



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता)
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच पिछले
कई सालों से तल्खी देखने को मिल रही है। केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने न्यायपालिका पर
सीधा हमला कर दिया। जनता के लिये न्यायपालिका से कुछ नहीं है। संविधान के अनुसार जजों की
नियुक्ति करने का अधिकार सरकार को होना चाहिए। एक माह में दूसरी बार कानून मंत्री ने
कॉलेजियम सिस्टम को बदलने की बात कही है। पिछले वर्षों में हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट जिस तरह
से सरकार के दबाव में दिख रही है। उसके बाद अब यह स्पष्ट रूप से देखने लगा है कि सरकार
जल्द ही कानून बनाकर हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के जजों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथ में ले
लेगी।
हाल ही में प्रधान न्यायधीश और 4 जजों वाले सुप्रीम कोर्ट की कालेज्मि की बैठक में 2 सदस्यों की
असहमति होने के बाद सरकार का पक्ष मजबूत होने लगा है। पिछले वर्षों में कॉलेजियम की अनुशंसा
का पालन करने में सरकार ने पूरी तरह से कोताही बरती है। उन्हीं जजों को सरकार ने नियुक्त किया
है, जिन्हें सरकार चाहती थी। कॉलेजियम ने यदि सरकार की इच्छा के विपरीत किसी ऐसे जज की
नियुक्ति की सिफारिश की। उस सिफारिश को सरकार ने कभी भी नहीं माना। ऐसी स्थिति में यदि
सरकार जजों की नियुक्ति का मामला अपने हाथ में ले भी ले तो न्याय पालिका की वर्तमान स्थिति
में कोई ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है। उल्टे न्यायपालिका की विश्वसनीयता जरुर कम होगी।
न्यायपालिका खुद अपनी समीक्षा करें। 2014 के पहले न्यायपालिका के निर्णय काफी हद तक दोनों
पक्षों को प्रभावित करते थे। पिछले कुछ वर्षों से न्यायपालिका निर्णय कम दे रही है, सलाह ज्यादा दे
रही है। जनहित याचिकाओं में जुर्माना लगाना बहुत जरूरी याचिकाओं पर सुनवाई ना होना हाईकोर्ट
और सुप्रीमकोर्ट में सरकार और अन्य पक्ष को अलग अलग तरीके से देखना न्यायपालिका की
कमजोरी है। पिछले वर्षों में न्यायपालिका की जो आलोचना जनसामान्य के बीच में हो रही है। 70
वर्षों के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ, जिस तरह से सरकार ने सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट के जजों
की निष्पक्षता को प्रभावित करने का काम किया है। न्यायपालिका भी सरकार के दबाव में काम करते
हुए नजर आई है। उसके बाद यदि सरकार हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति करें, तो
भी कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। न्यायपालिका और सरकार के अधिकार को लेकर लगातार सरकार
हमले करती रही है। संविधान की बात करें तो संविधान के संरक्षण की जिम्मेदारी न्यायपालिका की
है। कार्यपालिका और विधायिका पर न्यायपालिका का अंकुश संविधान निर्माताओं ने लगाया हुआ है।
संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत जो मौलिक अधिकार वर्णित हैं। उन अधिकारों का हनन करने
वाले कानून एवं नियम बनाने का अधिकार विधायिका के पास नहीं है। यह सही है, कि विधायिका
को कानून बनाने की शक्तियां हैं। लेकिन उनकी समीक्षा करने संिवधान में वर्णित मौलिक अधिकारों
के संरक्षण का अधिकार हमेशा न्यायपालिका के पास है। न्यायपालिका के आदेशों को मानना
विधायिका और कार्यपालिका की संवैधानिक जिम्मेदारी है। समय के साथ आदमी का मनोबल बनता
और बिगड़ता है। न्याय पालिका में जिस तरह से पिछले कुछ वर्षों में विचारधारा के आधार पर जजों
की नियुक्तियां हुई है। उसके बाद से न्यायपालिका की स्थिति दिनोंदिन कमजोर होती चली गई।
न्यायपालिका यदि अपने अस्तित्व को बचाए रखना चाहती है, तो वह अपनी पूर्व की परंपराओं, पूर्व
में दिए गए हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट के जजों का निर्णय का अवलोकन करे। हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट
में सबसे ज्यादा मुकदमे सरकार के खिलाफ आते हैं। हर मुकदमे में केन्द्र या राज्य सरकार पार्टी
होती है। न्यायपालिका यदि सरकार के अधीन हो जाएगी, तो लोकतंत्र और संविधान को बचाये रख
पाना शायद ही संभव होगा। अंकुश रखने पर ही महावत हाथी को नियंत्रित कर पाता है। इसी तरह
से सरकार को न्यायपालिका का अंकुश पिछले 70 सालों से नियंत्रित करता रहा है।
आपातकाल, इंदिरा गांधी की आयोग्यता जैसे सैकड़ों निर्णिय है, जिसने आम आदमी का विश्वास
न्यायपालिका पर बनाये रखेने का काम किया था। जब सरकार के नियम और उनकी मर्जी को
सरकार की तरह न्यापालिका भी देखने लगेगी तो सरकार एवं प्रशासन की प्रताड़ना से बचने आम
जनता किसके पास जाएगी। फिर लोकत्रत्र नहीं राजतंत्र स्थापित होगा। संविधान का यह अंकुश हट
गया, तो फिर भगवान ही मालिक होगा।