बार किसी देवता समान भले पुरुष को देखा था।
अपनी मालकिन को देख-देखकर सुगना ने पावनी को भी डॉक्टर बनाने का सपना संजो लिया और
उसकी मालकिन भी पावनी को डॉक्टर बनते ही देखना चाहती थी। वह बच्ची सुगना की बेटी कम
उनकी बेटी अधिक हो गई थी। पावनी सुगना को अम्मा और उन्हें डॉक्टर-मां कहती। पावनी की
परीक्षा अच्छी न जातीं तो उसे अपनी डॉक्टर-मां से खूब डांट सुननी पड़ती। उसकी टीचर के साथ
मीटिंग भी डॉक्टर-मां ही करतीं थीं।
सुगना घर और हॉस्पिटल में मेहनत से काम करती थी। पावनी भी अपने स्कूल की पढ़ाई में जी-जान
लगा रही थी।… और एक दिन सुगना का सपना पूरा हो गया उसकी बेटी पावनी डॉक्टर बन गई।
धीरे-धीरे समय बीता और पावनी के कई ऑपरेशन बेहद सफल रहे।… आज वह शहर की बड़ी डॉक्टर्स
में गिनी जाती है।
घनन्न… घनन्न… घनन्न… घनन्न… रात के सन्नाटे में सुगना के फोन की घंटी घनघना उठी। वह
तत्काल अपने वर्तमान में लौट आई। खिड़की से हटकर पलंग की ओर बढ़ी और फोन का चोंगा अपने
कान से लगाकर बोली-हैलो!
उधर से ब्यॉय की आवाज थी-मैडम! आज सुबह वाला पेशेंट नहीं रहा। वो बुढ़िया बहुत रो रही थी।
मैंने पूछा भी कि, क्या सुगना मैडम को बुला दूं? लेकिन उसने मना कर दिया।
बुढ़िया नाहीं… मां जी कहो, वो तुमसे बड़ी हैं… कहां हैं वो? हमरी बात कराओ।
मैडम! वे तो कुछ देर पहले ही अपने पति की बॉडी को लेकर गांव चलीं गईं।
अच्छा!…
सुगना पलंग पर बैठ गई… फोन हाथ से छूट गया और अपने-आप ही कट गया।… नहीं दूसरी ओर
से काट दिया गया था।
(सृजनगाथा से साभार प्रकाशित)
कविता
निस्तब्धता
-आचार्य बलवन्त-
जब गहन निस्तब्धता में,
दर्द की लौ टिमटिमायी,
फिर तुम्हारी याद आयी।
पूछता हूं कौन आया,
दर्द को किसने जगाया,
बात वो किसने चलायी?
फिर तुम्हारी याद आयी।
सिसकियों में शाम लेकर,
सुबह का पैगाम लेकर,
रात जब भी मुस्कुरायी।
फिर तुम्हारी याद आयी।।
(सृजनगाथा से साभार प्रकाशित)
हम तुम्हरे पांय परत हैं बिटिया, इनका बचाय लेओ। बुढ़िया हाथ जोड़े, अधझुकी होकर सुगना के
सामने मिन्नतें कर रही थी जबकि सुगना का पूरा शरीर क्रोध से कांप रहा था और हथेलियां गुस्से से
भिंची हुईं थीं।
सुगना! तनिक देख लल्ली… ई तुम्हरा बाप है।
कौउन बाप! सुगना उबल पड़ी। हमरा कउनहु बाप नाहीं… लई जाओ इनका हिंया से।
सुगना ने अब तक स्ट्रेचर पर कराहते वृद्ध की ओर एक नजर भी नहीं डाली थी लेकिन उसके
कराहने की आवाज लगातार उसके कानों में पड़ रही थी।
नाहीं बिटिया! अइसन ना बोलौ… बचाय लेओ इनका। बुढ़िया ने फिर एक बार गिड़गिड़ाते हुए सुगना
के पांव पकड़ लिए।
बि…टि…या…! इस बार बूढ़े व्यक्ति की कराह के साथ निकले ये शब्द टूटते हुए वहां बिखर गए।
सुगना ने न चाहते हुए भी नफरत से भरी एक नजर उस ओर डाली… सचमुच हालत बेहद खराब थी।
सांसों की डोर किसी भी वक्त जिन्दगी का साथ छोड़ सकती थी। सुगना ने वॉर्ड-ब्यॉय को आवाज
लगाई- ब्यॉय! मरीज को भीतर लइ जाओ… और पावनी मैडम को भी बुलाए देओ, तुरंत… मरीज की
हालत नाजुक है।
ब्यॉय दौड़कर आया और सुगना के आदेश का पालन करने लगा।
यह अस्पताल सुगना की मालकिन का था। सुगना ने बेहद गरीबी के बावजूद हिम्मत नहीं हारी और
कठिन तपस्या करके अपनी बेटी पावनी को डॉक्टर बनाया। सुगना बहुत सालों से अपनी मालकिन का
घर और अस्पताल दोनों संभालती आई थी। अब तो वह इस अस्पताल में इतनी पुरानी हो चुकी थी
कि पूरा स्टाफ उसकी इज्जत करता था। यहां उसका रुतबा भी मालकिन से कम न था।
पावनी भी इस अस्पताल में जी-जान से काम करती थी। डॉक्टर, पेशेंट, स्टाफ सब उसे बेहद पसंद
करते। वह भी तो सबके लिए दिन-रात एक किए रहती। वह इस अस्पताल में सबकी लाडली डॉक्टर-
दीदी थी। दोनों मां-बेटी के लिए यह अस्पताल ही उनकी दुनिया थी।
आज उसी सुगना को ढूंढते-ढांढ़ते उसके बूढ़े मां-बाप इस अस्पताल तक पहुंच गए थे।… वे ही मां-बाप
जिन्हें वह कभी नहीं भूली… लेकिन कभी याद भी नही किया।
रात को घर जाते हुए कार में पावनी ने पूछा-अम्मा! आज जो बुजुर्ग पेशेंट आया था, गांव का… वो
कौन था? आप जानतीं हैं उसे? ब्यॉय बता रहा था कि सुगना मैडम ने भेजा है?
नाहीं! नाहीं! कोई खास जान-पहचान नाहीं है बिटिया!… हमें बे लोग सीधे-सादे से गांव के लगे…और
उनकी हालत बड़ी खराब होय रही थी… बस्स।
पावनी ने भी मां से अधिक सवाल नहीं किए, थकी थी शायद। पावनी रोज सुबह अपने घर से
निकलती फिर मां को उनके क्वार्टर से लेती और अस्पताल आती। जब तक पावनी पढ़ती थी तब तक
सुगना अपनी मालकिन के घर और अस्पताल दोनों का काम देखती थी। तब उसकी उम्र भी ऐसी
ज्यादा नहीं थी लेकिन जब से पावनी डॉक्टर बनी तबसे सुगना सिर्फ अस्पताल का ही काम देखती
है। अब वह दो-दो जगह के काम नहीं देख पाती, उम्र भी तो हो चली है। पावनी की शादी के बाद से
वह मालकिन का घर छोड़कर अस्पताल के स्टाफ क्वार्टर में आकर रहने लगी थी। वह अकेली थी,
पावनी के अलावा उसका और कोई नहीं था। रात को भी मां-बेटी एक साथ ही घर वापस जातीं।
पावनी पहले अपनी मां को घर छोड़ती फिर अपने घर जाती, जहां उसका पति उसका इंतजार कर रहा
होता। सुगना के कारण ही उसकी मालकिन भी निश्चिंत रहने लगीं थीं। कभी-कभी वे पूरे स्टाफ के
सामने हंसते हुए उसे छोटी-दीदी पुकार देतीं। सुगना झेंप जाती। पावनी को तो वे अक्सर ही छोटी-
मेमसाहब कहा करतीं थीं। पावनी भी उन्हें डॉक्टर-मां कहकर उनसे लिपट जाती थी।
सुगना कमरे में आकर कुछ देर लेट गई। आज उसका मन बहुत बेचैन था। उसने खाना भी नहीं
खाया। धीरे-धीरे रात गहरी होती जा रही थी लेकिन सुगना की आंखों से नींद गायब थी। उसकी आंखों
के सामने रह-रहकर अपनी मां का रोता हुआ चेहरा तैर जाता था। सुगना खिड़की के पास आकर खड़ी
हो गई और ऊपर से दूर-दूर तक फैली काली डामर वाली सड़क को देखने लगी। कतार से लगीं स्ट्रीट-
लाइट उस सड़क पर अपनी रोशनी बिखेर रहीं थीं। सुगना ने भी तो अपनी काली सड़क जैसी वीरान
और लंबी जिन्दगी में बड़ी कठिनाइयों से रोशनी हासिल की थी। उसके दिमाग में पुरानी यादों के
झंझावात उठने लगे। सुगना की आंखों से आंसू ढुलक गए। उसने आंसुओं की बूंदें अपनी हथेली पर
टिकानी चाही लेकिन वे बिखर कर उनकी आड़ी-तिरछी रेखाओं में समा गईं… गुम हो गईं।
सुगना पुरानी यादों में बह गई।
तेरह साल की अल्हड़, नटखट, हंसती-खिलखिलाती रहने वाली सुगना। ढीले-ढाले सलवार-कुर्ते में जहां-
तहां घूमती-फिरती रहती और पूरे गांव से बतियाती। एक दिन यूं ही उछलती-कूदती अपने झोंपड़ेनुमा
घर की ओर चली जा रही थी कि उसकी निगाह पिछवाड़े की निम्बिया के नीचे खड़े बापू पर पड़ी।
बापू किसी से बतिया रहे थे और उनके हाथ में खूब सारे पैसे भी थे। सुगना पास जाकर उनकी बातें
सुनना चाहती थी… बापू के हाथ मा इत्ते सारे नोटन की गड्डी! सुगना हैरान रह गई और छुपकर
उनकी बातें सुनने की कोशिश करने लगी… उसे इतनी दूर से कुछ सुनाई तो नहीं दिया लेकिन कुछ
दिनों बाद ये हुआ कि वह दूर के एक गांव में ब्याह दी गई और अपने घर से ससुराल चली आई।
ये लोग भी उसके मायके वालों की ही तरह किसानी का काम करते थे लेकिन दोनों के बीच बहुत
बड़ा आर्थिक-अंतर था। उसका बापू एक बंधुआ मजदूर किसान था जो कि दूसरों के खेतों पर बटाई
पर काम करता था जबकि ससुर गांव की लगभग आधी जमीन का मालिक था। वह अपने खेत बटाई
पर उठाता और गांव के गरीब किसान उसके खेतों पर किसानी करते थे। तीनो बेटे ऊपरी देख-रेख का
काम संभालते थे… साहूकारी का काम था सो अलग। परिवार में कुल चार ही लोग थे… और सब के
सब मर्द… उसका पति, ससुर, एक देवर और एक जेठ। घर में उसके सिवाय कोई और औरत नहीं
थी। धीरे-धीरे सुगना को पता चला कि सास कई बरस पहले ही बीमारी से चल बसी थी और जेठानी
किसी कारण से अपने पति का घर छोड़ मायके में जाकर रहने लगी थी।
सुगना के लिए बड़े अचरज की बात थी कि इस गांव में औरतें बड़ी कम थीं! ऐसा नहीं था कि सब
की सब औरतें घर के भीतर या परदे में रहतीं थीं क्योंकि जितनी भी औरतें थीं उनमें से अधिकतर
अपने-अपने घर के मर्दों के साथ खेती-बाड़ी और बाकी के कामों में उनका हाथ बंटाने बराबर से घर
के बाहर निकलतीं थीं। वह अपने टोला-पड़ोस के घरों में भी जाती तो उसे उनके घरों में भी औरतें
कम ही दिखतीं… बच्चों में भी छोरे ही छोरे नजर आते, कोई एकाध छोरी दिख गई तो गई।
सुगना को इस घर में आए पन्द्रह दिन ही हुए थे… अभी तो वह अपने पति के चेहरे को ठीक से
पहचान तक नहीं पाई थी जबकि वह हर रात आकर उसे रौंद जाता था। चैदह साल की सुगना इस
असहनीय दर्द को सह नहीं पा रही थी। न जाने कैसे परिवार में ब्याह दी गई थी, जहां न कोई बोलने
वाला… न दुःख-दर्द सुनने वाला… न ही प्रेम-प्यार की दो बातें करने वाला।
एक दिन ससुर ने रसोई के भीतर आकर कहा-बहू! जा बिरजू के घर जाकर दुःख मणा आ, उसकी
कल की जाई छोरी मर गई सै।
…धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। सुगना को एहसास होने लगा कि जे गांव मा छोरे ही जिअत हैं… न
जाने कैसे छोरियां पैदा होत ही या कबहूं-कबहूं दूसरे-तीसरे दिन तक मर ही जाती हैं… या शायद…
धीरे-धीरे सुगना ने उसी घर में अपना मन लगाना शुरू कर दिया… इसके सिवाए कोई और चारा भी
तो नहीं था। वह घर संवारती, सबके लिए खाना बनाती। औरत के आते ही वह उजाड़-सा दिखने वाला
घर भी मुस्कुरा उठा। पहले यह घर चार मर्दों के रहते हुए भी मातमी-सा ही लगता था। जबकि घर
में खाने-पीने-पहनने की कोई कमी नहीं थी। वह गरीबी और भूख जो सुगना अपने मायके में भोगती
आई थी, वह यहां कतई नहीं थी… यहां था तो बस अकेलापन… नितांत अकेलापन। अब कभी-कभी
सुगना भी अपने पति के साथ खेत की ओर चल देती लेकिन उसका ससुर रोक देता-बहू! तू कै करैगी
खेत्तण में जाकै… तू तो बस घर नै सम्हाल।
दिन बीतने के साथ-साथ सुगना के चेहरे से घूंघट कम होने लगा और अब वह घर के सभी व्यक्तियों
के चेहरे पहचानने लगी थी। वह पहचान गई थी कि उस दिन उसका बापू खेत में जिसके साथ बात
कर रहा था और पैसे ले रहा था वो उसका ससुर ही था।… पर बापू ने ई लोगन ते पइसे कौन बात
के लए! यह प्रश्न अब भी उसके लिए एक पहेली बना हुआ था।
घर में बंद रहकर उसका जी उचट जाता था। खेतों की ठंडी-ठंडी हवा और उड़ती मिट्टी की सुगंध उसे
बेहद पसंद थी। आज फिर सुगना खेत की ओर चल दी।… लेकिन पीछे से ससुर ने टोका-बहू! इब तू
कित कौ चाल दी? भीत्तर जा। ससुर की कड़क आवाज सुनकर सुगना सहम गई। धीमे-धीमे अपने
कमरे में आई और पलंग पर लेटकर सुबकने लगी। ससुर उसे पीछे से घूरता रहा।
कुछ ही देर बाद वह उसके कमरे में आकर मीठी आवाज में बोला – बहू! तू बुरा माण गई कै? देख
म्हारी बातण का बुरा कोणी माणा कर। ईब चार-चार जण कै होते हुए तू कै करेगी खेत्त मै!
सुगना ससुर को सामने खड़ा देख उठकर बैठ गई। अपनी साड़ी संवारने लगी।
ससुर ने सुगना के पलंग पर बैठते हुए आगे कहा-तू कितणी कोमल और कम उमर की सै, तू इतणा
काम करै, मन्नै देख कै अच्छा कोणी लागै। ऐसा कहते-कहते सुगना के ससुर ने उसकी हथेली अपने
हाथों में ले ली। सुगना चैंक के दूर जा खड़ी हुई। लेकिन अब तक अधेड़ ससुर के भीतर का मर्द पूरी
तरह से जाग चुका था और सुगना एक कमजोर लड़की थी, कब तक विरोध करती… आखिर में एक
मासूम बहू अपने ही ससुर की हवस का शिकार बन गई।
शाम को जब उसका पति लौटा तो उसने सुगना को कमरे में हाल-बेहाल पड़ा पाया… लेकिन आश्चर्य!
सारी स्थिति भांपने के बाद भी उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। रात का खाना भी चारों आदमियों ने
मिलकर ही पकाया और खाया। हां! उसका देवर जरूर आया था, उसके कमरे में। एक थाली लगाकर
सुगना के सामने रख गया था… बिना कुछ बोले।
दिन बीतते गए… सुगना रात को पति की हवस मिटाती और दिन में ससुर की। एक रात अचानक
सुगना ने महसूस किया कि आज जो मर्दाना बदन उसे मसल रहा है… उसके शरीर के ऊपर चढ़ा
हुआ है, उसका भार और दिनों से ज्यादा है… सांसों के उतार-चढ़ाव भी कुछ अलग हैं… औरत अंधेरे
में भी अपने पति के शरीर की गंध पहचान लेती है। सुगना को संदेह हुआ कि यह उसका पति नहीं
है और तभी बाहर जलते लैंप की रोशनी उस मर्द के बदन पर पड़ी। यह न तो उसके पति का जिस्म
था और न ही ससुर का… ओह! यह तो उसका जेठ था।
सुगना घबरा कर उठ बैठी लेकिन दो बलिष्ठ हाथों ने उसे अपनी ओर खींचा और उसके शरीर को
फिर से अपने नीचे धर लिया… सुगना पूरी रात इस तीसरे मर्द के साथ उघड़ी पड़ी उसकी हवस का
शिकार बनती रही।
धीरे-धीरे दिन बीतते गए। सुगना अब समझ गई थी कि वह इस घर में सिर्फ भोगने की चीज है।
उसका काम भूख मिटाना है… पेट की और शरीर की। वह मानसिक रूप से तैयार थी कि किसी दिन
देवर भी उससे अपनी भूख मिटाएगा… और वही हुआ भी।
सुगना दिन भर घर के काम करती और रात को किसी न किसी के जिस्म के नीचे कुचली जाती।
अब उसे उन नोटों की गड्डी की पहेली भी पता चल चुकी थी, जो उस दिन उसका ससुर उसके बापू
को दे रहा था। वह जान गई थी कि उसके बाप ने चंद नोटों के लालच में उसे चार मर्दों वाले इस घर
में बेचा है।
इन रईसजादों ने अपने पैसों के दम पर गरीब घर की लड़की को खरीद लिया था। अपने इस पाप को
ब्याह का जामा इसलिए पहनाया ताकि कानूनी पचड़ों से बचे रह सकें और अपनी चहारदीवारी के
भीतर हाड़-मास के इस शरीर को जी भरकर भोग सकें।
वह इस घर में नाम के लिए ही ब्याही गई थी। असल बात तो यह थी कि वह इस घर के मर्दों की
हवस मिटाने के लिए खरीदी गई थी। उसके बापू ने भी उसका ब्याह पूरे रस्मो-रिवाज के साथ किया
ताकि समाज और बिरादरी में इज्जत बनी रहे। घर बैठे इतना रुपया मिल रहा था सो गरीबी से जूझ
रहा पिता लालच में अंधा हो उठा और सोचने लगा कि घर की बड़ी लड़की निबटे ताकि दूसरे बच्चों
को भी हिल्ले लगाया जा सके।
सुगना मासूम थी। अधिकार, कानून, न्याय-अन्याय कुछ नहीं समझती थी लेकिन वह अपने साथ हुए
इस कृत्य के लिए अपने पिता से लड़ना चाहती थी… पूछना चाहती थी कि उसका कुसूर क्या था…
क्या वह इतनी बोझ बन चुकी थी कि उसे इन जालिमों के हाथों बेच दिया! सुगना अपने माता-पिता
से उस दिखावे की शादी का कारण जानना चाहती थी… उन्हें अपने साथ हुई नाइंसाफी और इस
घिनौने काम के लिए उलाहना देना चाहती थी… चीख-चीखकर रोना चाहती थी। उन्हें अपनी ही जाई
का दर्द दिखाना चाहती थी। इसीलिए सुगना ने मायके जाने का निश्चय किया। लेकिन पति ले जाने
को तैयार न हुआ… किसी और के साथ वह जाना नहीं चाहती थी। लड़की थी न!… अब भी मां-बाप
की इज्जत के बारे में ही सोच रही थी। यदि ससुर, जेठ या देवर के साथ गई तो लोग नाम धरेंगे,
गांव में उनकी बड़ी बदनामी होगी। सो वह अकेली ही मायके चल दी।
जिस आस के साथ मायके आई थी वह यहां आते ही टूट गई। पिता ने खुद ही पूछ लिया-तुम अपनी
ससुराल मा सबन को खुश रखती हो के नाहीं?
मां ने समझाया – बिटिया! अब ऊ ही तोहरा घर है। सबन की बात मानके उनकी सेवा करियो… यही
औरत को धरम होवत है।
कउन धरम अम्मा! का तुमहू ऐसे धरम को मानतीं हौं? जब बेटी ने मां को एकांत में अपने साथ
होने वाले रोज-रोज के बलात्कार के बारे में बताया तो मां का मन भी रोने को हो आया… लेकिन हल
तो उसके पास भी नहीं था।
बिटिया! तुम ऊ घर मा रहके अलग-अलग इंसानन के एकही जुलम सह रही हो जबकि हम ई घर मा
कित्ते ही बरसन से एक ही इंसान के अलग-अलग जुलम सहन कर रहीं हैं। बिटिया! औरतन को
जीवन ऐसो ही है। अब जो है, जैसो है… ऊ ही तुम्हरा घर है। तोका उन लोगन के साथ ही निबाह
करै का पड़ी। जे तुम कौनहु गलत कदम उठहिओ तो हम सबन की थू-थू हुई है। बिटिया… तुम्हरे
छोटे-छोटे भाई-बहन हैं, फिर उन सबन को निस्तार कैसे हुई है! अम्मा अपनी ही जाई को अपने दूसरे
बच्चों की दुहाई देने लगी। सुगना तड़प उठी। किसी से कुछ न बोली… पुरानी सहेलियां मिलने दौड़ी
चली आईं लेकिन वह उनसे भी न मिल सकी।
आश्चर्य! दूसरे ही दिन उसका मर्द उसे लेने पहुंच गया था। अम्मा! सुगणा नै लैणै आया सूं। ईब
सुगणा कै बिणा घर सूणा-सूणा सा लागै सै।
सुगना कड़वाट निगलते हुए मन ही मन बड़बड़ाई-ऊंहह! घर सून-सूना-सा लागै है कि तुम जालिमन-
अधर्मियन को अपना बिस्तरा सूना-सुना सा लागै है! एक रात तक न काट पाए तुम चारों औरत के
जिसम के बिना!
सुगना का मन अब अपने मायके से भी भर गया था। वह समझ गई थी कि उसे किसी का आसरा
नहीं बचा है। मायके से लेकर ससुराल तक सब के सब स्वार्थ के सगे हैं… मतलब के रिश्ते हैं। सुगना
जैसी लड़कियां बरसों-बरस अत्याचार सहती रहतीं हैं और अपने घर-परिवार के खिलाफ कभी कोई
आवाज नहीं उठातीं। वे इसे अपनी नियति मानने लगती हैं और यूं ही अपना जीवन काट देतीं हैं।
सुगना ससुराल लौट आई लेकिन कुछ ही दिन बाद एक और घटना घटी… सुगना मां बनने वाली थी।
घर में सब खुश हो उठे। रात-दिन बस एक ही चर्चा कि लड़के का नाम ये रखेंगे, उसे ऐसे पढ़ाएंगे,
ऐसे खिलाएंगे लेकिन किसी को भी न तो इस बात में दिलचस्पी थी कि ये भ्रूण किसका है और न ही
इस बात में कि हम चार भोगी मर्दों में से इसका असली बाप कौन है?
नौ महीने बीते… घर में किलकारी गूंजने लगी। लड़का ही हुआ था। शक्ल किस पर गई, यह कहना
भी मुश्किल क्योंकि तीनों भाइयों की शक्ल अपने बाप से ही मिलती थी, सो यह नवजात भी शक्ल-
सूरत से उन्हीं पर गया था। सुगना के ससुर ने गांव भर में लड्डू बंटवाए, नाच-गाना हुआ, खूब जश्न
मनाया गया। गांव की औरतें उसके आंगन में जुटीं और जच्चा गाए गए। सुगना बार-बार अपने बच्चे
का मुंह देखती और घर के चारों मर्दों को देखती।
समय फिर सरकने लगा। सुगना दिनभर घर संवारती, बच्चे को संभालती और रात में बारी-बारी से
भूखे मर्दों की भूख मिटाती। उसे अब अपने ही शरीर से घिन आने लगी थी। ताज्जुब यह था कि यदि
वह उन चारों मर्दों में से किसी एक का भी विरोध करती या अपना बदन उघाड़ने से ना नुकुर करती
तो वे सब के सब एक हो जाते थे और उसे तरह-तरह से सताते थे। धीरे-धीरे वह नन्हा बच्चा भी
अपनी मां के साथ नहीं बल्कि उन्हीं में से किसी न किसी के साथ सोने लगा। सोने क्या लगा!…
छोटे बच्चे को बहादुर बच्चा कहकर अपनी मां से दूर कर दिया गया ताकि वहशियों की रातें गुलजार
रहें… कोई अड़चन न आए। धीरे-धीरे बच्चा भी अपनी मां की बजाए बाप, दादा, चाचा और ताऊ की
ही बोली बोलने लगा। अक्सर मां को पलटकर जवाब दे देता… उसका दिल दुखा देता। वो कहते हैं न-
पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं। सुगना को भी जब-तब उसकी शक्ल देखकर यही विचार
हो आता कि, का एक दिना जे लड़का हु इस घर के बाकी मर्दन की तरहा कउनहु औरत की इज्जत
से खेलिहै? ऊकी इज्जत को तार-तार करिहै?…खून को असर जइहै कहां! लेकिन फिर अगले ही पल
वह अपने विचार को झटक देती और बच्चे पर अपनी ममता लुटाने लगती। आखिर तो मां ही थी न!
बहुत जल्दी सुगना को दूसरा गर्भ ठहर गया। फिर दिन बीते… और इस बार लड़की ने जन्म लिया।
यकायक घर में कोहराम मच गया। टोला-पड़ोस के लोग फिर उसके आंगन में जुट आए लेकिन इस
बार न कोई बधाई, न कोई गीत-संगीत, बस एक ही चर्चा… हाय हाय! छोरी हुई सै! सुगना जापे में
थी सो कभी अपने कमरे में लेटी-लेटी कान लगाकर बाहर की आवाजें सुनती तो कभी अपनी मासूम
बेटी का चेहरा देखने लगती।
अरे अम्मा! बिटिया ही तो पैदा भई है, का कोई डायन पैदा होय गई है! तुम सब लोग इत्ती हाय-तौबा
काहे मचाएं हो! सुगना ने अपने कमरे में आई दाई से पूछा।
बहुरिया! ईका डायन ही जान… लड़कनी की जात पूरो को पूरो बंस लील जात है। जउन घर मा
लड़कनी पैदा होय जात है, ऊ घर मा मुसीबतन को अम्बार लग जात है।
तुम अउरत होये के ऐसी बातें कइसे कह सकतीं हो अम्मा!
हम ही काहे! तुमहु तौ अउरत हो… का अउरत होयवे को दुःख तुम ना जानतीं हो? अम्मा ने सुगना
की आंखों में आंखें डालकर कुछ इस अंदाज में बोला कि सुगना भीतर तक सिहर गई।
दाई उसके कमरे में कुछ छुटपुट काम करके बाहर निकल गई। सुगना यूं ही बिस्तर पर लेटी रही।
वैसे भी उसे चालीस दिन के लिए इन मर्दों से मुक्ति तो मिली।
तभी उसे दरवाजे के बाहर से दाई और ससुर के फुसफुसाने की आवाज सुनाई दी-दाई! इब तू ही किते
कोई हल निकाल। आज छोरी नै पहला दिण सै, कदीं कुछ ऐसा कर कि कल रात तक निपटारा हो
जाए। बस्स!!
हां! हां! पूरे गांव की निपटाऊं हूं, तुम्हारी भी निपटाय दूंगी। बस, तुम तो जे सोचो कि उस धुधमुंही
की मां का और हमार मुंह कइसे बंद करना है।
हां! हां! इब तू उसकी चिंता कोणी कर। हमणै पहले कदी तेरे खुल्ले विच कोई कमी रहणे दी जो ईब
रहणे देंगे?… तेरी हर खुल्ली जगह में ठूंस-ठूंस कर भर देंगे। तू पहलै इस छोरी सूं हम सबण का
पीछ्छा छुड़ा दै मेरी राणी।… और दोनों बेशर्मी से खिलखिलाने लगे।
सुगना अपनी बच्ची का भविष्य जान चुकी थी। वह जब से इस गांव में ब्याह कर आई थी तब से
कितनी ही बच्चियों का भविष्य देखती आई है। सुबह जन्म लेतीं हैं बेचारीं… और रात भर में या तो
धरती माता उन्हें अपने सीने से लगा लेती है, कभी गंगा मैया तार देती है, तो कभी कोई कुआं या
बावड़ी लील जाती है। किसी-किसी के साथ यह सब नहीं होता तो उनकी सांस उनका साथ छोड़ देती
है या कोई-कोई जन्मते ही मिर्गी के दौरे से मर जाती है। साबित कर ले जिसको जो साबित करना
हो… मौत इतने सलीके से आती है कि कब आकर छू गई, बच्ची की मां भी नहीं जान पाती…और
जो बेचारी जान भी जाती तो क्या कर पाती इस निर्दयी समाज का, जिसमें सारे कारे बादर औरत
जात पर ही मंडराते हैं… मर्द तो मानों कोई अमृत-बटी खाकर आया हो। सोचते-सोचते सुगना की
आंख लग गई। साथ ही लेटी उसकी बच्ची भी सो चुकी थी… गहरी नींद में… उसका जिस्म धीरे-धीरे
नीला पड़ रहा था। सुबह-सुबह पूरे गांव में जगार हो गया। गांव भर के औरत-मर्द उसके आंगन में
आकर मातम मनाने लगे। बच्ची को रात में जहरीले सांप ने डस लिया था, मगर कैसे!… .आह!
कइसे का? हियां तो डगर-डगर पर सांप ही रेंगत हैं, नन्ही-सी जान कइसे बच पाती इन जहरीले
लोगन से! सुगना ने ममता की सारी पीड़ा मन में दबा ली और बिलख-बिलखकर कर रो पड़ी। बच्ची
का अंतिम संस्कार कर दिया गया… आखिर वो एक आत्मा जो थी।
यहां जीते-जी किसी की आत्मा को कितना भी कष्ट दिया जा सकता है लेकिन मरने के बाद उसकी
आत्मा का संस्कार पूरी श्रद्धा और सम्मान के साथ किया जाता है। गजब है हमारा समाज!
छह महीने भी नहीं बीते और सुगना फिर पेट से थी। सुगना फिर एक-एक दिन डर के साथ गुजारने
लगी जबकि उसका मर्दों वाला परिवार एक और मर्द के इंतजार में सपने संजोने लगा। क्योंकि इत्ती
बड़ी जमींदारी है, घर है, दुकाने हैं, सब संभालने के लिए तो मर्द ही चाहिए न! औरत का क्या है…
मिल ही जाती है हरे-हरे नोटों के सहारे।
सुगना को अब बस देवी मां का ही आसरा था। रोज सुबह एक औरत नहा धोकर दूसरी औरत के
सामने दिया जलाती और उसकी कोख से औरत जात न जने, यह फरियाद करती… लेकिन देवी मां
ने सुगना की प्रार्थना नहीं सुनी और आठ महीने बीतते ही बच्ची ने जन्म ले लिया। इससे पहले कि
पूरा परिवार मातम मनाता… बच्ची की बलि चढ़ाता, सुगना उस नन्हीं-सी जान को अपने सीने के
भींचकर फूट-फूटकर रो पड़ी… और बड़ी देर तक रोती रही। थोड़ी देर में उसकी चेतना लौटी जब दाई
उसके सिरहाने आकर खड़ी हो गई और बोली-बहुरिया! लाओ बिटिया को दे देओ। नहला धुलाकर नए
कपड़े पहनाय दें।
न अम्मा! थोड़ी देर ऐसी ही रहन देओ।
देख बहुरिया समझा कर… इस घड़ी दो घड़ी की मेहमान से इत्ती ममता ठीक ना है। दाई नाराज हुई।
ना अम्मा! हम इसे ना देंगे, तुम हमें कुछ देर ईके साथ अकेली छोड़ देओ, तुम्हें देवी मां की सौहं।
अब तुम देवी मां की सौगंध दे रहीं हों तो… । दाई ऐसा कहकर चली गई। लेकिन सुगना जानती थी
कि वह कुछ ही देर में फिर आ जाएगी।… और वही हुआ। दाई एक चम्मच में शहद लेकर आ गई।
अम्मा जे का है?
सहद है…बच्चन को दओ जात है। दाई ने बच्ची के होठों से शहद लगाया और कमरे से बाहर चली
गई। उसके जाते ही सुगना तुरंत बिजली-सी झपटी और सारा का सारा शहद बच्ची के होठों से पोंछ
दिया। फिर उसने अपने पल्लू को उंगली में लपेटकर बच्ची के कोमल मुंह के भीतर डाला और पूरा
मुंह अच्छी तरह पोंछ डाला। बच्ची दर्द से बिलबिला उठी… सुगना ने उसे अपनी छाती से लगाकर
दूध पिलाना शुरू कर दिया और फिर उसकी पीठ पर हौले-हौले से कुछ धौल मारे ताकि बच्ची पीया
हुआ दूध उलट दे।… बच्ची ने उबकाई भरी और दूध उलट दिया। अब सुगना के चेहरे पर संतोष तैर
गया। इसके बाद वह इत्मीनान से अपनी जाई को दूध पिलाने लगी।
लेकिन यह सिलसिला हर घंटे दोहराया जाता रहा। दाई आती… बच्ची को शहद चटाती और सुगना
बच्ची के पेट तक वह शहद पहुंचने ही न देती। किसी तरह से वह रात कट गई। सुबह से बच्ची ने
अपने रोने की आवाज से घर के मर्दों के कान में सीसा पिघलाना शुरू कर दिया था।
जाणै कैसे बच गी सुसरी! ससुर बड़बड़ाया।
बापू! मणै लागै कि दाई का मुंह इब ज्यादा ही खुल्लण लग्या सै… स्साली ने शहद में असली जहर
णा मिलाया सै।
इब आण दै… देख लूंगा उसनै भी। बुड्ढे ने गन्दी-सी गाली देते हुए पुलिया के किनारे पीक थूक दी।
दाई ने आज भी आते ही बच्ची को नहलाने की जिद्द शुरू कर दी लेकिन सुगना किसी भी तरह न
मानी। दाई और तरकीबें सोचने लगी… सुगना भी बेहद चैकन्नी हो उठी। दाई ने मालिश करने के
लिए बच्ची को जमीन में बिछे कालीन में लिटा लिया। दाई बच्ची की मालिश करती जाती और बार-
बार उसकी कोमल नाक दबा देती… सुगना चिल्ला पड़ती। एकाएक मालिश करते हुए दाई ने बच्ची
का मुंह पास रखे कम्बल से ढांप दिया… बच्ची छटपटाने लगी। सुगना चीख पड़ी… वह तीर की तरह
झपटी और बच्ची का मुंह खोल दिया। दाई खिसियानी-सी हंसी हंस दी। वह बच्ची को वहीं जमीन पर
ही छोड़कर कमरे से बाहर निकल गई। सुगना ने उस मासूम को उठाकर अपने सीने से लगा लिया…
मां-बेटी बड़ी देर तक सुबक-सुबक कर रोतीं रहीं। ममता आज कसौटी पर थी… बच्ची को तरह-तरह
से मारने की कोशिश की जा रही थी लेकिन सुगना चैकस मां बनकर अपनी बेटी और उसकी मौत के
बीच मजबूत दीवार की तरह खड़ी हो चुकी थी। घर में सभी को सुगना का यह विद्रोह साफ नजर आ
रहा था लेकिन वे उसका खुलकर विरोध भी तो नहीं कर सकते थे… वे मां के आंचल से जबरन
खींचकर बच्ची को मौत के घाट नहीं उतार सकते थे… कानून अब पहले जैसा नहीं था, बहुत सख्त
हो गया था।
इसी उधेड़बुन में रात हो गई। यह इस बच्ची की इस घर में दूसरी रात थी… नहीं अंतिम! और सुगना
की भी… अंतिम रात!
रात के अंधेरे में सुगना ने मौका देखकर अपनी बच्ची को चादर में लपेटा और दीवार की आढ़ लेकर
पुलिया पार करते हुए खेतों की सीमा तक आ पहुंची। घर के भेड़ियों और खेतों के कुत्तों से बचते-
बचाते वह मुख्य सड़क तक आ गई। बच्ची मां की छाती से चिपटी हुई थी। दूर से एक ट्रक आता
दिखा… सुगना ने उसे रुकने का इशारा किया और वह भला मानुस मानों सब समझ गया हो, मां-बेटी
को अपने ट्रक में बैठाकर शहर की ओर चल दिया। सुगना ट्रक में उस मर्द से भी सावधान बनी
रही… क्योंकि उसे मर्दों से नफरत हो चुकी थी। हालांकि वह अपने बेटे के प्रति अपना दिल बड़ी ही
मुश्किल से कड़ा कर पाई थी। इस बेटी की जान बचाने की खातिर उसे बड़ी कठिनाई से अकेला
छोड़कर आ पाई थी।
बहण! ईब तू इस नन्ही-सी जाण नै लेके कित कौ जावैगी? शहर में तेरा जाण-पहचाण वाला कौन
सै?
बहन… बहन शब्द सुनते ही जैसे कोई मुरझाया रिश्ता खिल उठा हो… सुगना इस एक शब्द से महक
उठी। उसने उस ट्रक वाले से शहर की सीमा तक छोड़ देने का निवेदन किया। आधी रात हो चुकी थी
और ट्रक अंधेरे को चीरता हुआ शहर की ओर बढ़ रहा था। एकाएक ट्रक रुक गया।
भइया! का भओ… तुमने टिरक काहे रोक दओ?
देखूं सूं।
सुगना का मन सशंकित हो उठा… बुरे खयाल आने लगे। जब कोई बुरी घटना घटने वाली होती है
तब अक्सर हमारा अचेतन मन सावधान होने की चेतावनी देने लगता है।… और सुगना का तो अपने
सगे रिश्तों तक से विश्वास उठ चुका था, फिर ये इंसान तो राह चलते भाई बना था, उस पर कैसे
विश्वास कर लेती! ट्रक वाला नीचे उतर कर अपने ट्रक का इधर-उधर से मुआयना कर ही रहा था कि
सुगना भी अपनी बच्ची को गोद में दबोचे हुए दबे पांव ट्रक से उतरी और नीचे झाड़ियों में जाकर
छुप गई। चारों तरफ घुप्प अंधेरा था… लेकिन ट्रक की हल्की-हल्की रोशनी में धुंधला-सा दृश्य नजर
आ रहा था। सुगना ऊपर से नीचे तक सिहर गई जब उसने ट्रक वाले को शराब गटकते हुए और
अपने गुप्तांग को सहलाते हुए देखा। उसे अहसास हुआ कि वह सही समय पर चेती और ट्रक से नीचे
उतर आई थी। अचानक तभी बच्ची कुनमुनाई… सुगना ने तुरंत अपना स्तन उस मासूम के मुंह में दे
दिया। वह शांत हो गई। इस समय उसके पास उन झाड़ियों में छुपे रहने के अलावा और कोई चारा न
था क्योंकि यदि वह एक कदम भी बढ़ाती तो झाड़ियों में हरकत हो उठती।… और एक भेड़िया शराब
के नशे में धुत्त उसी को खोज रहा था। थोड़ी ही देर में उस पर शराब का जबरदस्त सुरूर चढ़ गया
और वह बड़बड़ाने लगा… सुगना को गंदी-गंदी गालियां देता हुआ ट्रक में जाकर बैठ गया। सुगना के
लिए यह पूरा दृश्य बड़ा ही भयावह था। उसने बचपन में राक्षसों की कई कहानियां सुनीं थीं और इस
वक्त यह ट्रक वाला किसी भयंकर राक्षस से कम नहीं लग रहा था। वह सीट पर बैठा कुछ देर और
अपने हलक में शराब उतारता रहा, गालियां देता रहा… फिर ट्रक चलाकर आगे बढ़ गया। उसके जाते
ही सुगना की जान में जान आई। वह अपनी बच्ची को संभालती हुई झाड़ियों से बाहर निकली और
कुछ देर तक वहीं सड़क के किनारे निढाल होकर बैठी रही। यह रात बहुत भारी थी इन मां-बेटी के
लिए।
सुगना ने फिर हिम्मत बटोरी और उसी रास्ते पर धीरे-धीरे आगे चलने लगी। अंधेरा था, लेकिन
सुगना धीरे-धीरे ही सही आगे बढ़ती रही… रुकी नहीं। इस सुनसान रास्ते में इक्का-दुक्का ही कोई
वाहन निकल रहा था, वो भी खूब-खूब देर के बाद। दूर से कोई भी वाहन आता हुआ नजर आता तो
सुगना किसी पेड़ या झाड़ी के पीछे छिप जाती। सुगना अब किसी भी गाड़ी में नहीं बैठना चाहती
थी… वह अब किसी पर भी भरोसा नहीं करना चाहती थी। वह चलती रही… देर तक… दूर तक… देह
थककर चूर-चूर हो गई थी लेकिन वह बिना रुके चलती ही जा रही थी…
एकाएक सुगना की चेतना लौटी… उसकी आंख खुली और उसने देखा कि वह किसी कोठी के बगीचे
में पड़े कालीन पर लेटी है। उसकी बच्ची भी पास ही के तखत पर लेटी है जिसे एक मेमसाहब जैसी
दिखने वाली औरत बोतल से दूध पिला रही है। सुगना हड़बड़ाकर उठ बैठी। उसने इधर-उधर निगाह
दौड़ाई। यह किसी रईस का घर था।
घबराओ मत! यह मेरा घर है और मैं एक डॉक्टर हूं। मेरे पति भी डॉक्टर हैं लेकिन वे कुछ समय के
लिए विदेश गए हुए हैं। जब मैं सुबह सैर पर गई तब तुम मुझे सड़क के किनारे बेहोश पड़ी मिलीं,
तुम्हारी बच्ची भूख से रो रही थी। अब तुम बताओ कि तुम कौन हो और इतनी छोटी-सी बच्ची को
लेकर यहां-वहां क्यों भटक रही हो?
मेमसाहब!…
उसने बात काटते हुए कहा-मेमसाहब नहीं दीदी कहो।
दीदी! हम अपनी जा बिटिया की जान बचावे के खातिर ही रात के अंधेरे में घर से भागी हैं।… और
सुगना ने अब तक की सारी आपबीती सुना डाली। सुगना का संघर्ष सुनते-सुनते उस भद्र महिला का
दिल भर आया लेकिन उसने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए कहा-ठीक है, मैं तुम पर
विश्वास कर लेती हूं। लेकिन तुम्हें अपने आगे के जीवन के बारे में खुद ही सोचना होगा… कहां
जाओगी… क्या करोगी? जब तक तुम्हारा कोई बंदोबस्त नहीं होता तब तक तुम मेरे घर में रह
सकती हो। यहां तुम पूरी तरह से सुरक्षित हो।
दीदी! हम आपके छोटे-बड़े सबरे काम कर दीहें। आप हमे और हमरी बिटिया को आसरा दइ देओ।
हम तो जे सहर को नाम तक नहीं जानतीं। वह रो पड़ी।
ठीक है, लेकिन तुम्हें पुलिस स्टेशन में अपनी फोटो और नाम दर्ज करवाना होगा। हां! तुम अपने
पहचान वालों में मेरा नाम डाल सकती हो। देखो सुगना! शहर में सुरक्षा की दृष्टि से यह सब
फॉर्मेलिटीज जरूरी होतीं हैं।
दीदी हम आपकी सब बात मानिहें। नरक से भाग के तो हियां आए हैं… अब हियन ते भाग के भला
कहां जइहैं? आप तो बस ई गरीब-दुखियारी मां को आसरा दई देओ।
धीरे-धीरे सुगना ने अपनी मालकिन के घर का सारा काम संभाल लिया। उन्हें भी सुगना के रूप में
विश्वासपात्र सेविका मिल गई थी। उनके कोई औलाद नहीं थी इसलिए वे सुगना की बच्ची को अपना
सारा दुलार देने लगीं।
सुगना फिर जी उठी। उसे कभी-कभी अपने बेटे की याद जरूर आती लेकिन वह खुद को संभाल लेती,
वह नहीं चाहती थी कि उसकी बच्ची कभी-भी अपना अतीत जाने, फिर उस अतीत की चिंगारियों को
खंगाले… सुगना अपनी बेटी को उन लपटों से बचाकर रखना चाहती थी।… और वैसे भी जैसा उसके
ससुराल का माहौल था, उसे विश्वास था कि उसका बेटा प्यार से पाला जा रहा होगा। वहां औरतों को
जख्म देने का रिवाज था मर्दों को नहीं।
सुगना अब तक अपने जिन सगे रिश्तों से आहत होती आई थी… उनके दिए जख्म लेकर सिसक रही
थी, इस बे-रिश्ते की महिला ने अपने प्रेम और संरक्षण से उन सारे जख्मो को भर दिया था। दोनों ने
मिलकर उस बच्ची का नाम पावनी रखा। पावनी ने स्कूल जाना शुरू कर दिया। सुगना अब अपनी
डॉक्टर-दीदी के साथ उनके अस्पताल भी जाने लगी थी। उनके पति भी बहुत भले इंसान थे। उनके
रूप में सुगना ने पहली बार किसी देवता समान भले पुरुष को देखा था।
अपनी मालकिन को देख-देखकर सुगना ने पावनी को भी डॉक्टर बनाने का सपना संजो लिया और
उसकी मालकिन भी पावनी को डॉक्टर बनते ही देखना चाहती थी। वह बच्ची सुगना की बेटी कम
उनकी बेटी अधिक हो गई थी। पावनी सुगना को अम्मा और उन्हें डॉक्टर-मां कहती। पावनी की
परीक्षा अच्छी न जातीं तो उसे अपनी डॉक्टर-मां से खूब डांट सुननी पड़ती। उसकी टीचर के साथ
मीटिंग भी डॉक्टर-मां ही करतीं थीं।
सुगना घर और हॉस्पिटल में मेहनत से काम करती थी। पावनी भी अपने स्कूल की पढ़ाई में जी-जान
लगा रही थी।… और एक दिन सुगना का सपना पूरा हो गया उसकी बेटी पावनी डॉक्टर बन गई।
धीरे-धीरे समय बीता और पावनी के कई ऑपरेशन बेहद सफल रहे।… आज वह शहर की बड़ी डॉक्टर्स
में गिनी जाती है।
घनन्न… घनन्न… घनन्न… घनन्न… रात के सन्नाटे में सुगना के फोन की घंटी घनघना उठी। वह
तत्काल अपने वर्तमान में लौट आई। खिड़की से हटकर पलंग की ओर बढ़ी और फोन का चोंगा अपने
कान से लगाकर बोली-हैलो!
उधर से ब्यॉय की आवाज थी-मैडम! आज सुबह वाला पेशेंट नहीं रहा। वो बुढ़िया बहुत रो रही थी।
मैंने पूछा भी कि, क्या सुगना मैडम को बुला दूं? लेकिन उसने मना कर दिया।
बुढ़िया नाहीं… मां जी कहो, वो तुमसे बड़ी हैं… कहां हैं वो? हमरी बात कराओ।
मैडम! वे तो कुछ देर पहले ही अपने पति की बॉडी को लेकर गांव चलीं गईं।
अच्छा!…
सुगना पलंग पर बैठ गई… फोन हाथ से छूट गया और अपने-आप ही कट गया।… नहीं दूसरी ओर
से काट दिया गया था।
(सृजनगाथा से साभार प्रकाशित)
कविता
निस्तब्धता
-आचार्य बलवन्त-
जब गहन निस्तब्धता में,
दर्द की लौ टिमटिमायी,
फिर तुम्हारी याद आयी।
पूछता हूं कौन आया,
दर्द को किसने जगाया,
बात वो किसने चलायी?
फिर तुम्हारी याद आयी।
सिसकियों में शाम लेकर,
सुबह का पैगाम लेकर,
रात जब भी मुस्कुरायी।
फिर तुम्हारी याद आयी।।
(सृजनगाथा से साभार प्रकाशित)