



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता)
हर रिश्ते में कुछ खट्टा तो कुछ मीठा होता है, मगर सास-बहू के रिश्ते की बात ही अलग है। यहां
तो खट्टे-मीठे के अलावा मिर्च-मसाला भी खूब होता है। जिस तरह सेहत के लिए हर स्वाद जरूरी है,
उसी तरह रिश्ते के इस कडवे-तीखे स्वाद के बिना भी जिंदगी बेमजा है।
यूनिवर्सिटी के काम से एकाएक मुझे मुजफ्फरपुर जाना पडा। मैं काम खत्म करके सीधे अपने बचपन
की सहेली निधि के घर जा पहुंची, जो वहीं अपने पति, बच्चों और सास के साथ रहती थी। बरसों
बाद मुझे यूं आया देख उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। वक्त की लंबी दौड में थोडी मोटी तो वह हुई
थी, मगर चेहरे पर वही मासूम हंसी बरकरार थी। मुझे खुशी के अतिरेक से थामे घर के अंदर ले
आई, जहां उसकी सास सुमित्रा देवी ने आत्मीयता से मेरा स्वागत किया। कुछ देर इधर-उधर की बातें
होती रहीं। फिर वह मुझे लिए हुए सीधे अपने कमरे में आई। मेरा बैग एक ओर रखते हुए बोली,
अच्छा हुआ जो ओम जी पंद्रह दिनों के लिए शहर से बाहर गए हैं। हम लोग यहां इत्मीनान से बातें
करेंगे। जा तू हाथ-मुंह धो ले, मैं चाय बनाती हू।
चाय के साथ बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। इतने दिनों बाद
मिल कर एक-दूसरे को सब कुछ बता देने के लिए हम बेसब्र थे। बातें एकाएक करियर के पॉइंट पर
आकर थमीं और निधि ने गहरी सांस भरते हुए कहा, अच्छा हुआ सुनंदा जो तू कॉलेज में पढाने
लगी। कम से कम स्तवंत्र तो है। नौकरी करने वाली लडकियों को घर, परिवार और समाज में भी
महत्व मिलता है। एक मैं कि हर समय घर-परिवार के लिए मरती-खपती रहती हूं, सबकी जरूरतों का
खयाल रखती हूं, फिर भी किसी को मेरी कद्र नहीं है। मुझसे काम लेना सब अपना अधिकार समझते
हैं, मगर मेरे प्रति किसी को भी अपना फज्र याद नहीं रहता।
तुम ऐसा क्यों सोचती हो निधि? मुझे देखो, घर-बाहर दोहरी जिम्मेदारियां निभाते-निभाते थक जाती
हूं। बैंक बैलेंस चाहे बढे, मगर सुख-चैन का अनुभव कभी नहीं होता। कोई आर्थिक मजबूरी नहीं है तो
नौकरी करना क्यों जरूरी है? पहले जब मैं करियर के लिए दौड रही थी, मेरी समझ में ये बातें नहीं
आईं, मगर अब समझ पा रही हूं।
मेरी बातों का यह अर्थ नहीं है सुनंदा कि मैं सिर्फ अपने लिए जीना चाहती हूं। अपनों के लिए जीने
में मुझे सुख मिलता है, फिर भी यह सब मैं इमोशनल फूल बनकर नहीं करना चाहती। मैं चाहती हूं
कि मेरे घर के लोग अधिकारों के साथ फज्र भी याद रखें। मेरे पति का ऐसा स्वभाव है कि वह बाहर
वालों से दो-चार लाइन बोल भी लेते हैं, मगर मेरे साथ तो सुबह से शाम तक साथ रहने के बावजूद
दो शब्द मुंह से नहीं निकालते। तरस जाती हूं इनसे बात करने के लिए। सुबह उठते ही अखबार से
चिपक जाते हैं। ऑफिस जाते समय तैयार होंगे, नाश्ता रख दूंगी तो खा लेंगे, वर्ना यूं ही चले जाएंगे।
न खाने की कभी तारीफ-न आलोचना। यूं ही लोग कहते हैं कि पति के दिल तक जाने का रास्ता पेट
से होकर जाता है। अब तुम ही बताओ कोई कैसे ऐसे आदमी के दिल तक जाने का रास्ता बनाए।
सभी कहते हैं, सीधा पति मिला है, सच कहूं तो सुन कर दिल जल-भुन जाता है। सीधे की तारीफ
करना अलग बात है, उसके साथ निभाना अलग। मैं तो अपने दिल की बात भी ओम जी के साथ
कभी शेयर नहीं कर पाई।
वो नहीं बोलते तो तुम बोला करो। देखना, धीरे-धीरे वह भी बोलने लगेंगे।
पंद्रह साल से कोशिश कर रही हूं, पर वही ढाक के तीन-पात। एक दिन मैंने इन्हें बहुत प्यार से
समझाया भी कि ऑफिस से आकर कुछ देर साथ बैठा कीजिए, बात कीजिए, मुझे अच्छा लगेगा।
अगले दिन ऑफिस से आते ही पूछने लगे, कैसी हो? सब ठीक है न!
मेरे तो तन-बदन में आग लग गई। जितना कम ओम बोलते हैं, उतना ही ज्यादा इनकी मां बोलती
हैं। मेरे हर काम में मीन-मेख निकालना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।
इधर हमारी बातें थमने का नाम ही नहीं ले रही थी, उधर उसकी सास मां थोडी-थोडी देर पर किसी
न किसी को पुकारती रहतीं। उनका यह व्यवहार मुझे कुछ अजीब-सा लग रहा था। शायद हम दोनों
बातों में इतने मशगूल थे कि वह अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रही थी।
ये क्या अम्मा जी, बार-बार बुलाए जा रही हैं, इतने दिनों बाद सनंदा आई है, कुछ देर तो चैन से
बातें कर लेने दीजिए।
बोलते हुए निधि उठी और सब्जी का टोकरा उनके पास रख आई। तत्काल उनका अरण्य रोदन
समाप्त हो गया। ये हुई न बात! बातें करने के लिए कौन मना कर रहा है बहू, जितना जी चाहे
उतनी बातें करो, पर कुछ खिलाने-पिलाने का इंतजाम भी तो करो।
आप मटर छील दें, मटर-पनीर बना दूंगी।
मटर की दाल बनाओ न, शुद्ध घी का छौंक लगा कर…., मटर छीलते हुए उसकी सास मां ने झट से
रेसिपी बदल दी।
मैंने भी सुमित्रा देवी का समर्थन कर दिया, जिससे उत्साहित होकर वह थोडी देर बाद रसोई में जाकर
खुद ही दाल बनाने लगी थीं। खाने की मेज पर सबके मुंह से दाल की तारीफ सुन कर खुशी से
उनका चेहरा दमकने लगा था।
कुछ ही देर पहले जब मैं आई थी, उन्हें कमला के साथ धीमे-धीमे बातें करते देख मुझे लगा कि
इतनी उम्रदराज होने के बावजूद बहू पर बडी निगरानी रखती हैं वह। जितनी देर मैं निधि से बातें
करती रही, कमला मेरे आसपास मंडराती रही थी। निधि उसे डांटते हुए बोली भी, स्पाई का काम
छोडो और जाके रसोई संभालो।
इस उम्र में बहू की गतिविधियों पर नजर रखने जैसी उनकी हरकत मुझे नागवार गुजर रही थी,
लेकिन सबके साथ खाना बनाने में शामिल होने के बाद उनके मन की कडवाहट जाने कहां घुल गई
और उनके होठों पर मासूम सी मुस्कराहट थी।
मगर निधि ने जिस सहजता के साथ अपनी वृद्ध सास को घरेलू कार्यों में शामिल कर लिया, वह
मुझे खटका। रात में निधि के साथ उसके कमरे में सोई तो बातों का सिलसिला फिर चल निकला।
निधि बार-बार मुझसे दो-चार दिन की छुट्टी लेने का इसरार कर रही थी, लेकिन सास-बहू के बीच
यह सांप-नेवले वाला अंदाज मुझे सहज नहीं रहने दे रहा था। निधि ने मेरे मन की बातें पढ ली थीं।
तू शायद हमारी नोक-झोंक से घबरा रही है, पर ये तो जीवन के मिर्च-मसाले हैं जो नीरस जीवन में
स्वाद भरते हैं। उसकी मात्रा ज्यादा हो तो गडबड होती है, जो मैं होने नहीं देती।
लेकिन मैं उस निधि को ढूंढ रही हूं जिसने कॉलेज में हमारे बुजुर्ग… विषय पर बोलते हुए उन्हें
जीवन-संध्या में आराम व सम्मान देने की बातें कह कर प्रथम पुरस्कार के साथ ही ढेर सारी वाहवाही
भी लूटी थी।
तो अब कहां इंकार कर रही हूं। आज भी मेरा मानना है कि बुजुर्ग घर की रौनक होते हैं। उनका
अनुभव कई बार हमें जीवन में सफलता के गुरुमंत्र दे जाता है। अनुभवों से मैंने यही सीखा है कि
उन्हें देवता बना कर उनके जीवन में इतनी मिठास मत घोलो कि उन्हें डायबिटीज हो जाए। कुछ
समझी कि नहीं? देखो, अति हर बात की बुरी होती है। बुजुर्गों को पूजने के बजाय उन्हें जीवन की
मुख्य धारा से जोडे रखना चाहिए, वर्ना ज्िाम्मेदारियों से अलग होते ही मोक्ष के लालच में वे
धार्मिक कर्मकांडों में इतना उलझ जाते हैं कि घर-परिवार से कटने लगते हैं और यह बात उन्हें
अकेला करने लगती है। उन्हें अनुपयोगी मान कर कई बार बच्चे ही उन्हें ऐसा जीवन अपनाने के
लिए मजबूर कर देते हैं। वे समझ ही नहीं पाते कि बुजुर्गों को भी अपने जीवन की सार्थकता अपने
बच्चों के दुख-सुख से जुड कर ही होती है।
तुम्हीं सोचो, जिसने बरसों तक घर का मुखिया बन कर उसे संभाला हो, जिसकी ईंट-ईंट से उसका
अस्तित्व जुडा रहा हो, जिसने कभी बच्चों का भविष्य सुधारने के लिए अपनी हर खुशी दांव पर लगा
दी हो, वृद्धावस्था में उन्हीं के छोटे-छोटे काम करने के मौके भला वे कैसे चूकना चाहेंगे। उन्हें सेवा-
मुक्त करना समस्या को और बढा देगा। सांसारिक संबंधों से विरक्त होकर कोई कैसे खुश हो सकता
है।
अपने बेटे की शादी कर मां कभी न कभी बहू से यह जरूर करती है कि संभालो अपनी गृहस्थी, अब
यह तुम्हारे हवाले। अब तो मैं पूजा-पाठ कर परलोक सुधारूं। बहू चाहे जितनी मेहनत से घर संवार
ले, सामंजस्य बिठा ले, मगर सास हमेशा आलोचक की दृष्टि से उसे देखती है। उम्र के इस दौर में
शारीरिक तौर पर अशक्त होने पर बहू से काम करवाना भी जरूरी होता है, मगर बहू घर की मुखिया
बने, यह सास को नहीं सुहाता। यह टकराव का मुख्य बिंदु होता है।
निधि लगातार बोल रही थी, जरा सोचो, बहू अपनी सास को घर के राग-विराग से अलग कर पूजा-
पाठ में ही लगे रहने पर मजबूर कर दे तो सास मानसिक अवसाद से घिर कर जल्दी ही दुनिया को
अलविदा कह देगी। क्योंकि बहू को मात देने की अभिलाषा ही सास की जिजीविषा होती है। इसलिए
मैं अपनी सास को जानबूझ कर कुछ काम सौंपती हूं, ताकि वह सक्रिय और उत्पादक जीवन बिता
सकें और धर्म-कर्म और मिथ्या ढकोसलों से दूर रहें। और सुनो, जब भी मेरा बेटा हॉस्टल से घर
आता है, अपना सबसे ज्यादा समय दादी मां के साथ गुजारता है। वह उसके साथ लूडो खेलती हैं,
उसके बालों में तेल लगाती हैं और खुश रहती हैं। जबकि मेरी गलतियों की फेहरिस्त बनाती रहती हैं,
ताकि बेटे को एहसास दिला सकें कि उनकी बहू उनसे कमतर है। कई बार तो खाने की मेज पर
इतना बुरा मुंह बनाती हैं कि पति मुझे शिकायती अंदाज में देखने लगते हैं, मानो खाने में मिर्च
काफी डाल दी हो। दरअसल ऐसा वह बेटे का प्यार व सहानुभूति पाने के लिए करती हैं। हालांकि
कभी-कभी मेरा धैर्य चुक जाता है और उन्हें जवाब दे देती हूं।
कुछ देर रुक कर निधि हंसते हुए बोली, जानती हो, कई बार तो सास यहां तक बोल देती हैं कि मैंने
उन्हें कुछ कहा तो मीडिया में मेरी शिकायत कर देंगी। वह दिल की बुरी नहीं हैं, मगर गुस्से वाली
हैं। कल्पना करो सुनंदा कि कल यदि सचमुच मेरी सास की शिकायत पर कोई चैनल वाले सास-बहू
टाइप स्टोरी करने मेरे घर आ धमकें तो क्या होगा? दिन भर मेरी खबर चलती रहेगी और लोग
कहेंगे, देखिए जरा, कितनी बुरी बहू है, सास का जीना हराम कर दिया है।
निधि की बेतुकी सी कल्पना पर हम दोनों ही हंस पडे थे। निधि फिर बोली, सुनंदा, जिंदगी में हम
हर रिश्ते को अपने अनुकूल तो चुन नहीं सकते। जो मिलता है उसे अपने अनुकूल बनाने के लिए
कोशिश करनी ही पडती है, ताकि घर में हर सदस्य के जीवन की थोडी खुशियां बची रहें। यह भी
ठीक नहीं है कि बुजुर्गों की बेतुकी व अतार्किक बातों को माना जाए और केवल उनका अहं तुष्ट करने
के लिए बहू की जिंदगी बर्बाद की जाए। मैं घर की शांति के लिए हरसंभव उपाय करती हूं। सास को
भी काम में मसरूफ रखती हूं। खाली दिमाग शैतान का घर जो होता है।
निधि के इस लंबे आख्यान के बाद मुझे महसूस होने लगा कि तमाम मत-विरोध के बावजूद इस
सास-बहू में गहरा स्नेह-भाव भी है। निधि ने मुझसे कहा, जानती हो सुनंदा, मेरी सास मेरे साथ
रहना चाहती हैं। एक बार मेरे देवर इन्हें साथ ले जाने आए तो शर्त रख दी कि एक हफ्ते में वापस
लौट आएंगी। देवर बोले भी कि यहां भाभी तुम्हें हरदम काम पकडाती हैं, जबकि मेरे घर पर एक
ग्लास पानी भी नहीं लेना पडता, फिर जाने से क्यों मना करती हो? इस पर सास बोलीं, अरे ये तुम
क्या कह रहे हो अंजनी? आज भी मुझे ओम से ज्यादा निधि पर भरोसा है। जो अपनापन मुझे निधि
से मिला है, वह तो अपनी बेटी से भी नहीं मिला। उसके कामों में हाथ बंटा कर मुझे खुशी मिलती है
कि मैं भी अपने बच्चों के लिए कुछ कर पा रही हूं। तुम्हारी नजरों में निधि चाहे जैसी हो, पर उसके
हर फैसले में मैं शामिल रहती हूं, जिससे मुझे लगता है कि मेरा भी वजूद है और मैं भी इस परिवार
का हिस्सा हूं, जिसे मेरी सलाह की जरूरत है।
इतनी लंबी बातचीत के बाद निधि थक कर सो गई, मगर मेरे दिमाग में संबंधों का यह ताना-बाना
चलता रहा। बदलते समय के साथ जीने के तरीके और रिश्ते भी बदल जाते हैं। निधि अपनी नई
सोच के साथ रिश्तों की डोर को मजबूती से थामे नई चुनौतियों का सामना कर रही थी। सास-ससुर
को देवता समान पूजने की धारणा से अलग वह उन्हें रोजमर्रा के कामों से जोडे रखने में यकीन
करती है। इससे सास को उपयोगी होने का एहसास होता है। यहां मीठी नोक-झोंक के साथ सास-बहू
का सहज रिश्ता दिखता है, जो उन परिवारों से लाख गुना बेहतर है, जहां बुजुर्गों को सम्मान देने का
दिखावा करके लोग उन्हें अकेला कर बैठते हैं। सास की बेवजह झिडकियां और बहू से उनका हलका-
फुलका टकराव तो जीवन के मिर्च-मसाले जैसा है, जो संबंधों में स्वाद भर कर उन्हें मजबूत बनाते
हैं।
…मैंने दूसरे दिन ही निधि के घर चार दिन तक रुकने का कार्यक्रम बना लिया था।
कविता
ऐसा होता तो कृष्ण भी न रोता….
-कृष्ण कुमार मिश्र कृष्ण-
तुम मिली तो लगा
खुद से रूबरू हुआ हूं।
तुम बोली तो लगा
अपने ही अल्फाजों से बावस्ता हुआ हूं
तुम्हारे हर अंदाज में कुछ मेरा
कुछ खोया सा वापस मिला है
वैसे तो ये एहसास है
बड़े नाकिश है
कुछ भी बुन लेते है
दिमागों की डलिया में दिल की धुनक से!
दर्द के कटोरे में प्रेम की डली से
मिठास कायम रखते हुए
ये एहसास…
खारे पानी की बूंदों को ढुलका देते है
जमीनों पर
ये बूंदे अंकुरित नहीं कर सकती बीज
हां विध्वंश अवश्य कर सकती है
अंकुरित होती नवीनता को
अपनी क्षारीयता से?
एहसास तो एहसास है
टिकना इनकी सिफत कहां?
कभी चेहरों को खिलाते
कभी मायूस कर देते
हर पल खेलते है ये
हर परिस्थिति में
बिना ठहरे हुए
मानव वृत्तियों को
उकेरते चेहरों की किताबों पर
बहुत कुछ लिखते
और मिटा देते
एक पल में
इस अस्थिरता को बांध सका है
कोइ?
एहसासों की लगाम कस सका है कोइ?
काश ऐसा होता
मन स्थिर हो जाता
दिमाग चलता अपनी गणित के नियमो से
वेग उद्वेग क्रोध आक्रोश
उत्कंठा प्रेम अधीरता और लालसाएं
खत्म हो जाती
फिर कुछ भी न हर पल लिखा जाता
न मिटाया
चेहरों के पन्ने कोरे होते…
एहसास बड़े नाकिश है….
ये सच है
नहीं बख्सते किसी को
ऐसा होता तो कृष्ण भी न रोता
गांधारी के आगे
उस श्राप के परिणाम के एहसास से
मन को गिरफ्त में करने वाला
मन की उपज को नहीं कर सका नष्ट
वृत्ति तो वृत्ति है
आदमी नहीं रोक सकता इसे
वेद से
शास्त्रों से
योग से
कदापि नहीं।।