



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )
हमारे देश में महिलाओं को काम के बदले में पुरुषों के बराबर पैसे न मिलना महिला अधिकारों का
हनन है। इसके बारे में कभी भी सामाजिक ताकतों ने आवाज़ ऊंचे तरीके से नहीं उठाई। हाल ही में
ऑक्सफैम की गैर-बराबरी पर रिपोर्ट (ऑक्सफैम्स इंडिया डिसक्रिमिनेशन रिपोर्ट-2022) आई है जो
श्रम बाजार में महिलाओं की गैर-बराबरी के बारे में बात कर रही है महिलाओं के इससे जुड़े दर्द की
विवेचना जरूरी है। देश में शिक्षा स्तर में बढ़ोतरी और प्रजनन दर (फर्टिलिटी रेट) में गिरावट के साथ
यह अपेक्षित था कि महिलाओं की भारत में श्रम शक्ति में हिस्सेदारी बढ़ेगी। पर भारत में ऐसा नहीं
हुआ है। मुख्य कारण उनको वाजिब मेहनताना न मिल पाना है। सर्वविदित है कि महिलाएं भारत में
घर के अंदर के बहुत सारे काम करती हैं जिसके लिए उनको अक्सर कोई मान्यता नहीं मिलती है।
पितृसत्तात्मक समाज होने के कारण घर के अंदर होने वाले ज्यादातर कामों में पुरुषों की कोई
हिस्सेदारी नहीं होती है। आंकड़ों के हिसाब से 2014 में भारत में महिलाएं पुरुषों की तुलना में 10
गुना ज्यादा समय घर के अंदर होने वाली अवैतनिक सेवा या देखभाल के कार्य में देती थी।
आज देश की महिला अनेक प्रकार के अनावश्यक बोझ से परेशान है। खाना बनाने, कपड़े धोने, बच्चों
को स्कूल के लिए तैयार करने, बर्तन मांजने, घर की साफ-सफाई करने, पानी भरने, छोटे बच्चों और
बूढ़ों की देख-रेख करने, कोई घर में बीमार हो तो उसकी देखभाल करने और अनेक छोटे-बड़े ऐसे घर
के अंदर होने वाले काम हैं जो महिलाओं को अक्सर अनिवार्य रूप से करने होते हैं। महिलाओं का
मन कर रहा हो या नहीं, वो थकी हुई हो या नहीं, उनके पास समय हो या नहीं, फिर भी वो
अनवरत यह सब काम करती रहती है। सामाजिक नियम, कायदे-कानून, रीति-रिवाज और सामाजिक
प्रतिमान इतने स्थायी और कठोर हैं हमारे देश में कि इस पर कोई सवाल नहीं उठाता। कई बार
महिलाएं खुद भी नहीं। घर के अंदर के कामों की जिम्मेदारी उनके कंधों पर होने के कारण उनका
बाहर का काम कई तरह की बंदिशों और समझौतों का शिकार हो जाता है। वो ऐसे काम ढूंढती है
जिसमें काम के घंटे लचीले हों, जो घर के पास हो (जिसमें ज्यादा यात्रा न करनी पड़े), जो
अंशकालिक हों, पूर्णकालिक नहीं।
इसके साथ ही हमारे देश में महिलाएं अपनी सुरक्षा को लेकर भी चिंतित रहती हैं और अक्सर उन्हें
अपनी हिफाजत को ध्यान में रखकर नौकरी या काम ढूंढना पड़ता है। काम की जगह पर होने वाली
छेडख़ानी और उत्पीडऩ भी कई बार उनके लिए बाहर काम करना काफी मुश्किल कर देता है। हालांकि
घर के अंदर भी अक्सर वो अलग-अलग तरह के उत्पीडऩ और घरेलू हिंसा का सामना करती है। घर
में छोटे बच्चे हों तो उनकी अनुपस्थिति में बच्चों की देखभाल कौन करेगा, यह सवाल हमेशा खड़ा हो
जाता है। घर में यदि कोई और हो बच्चों की देखभाल करने वाला, बड़े बच्चे, सास-ननद या कोई
रिश्तेदार, पड़ोसी या सहेली, तो वो बच्चों को उनके भरोसे छोड़ कर काम पर जा पाती हैं। ग्रामीण
इलाकों में तो सस्ती और विश्वसनीय क्रेच सुविधाएं ज्यादातर महिलाओं को उपलब्ध नहीं हैं। एक
निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि जिस तरह के काम वो चाहती हैं वो उपलब्ध नहीं हैं या हम
उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। महिलाओं को अक्सर पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी या वेतन मिलता
है, जिसको हम वेतन में अंतर (वेज गैप) बोलते हैं।
इसके कई आयाम हैं। जिस तरह के काम महिलाओं को उपलब्ध होते हैं वो कई बार उन क्षेत्रों में होते
हैं जहां उत्पादनशीलता (प्रोडक्टिविटी) कम है और उससे जुड़ी हुई मजदूरी/वेतन भी कम है। दूसरी
तरफ जब पुरुष और महिलाएं दोनों एक ही क्षेत्र या व्यवसाय में काम करते हैं, तब काम का
विभाजन अक्सर इस तरह से होता है कि महिलाओं को कम मजदूरी/वेतन वाले काम सौंपे जाते हैं।
तीसरा, जब दोनों एक ही तरह का काम करते हैं, तब महिलाओं को कम मजदूरी या वेतन दिया
जाता है पुरुषों की तुलना में, सिर्फ इसलिए क्योंकि वो महिलाएं हैं। ऐसा क्यों है, क्या यह लैंगिक
भेदभाव में नहीं आता है? दूसरी ओर महिलाएं खुद काम कम ढूंढ रही हैं क्योंकि सामाजिक प्रतिमान
ऐसे हैं जो उनके बाहर काम करने को हतोत्साहित करते हैं। उनके मनमाफिक काम उपलब्ध नहीं हैं
और उनको घर के अंदर की बहुत सारी जिम्मेदारियों को पूरा करना पड़ता है। याद रहे कि समय एक
बहुत ही महत्त्वपूर्ण, पर चर्चा में कम आने वाला व्यक्तिगत संसाधन है।
हम अपना समय किस काम में लगाते हैं, उससे कितनी वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन होता है और
कितनी आय बनती है, उसके आधार पर व्यक्तिगत और पारिवारिक आमदनी का निर्धारण होता है।
हालांकि वास्तव में ज्यादातर लोगों को उनके काम में लगाए गए समय के हिसाब से मेहनताना नहीं
मिलता। ऑफिस में बैठकर काम करने वालों को जरूरत से ज्यादा और गर्मी और धूप में गहन श्रम
(लेबर इंटेनसिव वर्क) करने वालों को उनके काम में लगाए गए समय की तुलना में बहुत कम
मूल्य/पैसा मिलता है। वेतन या मेहनताने के निर्धारण में और तरह की गैर-बराबरियां भी शामिल हैं।
हमारे देश में जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव होता है और यह भेदभाव वेतन/मेहनताना तय
करते समय भी सामने आता है। यह संभव है कि दलित, आदिवासी या अल्पसंख्यक समूहों से आने
वाली महिलाएं श्रम बाजार में दोहरे भेदभाव का शिकार होती हों। एक महिला होने के कारण और
दूसरा उनकी जाति या धर्म के आधार पर। क्या यह सच है कि नहीं, इसकी पड़ताल होनी चाहिए।
महिलाओं के दर्द के अनेक पहलू हैं।
हम सब दिन के 24 घंटे में से कुछ खाली समय चाहते हैं जिसे हम मनोरंजन, परिवार या बच्चों के
साथ, दोस्तों या सहेलियों के साथ, त्योहारों में या घूमने-फिरने में खर्च कर सकें, यानी वो चीजें करते
हुए जिनसे हमें आनंद मिलता हो। ग्रामीण महिलाओं को हर दिन का कुछ समय अपने लिए, अपने
मनोरंजन या आराम के लिए, वास्तव में मिलता हो, यह संदेह का विषय है। यदि शादीशुदा महिला है
तो उसके पति, सास-ससुर आदि की रजामंदी के साथ ही वो बाहर काम करती है। यदि शादीशुदा नहीं
है तो पिता या भाई की मर्जी चलती है। कई अध्ययनों के माध्यम से यह पता चलता है कि
महिलाओं की घर के अंदर सौदेबाजी की शक्ति (बारगेनिंग पावर) उनके घर से बाहर काम करने के
फैसले में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह शक्ति उनकी शिक्षा, संपत्ति और अपनी आय पर
खुद के नियंत्रण पर निर्भर करती है। इन महिलाओं ने अपने घरों की जिम्मेदारी (घर के काम और
बाहर रोजगार करके) अपने कंधों पर ले रखी है। घर से बाहर निकलकर काम करने से उनका
आत्मविश्वास बढ़ा है। लोगों से मुलाकातें और बातचीत बढ़ी है। पर साथ ही साथ अक्सर एक मजबूरी
का भाव, एक सफाई, बाहर काम करने की वजह और व्याख्या भी जुड़ी रहती है। वो काम कर रही है
क्योंकि एक व्यक्ति की आमदनी से काम नहीं चलता, पति काम नहीं करता या घर में पैसा नहीं
देता। ऐसे हालात के चलते हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी कामकाजी महिला को
लैंगिक भेदभाव के चलते पुरुष से कम श्रम मूल्य न मिले। यदि अपने आसपास हो रहे इस तरह के
महिला शोषण को हम नजऱअंदाज कर रहे हैं, तो हम भी इस महिला शोषण का हिस्सा हैं। बेहतर हो
कि राजनीतिक और सामाजिक ताकतें अपने एजेंडे पर इसको प्राथमिकता से लें, तो महिलाओं से हो
रही गैर बराबरी कुछ कम हो सकेगी।