पेइंग गेस्ट (कहानी)

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पेइंग गैस्ट: कैसा खेल दिलीप और मिताली खेल रहे थे? - Grihshobha

विनीत माहेश्वरी (संवाददाता)

धीरे-धीरे चल कर जल्लू चाचा बाहर की बालकोनी में आ कर बैठ जाता है। संध्या रात्रि में परिवर्तित
होने को है। पश्चिम का पथिक यद्यपि डूब चुका है तथापि व्योम के एक कोने में उस की लालिमा
अभी भी शेष है। पक्षियों का चहचहाना समाप्त हो चुका है। लगता है, सभी अपने घोसलों में दुबक
चुके हैं। चारों ओर शान्ति है। केवल इक्का-दुक्का वाहन कभी-कभी अपनी चिंघाड़ से इस शान्ति को
भंग कर रहे हैं।
जल्लू चाचा के छोटे बेटे के ब्याह का शोर-गुल समाप्त हो चुका है। सारा मेल अपने-अपने घरों को
लौट गया है। सभी ब्याह की थकान मिटाने के लिए सोये पड़े हैं। नया जोड़ा हनीमून मनाने मनाली
चला गया है। केवल जल्लू चाचा बाहर की बालकोनी में बैठा इस लेखे-जोखे में उलझा हुआ है कि
पिता होने के नाते इस ब्याह में उसका क्या योगदान है? क्या सहयोग है? शायद कुछ नहीं, नगण्य
है। सारा खर्च उस के बड़े बेटे ने उठाया है। चारों ओर उस की धूम है, बेटा हो तो ऐसा। वह भी किसी
हद तक इसे मानता है और यह भी जानता है, उस के समक्ष उसकी औकात दो कौड़ी से अधिक नहीं
है। बेटा स्वयं को सेल्फमेड मैन कहता है। क्या उसे इस स्तर तक पहुंचाने में उस का और उस की

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मम्मी का कोई हाथ नहीं है? इस प्रश्न का उत्तर यदि मिल भी जाए तो उन तकलीफों का मूल्यांकन
कौन करेगा, जो इसके सेल्फमेड मैन बनने में सहायक हुईं? उस बिखराव का मूल्यांकन कौन करेगा,
जो उसे सुदृढ़ करने में उनमें आया है? शायद कोई नहीं। जल्लू चाचा मानता है, मां-बाप सदा से
बच्चों के लिए संघर्ष और तकलीफें सहते आए हैं। उसे इस बात का एहसास है। वह और उस की
पत्नी इस बात के लिए कोई विलक्षण नहीं हैं।
पर… सेल्फमेड मैन? उसे याद है, बेटा जिस के संग काम करता था, जब उस ने इसे निकाला तो
सारा परिवार इसके साथ खड़ा था। न केवल परिवार बल्कि कई रिश्तेदार इसके संग खड़े थे। पैसे-टके
से लेकर सब प्रकार की सहायता की थी। इस का आॅफिस स्थापित करने में जो सहायता चाहिए थी,
मिली। रिश्तेदार केवल इसके लिए तो आगे नहीं आए थे? हमारा मिला-वरता आगे आया था। इतनी
जल्दी यह इस बात को कैसे भूल गया? वह मानता है, इसने जिससे जो कुछ लिया, समय रहते
लौटा दिया परन्तु जो समय पर सहायता मिली वह किसी जीवनदान से कम थी क्या? मुझे नहीं
लगता, यह इस बात को कभी समझेगा या समझ पाएगा।
यह नहीं है कि पैसा जल्लू चाचा के पास कम आया। छठे वेतन आयोग का बकाया इतना आया,
सोचा था, छोटे की रिंग सैरेमनी का फंक्शन तो वह कर ही देगा। तब क्या हुआ? देखा, उस के पास
पैसा आ गया है, सभी ने हाथ खींच लिए। उसमें बड़ा बेटा मुख्य था। दुनिया में रिसेशन है, इसलिए
उन का काम भी बंद है। और उनका यह काम तब तक बन्द रहा जब तक आया हुआ पैसा समाप्त
नहीं हो गया। उन के अपने खर्चों के लिए इस रिसेशन में भी पैसे कहां से आते रहे, वह कभी जान
नहीं पाया। खाली होकर वह फिर दो कौड़ी का आदमी रह गया। खाली का खाली पहले की तरह।
उसने सोचा, वह कब खाली नहीं रहा। ब्याह से पूर्व ग्यारह वर्षों तक भाइयों के भरण-पोषण, पढ़ाई,
मां-बहन की तीमारदारी में उस की जेबें खाली रहीं। सारा वेतन परिवार की भेंट चढ़ता रहा। और ब्याह
के पश्चात बच्चों के पालन-पोषण, पढ़ाने, स्थापित करने में उसकी जेबें खाली रहीं। आज बच्चे
स्थापित हैं। लाखों कमा रहे है। गाड़ियां हैं, मकान हैं परन्तु एक अथवा अन्य कारणों से उसकी सारी
की सारी पेंशन घर की भेंट चढ़ जाती है। उसे इस बात का गम नहीं है, वह जेबों से खाली है। गम
इस बात का है, सब कुछ गंवाने के बाद भी उस की औकात क्या है? दो कौड़ी की? मन के भीतर
की यह पीड़ा उसे सदा सालती है, सालती रहेगी। उसे नहीं लगता, वह इस पीड़ा से कभी मुक्त हो
पाएगा। इस स्थिति से उसे कभी उभरने नहीं दिया गया। कभी मां बाधक रही, कभी बहन, कभी
पत्नी और कभी बच्चे। सभी अपने-अपने स्वार्थ के लिए उस संग जुड़े रहे, केवल वह निस्वार्थ बना
रहा। यह नहीं, उस ने पैसे खर्च करने में कभी हिचक का अनुभव किया हो। समय आने पर न केवल
इसका प्रबन्ध किया अपितु खर्च भी किया। उसे खर्च करने से विरोध नहीं है। उसे बच्चों की उस वृत्ति
से विरोध है कि पिता को हमेशा खाली कर के रखो। वह कहीं किसी को दे न दे। अपने ढंग से कुछ
कर न ले। उनका उसे बुरी तरह प्रयोग करने से विरोध है। विरोध है, उसका उनसे, अपनी मम्मी से
एक बिजनेसमैन की तरह डील करने का। काश! वे इस बात को समझ पाते। मन के भीतर की इस
पीड़ा का अनुभव कर पाते तो वह जी जाता।
छोटे की शादी के तीन वर्ष पूर्व बड़े ने तीन रोज के लिए एक लाख रुपया लिया था और अब तक
नहीं लौटाया। वह मानता है, उस ने सब कुछ किया। शापिंग, कपड़े, गहने, खाने-पीने से ले कर सब

कुछ। सब रज-रज के हुआ। दुःख उसे इस बात का है, उस एक लाख रुपये का जिक्र क्यों नहीं हुआ?
यह क्यों नहीं कहा गया कि पापा इस सारे खर्चे में एक लाख का योगदान आप का भी है। और छोटे
के उन पैसों का जिक्र क्यों नहीं हुआ, जब दोनों इकट्ठे काम करते थे तब कमा कर बड़े के पास रखे
थे कि शादी तो उसने ही करनी है। इसके लिए बड़े के अपने तर्क हो सकते हैं।
प्रश्न शायद पैसों का नहीं है, स्वयं के अस्तित्व का है। क्यों मन के भीतर की इस प्रवंचना से मुक्त
नहीं हो पाता कि वह और उस की पत्नी अपने ही घर में पेइंग-गेस्ट हैं। सब कुछ न्योछावर कर दिया
औरों पर? अपने लिए कुछ भी न रखा? यह कैसा त्याग है? कैसा मोह है जिस की धूर्त प्रवंचना से
छले गए हो? उसके पास इन प्रश्नों का दूर-दूर तक कोई उत्तर नहीं होता। सबके समक्ष वह स्वयं को
लुटा हुआ पाता। यह एहसास उसे दीमक की तरह खाये जा रहा है। पर यह सही क्यों नहीं है? जिन
पर उसने अथवा उसकी पत्नी ने स्वयं को न्योछावर किया, वे उनके अपने हैं। उनके प्रति उनके
कर्तव्य थे जो उन दोनों ने निभाये और शायद निभाते रहेंगे। फिर मन के भीतर यह ग्लानि कैसी?
बस एक प्रश्न उसे हमेशा सालता रहा है, यह कर्तव्य, यह फर्ज सिर्फ उनके ही क्यों हैं? उन के वही
अपने मन की गहराइयों से क्यों नहीं समझते? पेंशन दे कर और पेइंग-गेस्ट के संताप के ताप में ही
सही उन्हें घर का कोना तो मिला हुआ है। दाल-रोटी तो मिल रही है, कभी सम्मान से, कभी अपमान
से। सतनाम सिंह की तरह तो नहीं, अपना सब कुछ बच्चों के नाम करने पर उसे ओल्डएज होम में
शरण लेनी पड़ी। वह भी मन की इस प्रवंचना से छला गया होगा कि जीते भी इनका, मरते भी
इनका अथवा मन के भीतर यह विश्वास दृढ़ रहा होगा, सब कुछ गंवाने के बाद और स्नेह और
सम्मान करने लगेंगे कि कितना न्यायप्रिय है, अपने जीते जी सब कुछ बांट गया। बस वह मन की
इस धूर्तता को समझ नहीं पाया। और समझ नहीं पाया बच्चों के इस स्वार्थपूर्ण कांइयेपन को? तभी
वह आज ऐसा जीवन व्यतीत करने को बाध्य है। यह कैसी विडम्बना है, कोई अपना सब कुछ लुटा
कर सम्मान पाने के भ्रम में फंसा है, कोई पेंशन गंवा कर। और जिस के पास कुछ भी नहीं है, वे
किस संताप और अपमान से गुजरते होंगे, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
आज यदि जल्लू चाचा बच्चों के समक्ष पैसों की बात करे तो क्या उचित होगा? इस प्रश्न को
शाब्दिक रूप देेने में उसका मन, हृदय घबराता है। सभी इस की त्रासदी को हलके से लेंगे। पत्नी तो
पीछे ही पड़ जाएगी-देखो, बुड्ढे के पांव कब्र में हैं, अभी पैसों की बात कर रहा है। क्या करेगा पैसों
का? पता नहीं कब राम नाम सत हो जाए। वह अस्तित्व और व्यक्तित्व की बात कभी नहीं
समझती। उस के समक्ष बच्चे ही सर्वोपरि हैं। वह उसे पीछे डाल कर बच्चों का साथ देती है। वह उसे
कभी समझा नहीं पाया कि वह उनका दुश्मन नहीं है। वह आत्मनिर्भरता की बात को भी नहीं
मानती। वह उन की मां है और वे उसके बच्चे। वह उसका मोह भंग करने का प्रयत्न करता हैय
परन्तु वह उसे नकार देती है। अधिक जोर देता है तो पैसों को लेकर वह उस की बेइमानियां गिनाने
लगती है। इसको लेकर वह हमेशा उसके समक्ष बेईमान बना रहा। वह उसे कभी समझा नहीं पाया
कि बच्चों के समक्ष भी पैसा मां-बाप के सम्मान और अपमान का मापदण्ड है। यदि यह बात उसकी
समझ में आ भी जाती अथवा अन्य अनेक कारणों से उसका मोह भंग हो भी जाता तो भी बच्चों की
ओर से उसका मन मैला न होता। वह इसके प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ रहती कि ले-दे कर वह ही गलत है। वह
उसे बच्चों की क्रिया-कलापों के उदाहरणों से समझाने का प्रयत्न करता और यहां तक कहता कि

तुम्हारे बूढ़े मां-बाप के पास उनका मरना-जीना सुरक्षित है। मरने के बाद भी वे अपने बेटे पर बोझ
नहीं बनना चाहते। तुम्हारे पास क्या है? यदि आज हममें से कोई मर जाए तो और खर्चों की तरह
इस खर्चे के लिए भी बंटवारा होने लगेगा। क्या ऐसे समय के लिए बचाकर रखना उचित नहीं होगा?
भलिए-लोके, आज के बच्चे बहुत यथार्थवादी और प्रैक्टीकल हैं। वे ऐसे अवसरों पर भी पैसे के हिसाब-
किताब को नहीं भूलते। उसे इस बात को समझना होगा। इस सत्य को पहचानते हुए उन्हें अपना
स्वार्थ स्वयं साधना होगा, इसीलिए वह पैसों की बात करता है। जल्लू चाचा के मूक होने के पश्चात,
एकाएक वह उसकी बात का उत्तर नहीं दे पाई, तत्पश्चात कहा, हमारे बच्चे हमारी मिट्टी खराब नहीं
करेंगे, आप निश्चिंत रहें। कहने को तो वह यह बात कह गई परन्तु चेहरे की भाव-भंगिमा से उसने
अनुभव किया कि अपनी बात को वह विश्वासपूर्वक नहीं कह पा रही है। शायद अंतिम समय की बात
उसे भीतर तक कचोट गई है। वह बच्चों को रोज झगड़ते देखती है, चाहे वह बिजली का खर्चा हो या
दूध का, टेलीफोन का हो या राशन का। इन झगड़ों का समाप्त करने के लिए ही तो उनको अपनी
पेंशन खर्च करते रहना पड़ता है। उनके समक्ष वे इतना झगड़ा करते हैं, इस बात की गारंटी तो नहीं
दी जा सकती न कि उनके मरने के बाद भी वे ऐसा नहीं करेंगे। उसका तो स्पष्ट मत है, वे झगड़ा
ही इसलिए करते हैं कि उनकी पेंशन खर्च करवा सकें। वह उनकी इस धूर्तता और कांइयेपन को
समझ गया है परन्तु उसकी पत्नी का मोह भंग होना अभी शेष है। काश! वह उसके इस मोह का
निवारण कर पाता।
आज भी अल्प समय के उबाल संग सब कुछ शान्त हो गया। बात आई-गई हो गई। संध्या होने से
पूर्व, जल्लू चाचा जब बालकोनी में बैठे प्राकृतिक छटा का आनन्द ले रहे थे तो उसकी पत्नी उसके
पास चल कर आई और बोली, मैंने अपनी बहनों से भी बात की है। किस बारे में? जल्लू चाचे ने
पूछा। आपने कहा था न हमें अपने लिए बचाकर रखना चाहिए। उन्होंने भी कहा कि आप ठीक कहते
हैं, अगर हमारी पेंशन न होती तो हम क्या करते? अब एक-एक, दो-दो हजार बचाकर रखा करूंगी।
शुक्र है, तुम्हें मेरी न सही अपनी बहनों की बात तो समझ आई। तुम्हें यह समझना होगा कि हम
अपने ही घर मे पेइंग-गेस्ट हैं। यदि घर में पैसा न दिया जाए तो हमारी क्या अवस्था हो? क्या हम
अपना वर्चस्व बचा पाने में समर्थ होंगे? सम्भवतः नहीं। बच्चे आत्मनिर्भर हैं। उन्हें उनका जीवन
उनके ढंग से व्यतीत करने देना चाहिए। उनको स्पष्ट कह देना चाहिए, अपने जीते जी हम अपनी
पेंशन बचा कर रखना चाहते हैं जो कालांतर में उन्हीं के काम आयेगी। और यह भी कि हम पेइंग-
गेस्ट के संताप से मुक्त होना चाहते हैं। पर वह जानता है, वे किसी न किसी बहाने से पेंशन का
खर्च निकाल ही लेंगे। सम्भवतः इस जन्म में तो इस संताप से मुक्त होना असम्भव है।

कविता
कभी पलकों पे आंसू

-नितेश अंबूज-
कभी पलकों पे आंसू आते हैं
तो कभी लब थरथराते हैं,
कभी दिल में बेचैनी होती है
तो कभी सांसे थम सी जाती हैं
कभी खुद की धड़कन पढ़ते हैं
तो कभी धड़कन में जिन्दगी ढूंढा करते हैं,
कभी शब्दों का सृजन करते हैं
तो कभी शब्दों की परिभाषा ढूंढा करते हैं
कभी महल की भव्यता देखते हैं
तो कभी रज कणों में महल ढूंढा करते हैं,
कभी लक्ष्य का पीछा करते हैं
तो कभी राहों में खो से जाते हैं
कभी उम्मीद का दामन पकड़ते हैं
तो कभी खुद का दामन छूट जाता है
कभी वक्त के साए में जीते हैं
तो कभी जीने का मतलब ढूंढा करते हैं।।

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