



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता)
अमृतकाल में त्योहारी मौसम में लोगों पर राहत का अमृत बरसना चाहिए था, ताकि वे उत्सव का
भरपूर आनंद ले सकें। लेकिन महंगाई से लगातार त्रस्त लोगों पर अब फिर से महंगाई का चाबुक
पड़ने वाला है। खुदरा मुद्रास्फीति सितम्बर माह में 7.41 प्रतिशत तक पहुंच गई, जो पांच महीने में
सबसे अधिक है। इससे पहले अगस्त में यह 7 प्रतिशत थी और तब सरकार ने दावा किया था कि
महंगाई को काबू में करने के तमाम उपाय किए जा रहे हैं। अब सरकार के दावों का सच तो वही
जाने, फिलहाल धरातल पर तो यही नजर आ रहा है कि भारत की जनता को इस बार भी त्योहारों
की खुशी में कटौती करनी पड़ेगी।
सरकार किस तरह से आर्थिक प्रबंधन कर रही है, इसका भी कोई ओर-छोर समझ नहीं आ रहा। एक
ओर हजारों-करोड़ों रूपए धार्मिक ढांचे खड़े करने में लगाए जा रहे हैं, जो आलीशान से अधिक
विलासितापूर्ण लगने लगे हैं। सरकार इन्हें विश्वस्तरीय कहती है, लेकिन जब लोगों के सामने भोजन
के लाले पड़े हों, तब इस तरह के खर्चों का क्या औचित्य यह विचार किया जाना चाहिए।
अखबारों और चैनलों में सरकार के बड़े-बड़े विज्ञापन विकास कर रहे भारत का आभास कराते हैं।
गहनों, गाड़ियों, और अन्य विलासी वस्तुओं के विज्ञापन इस आभास पर सच की मुहर लगाते दिखते
हैं। लेकिन यह केवल देश के दो-तीन प्रतिशत लोगों का सच है। शेष जनता का सच यह है कि हर
नए दिन की शुरुआत एक नए डर के साथ होती है कि आज किस मद में कितना खर्च बढ़ जाएगा।
दीपावली जैसे मौकों पर सामान्य दिनों से अधिक खर्च होता है, पहले इसके लिए जनता बचत कर
लेती थी। लेकिन अब बचत की गुंजाइश तो बेहद कम रह गई है, जरूरी खर्च भी पूरा करने में लोगों
के पसीने छूट रहे हैं।
अब खुदरा मुद्रास्फीति बढ़ने का मतलब यही है कि बाजार में चीजों के दाम फिर बढ़ जाएंगे। रिजर्व
बैंक ने 2026 तक खुदरा मुद्रास्फीति को 4 प्रतिशत रखने का लक्ष्य रखा था और इसमें 2 प्रतिशत
की गुंजाइश और जोड़ी गई थी, यानी हद से हद खुदरा मुद्रास्फीति 6 प्रतिशत रहे। लेकिन अगस्त में
यह 7 प्रतिशत तक रही और अब उससे भी .41 प्रतिशत अधिक होकर 7.41 हो गई है। इसका
असर अब विकास दर पर भी पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने पिछले दिनों 2022 में
भारत के आर्थिक विकास के अपने अनुमान को घटाकर 6.8 प्रतिशत कर दिया है।
इसने पहले जुलाई के पूर्वानुमानों में आईएमएफ ने इस विकास दर को 7.4 प्रतिशत रहने का
अनुमान लगाया था। पिछले हफ़्ते विश्व बैंक ने भी वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए भारतीय
अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को 6.5 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया था। ये सारे अनुमान हवा में
नहीं लगाए जा रहे, बाकायदा देश में उद्योगों का हाल, रोजगार की दशा, उत्पादन और विक्रय, बैंकों
से लिए जा रहे कर्ज और उन कर्जों का भुगतान, आयात-निर्यात के आंकड़ों आदि के अध्ययन के बाद
लगाए जा रहे हैं। जब इन तमाम क्षेत्रों में कोई बड़ा झोल दिखाई दे रहा होगा, तभी विकास दर के
अनुमान को घटाया जा रहा होगा। अब यह सरकार का विवेक है कि वह अर्थव्यवस्था को लेकर लग
रहे आरोपों को गलत साबित करने में अपनी शक्ति जाया करती है या फिर जो कमियां हैं, उन्हें
सुधारने के लिए कोई बड़े कदम उठाती है।
सरकार अब भी सचेत नहीं हुई, तो शायद आने वाले वक्त में गरीब जनता को कुछ और मुश्किल भरे
दिन देखने मिल सकते हैं। क्योंकि दुनिया में अब मंदी की आहट फिर सुनाई दे रही है। आईएमएफ
ने वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर चिंता जाहिर की है। साथ ही अर्थशास्त्री नूरील रूबिनी ने इस साल
भयावह आर्थिक मंदी की चेतावनी दी है। रूबिनी ने 2008 की मंदी को लेकर भी समय से पहले
आगाह किया था, लेकिन तब उनकी बातों को दुनिया ने गंभीरता से नहीं लिया और फिर इसका
खामियाजा सारी दुनिया ने भुगता। अब स्थिति पहले से अधिक चिंताजनक है।
कोरोना महामारी के दौरान दुनिया भर की अर्थव्यवस्था ठप्प हो गई थी और उससे संभल पाते इससे
पहले ही रूस-यूक्रेन युद्ध शुरु हो गया। इस वजह से अमेरिका, चीन, जर्मनी, इंग्लैंड, फ्रांस, इटली
जैसे तमाम विकसित देशों में अर्थव्यवस्था को जोरदार झटका लगा है। खाद्य एवं कृषि संगठन के
हालिया आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में इस साल अनाज की कीमतें 13.8 प्रतिशत बढ़ गई हैं। कई
अफ्रीकी देशों में भुखमरी का संकट आ गया है और लाखों बच्चों को भूख से होने वाली मौत से
बचाने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विकसित देशों से मदद की अपील की है। भारत को
अमेरिका और चीन दोनों देशों की गिरती अर्थव्यवस्था से नुकसान होगा, क्योंकि दोनों देश उसके बड़े
व्यापारिक साझेदार हैं। इसके अलावा रूपए की कीमत गिरने से भी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा,
क्योंकि इसका सीधा संबंध कच्चे तेल की कीमतों से है।
ये हालात बता रहे हैं कि आने वाला वक्त जनता के लिए और चुनौतीपूर्ण हो सकता है। सरकार अगर
महंगाई की समस्या को स्वीकार कर ले, तब भी समाधान की कोई उम्मीद रहेगी। लेकिन जब
सरकार मानेगी ही नहीं कि महंगाई है, या रूपए की कीमत गिरना कोई चिंता की बात है, तो फिर
समाधान के कदम क्यों उठाएगी। 2008 की मंदी तो भारत झेल गया था, क्योंकि तब डॉ. मनमोहन
सिंह के हाथों में देश की बागडोर थी, जो कम बोलते थे, लेकिन अपने विषय के ज्ञाता थे। 2008 से
2022 के बीच देश में सरकार से लेकर नोट और बैंकिंग व्यवस्था से लेकर कर प्रणाली तक बहुत
कुछ बदल गया है। ये बदलाव क्या देश की अर्थव्यवस्था को बचा पाएंगे, ये देखना होगा।