स्वार्थ के संगीत में दबे विनाश की सुनामी के संकेत

Advertisement

Tsunami- The Killer Wave | सुनामी- एक विनाशकारी तरंग | Disaster Management  | आपदा प्रबंधन | Class IX - YouTube

विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )

देश में चुनावी बयार तेज होते ही मतदाताओं को लुभाने के राजनैतिक प्रयासों की बाढ आ जाती है।
सत्ता सुख की खातिर लुभावनी वायदों की झडियां लग जातीं हैं। आय-व्यय के लेखा-जोखा पर नजर
डाले बिना मुफ्तखोरी की घोषणायें आसमान छूने लगतीं हैं। तुष्टीकरण की नीतियां चरम सीमा की
ओर बढने लगतीं हैं। जातिगत आधारों से लेकर सम्प्रदायगत मुद्दों तक को हवा देने का क्रम तूफान
बनकर खडा हो जाता है। क्षेत्रीय दलों से लेकर विभिन्न संगठनों तक को साधने की कोशिशें होने
लगतीं हैं। पार्टी का जनाधार मजबूत करने के लिए सब्जबाग दिखाने की प्रतिस्पर्धा खुलेआम होने
लगती है। दलगत घोषणा पत्रों से लेकर व्यक्तिगत आश्वासनों के मध्य चुनावी हलचल होते ही
छुटभइये नेताओं की बाढ सी आ जाती है। उम्रदराज खद्दरधारी अपने अतीत की दुहाई पर मूछों का
ताव बढाते हैं तो आधारविहीन स्वयंभू नेता आंकडों की बानगी लेकर राजनैतिक दलों के दफ्तरों में
चक्कर लगाने लगते हैं। संभावित उम्मीदवारों के आवासों पर उनके नजदीकी बनने वाले दिखावटी
शुभचिन्तकों की भीड बढने लगती है। झोली खुलते ही लूट मचाने वाले कथित समर्थक एक साथ
अनेक झंडों में डंडा लगने की जुगाड बैठाने लगते हैं। चुनावी रंग में गुजरात को रंगने की पहल आम
आदमी पार्टी ने कभी की शुरू कर दी थी। पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल तो सस्ती लोकप्रियता
हासिल करने के लिए आटो चालक के संग गलबहियां तक करते नजर आ चुके हैं। राज्य की पुलिस
को कोसते रहे हैं। सुरक्षा के मापदण्डों की स्वयं ही धज्जियां उडाते हैं। उनके इस कृत्य पर अनेक पूर्व
अधिकारियों ने शिकायतें भी दर्ज कराईं थीं मगर इन शिकायतों का असर राजनैतिक दलों पर न कभी
पडा है और शायद कभी पडेगा भी नहीं। दिल्ली को माडल और पंजाब को उपलब्धियों का आगाज
बताने वाली पार्टी शासित राज्यों में आय से अधिक खर्च की स्थिति स्वयं उसकी दूरदर्शितता को
उजागर करती है। मुफ्तखोरी में स्टेट टैक्स को उडाकर विकास के लिए केन्द्र के आगे कटोरा लेने
वाले दल स्वयं के बजट को हमेशा ही घाटे में रखने की परम्परा का अनुपालन करते चले आ रहे हैं।
देश में शायद ही कभी किसी राज्य ने स्वयं के बजट पर विकास के कीर्तिमान गढे हों, अपने राज्य
के निवासियों के लिए राज्य की आय से सुविधाओं का पिटारा खोला हो, विकास की परियोजनाओं को
उडान देने के प्रयास किये हो। घाटे का बजट, परियोजनाओं पर निर्धारित धनराशि से अधिक का
खर्च, तकनीकी परेशानियों की बिना पर समय सीमा को धता बताने का पुराना अंदाज, अफसरशाही से
लेकर बाबूगिरी तक की अडंगेबाजी की आदतें आदि निरंतर जारी हैं। सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों
के हितों पर सुरक्षा चक्र स्थापित करने की निरंतर हो रही कोशिशों से समाज में एक खाई पैदा हो
गई है। सरकारी महकमों में काम करने वालों और निजी क्षेत्रों में नौकरी करने वालों में खासा अंतर
है। व्यवसायिक या व्यापारिक संस्थानों में काम करने वाले निरंतर असुरक्षा के शिकार रहते हैं।
दुकानों, मकानों, धंधों में लगे लोगों हमेशा ही आने वाले कल की चिन्ता सताती रहती है। उन्हें अगले
दिन नौकरी पर बहाली मिलेगी भी या नही, अगले दिन दिहाडी मिलेगी भी या नहीं, बुढापे की कौन
कहे वर्तमान की समस्याओं का अम्बार ही निपट जाये, वही बहुत है। दूसरी ओर सरकारी सेवकों के
खातों में निविध्न रूप से महीने की आखिरी तारीख तक निरंतर बढते रहने वाला वेतन पहुंचता रहता
है। अवकाश की सुविधाओं से लेकर चिकित्सा सहित अनेक लाभ देने की निरंतर घोषणायें होती रहतीं

Advertisement

हैं। मंहगाई भत्ता से लेकर पेन्शन तक में होने वाली बढोत्तरी से देश के खजाने पर अतिरिक्त भार
पडता है परन्तु सत्ताधारी सरकारें सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों को नाराज नहीं कर सकतीं।
सरकारी सेवकों को पेन्शन तो दी ही जाती है उनकी पत्नी, आश्रितों तक को जिन्दगी भर पेन्शन देने
का प्राविधान है। यही हालात एक बार जनप्रतिनिधि का पद मिलने के बाद खद्दरधारियों का भी हो
जाता है। सरकारी सेवकों को हर हाल में खुश रखने के लिए सत्ताधारी दल मजबूर होता है अन्यथा
सत्ताधारी दल के विरुध्द संगठित रूप से कुप्रचार करके वातावरण निर्मित करने में देता है जिसके
फलस्वरूप जगह-जगह घेराव, प्रदर्शन और आंदोलन खडे हो जाते हैं जिसका सीधा लाभ विपक्ष को
मिल जाता है। वहीं कानून दांवपेंचों के माहिर अधिकारी जहां दलगत नेताओं को अतिरिक्त लाभ
कमाने के हुनर बताते हैं वहीं कर्मचारी मध्यस्थ बनकर नेताओं के खास की श्रेणी प्राप्त करते हैं। इस
तरह के अधिकारियों-कर्मचारियों की संख्या मेें निरंतर बढोत्तरी होती जा रही है। इन कामचोर सरकारी
सेवकों को नौकरी से निकालने की सोच को लोहे के चने चबाने की कहावत को चरितार्थ करने जैसा
माना जाता है। क्यों कि सेवाओं से हटाने का फरमान न्यायालय के रास्ते से तार-तार करने की
व्यवस्था हमारे संविधान में पहले से ही की गई है। वास्तविकता तो यह है कि संविदाकर्मियों और
दैनिक वेतनभोगियों के मजबूरी भरे कंधों पर ही काम का बोझ लादने वाले अधिकांश स्थाई कर्मचारी-
अधिकारी अपने संगठनों की दम पर केवल और केवल मौज करने, अतिरिक्त लाभ कमाने,
व्यक्तिगत संबंधियों को लाभ दिलाने के लिए ही प्रयासरत रहते हैं। उनके सभी दायित्वों की पूर्ति के
लिए अस्थाई रूप से नियुक्त किये गये लोगों की फौज खडी कर दी गई है जिन्हें नौकरी से निकाल
देने की धमकी देकर सरकारी स्थाई सेवक अपने पौ बारह करते हैं। यही मौज-मस्ती वाला तंत्र ही
राजनैतिक दलों के लिए सत्ता हासिल करने का साधन बनता है। जातिगत दुहाई से लेकर साम्प्रदायिक
एकरूपता के नारे बुलंद किये जाते हैं। क्षेत्रवाद से लेकर भाषावाद तक के हथकण्डों को हवा दी जाती
है। मुफ्तखोरी से लेकर सुविधाओं तक की मृगमारीचिका के पीछे दौडने वाले लोगों को निरंतर बढ रही
मंहगाई, बेरोजगारी, बेकारी और आर्थिक संकट का डर दिखाकर समर्थक बनाने में लगी पार्टियां
वास्तव में नागरिकों के साथ छल कर रहीं हैं। आम आवाम ने सार्वजनिक रूप से आजतक किसी भी
राजनैतिक दल से यह नहीं पूछा कि मुफ्त में बिजली, मुफ्त में पानी, मुफ्त में शिक्षा, मुफ्त में
चिकित्सा, मुफ्त में तीर्थ यात्रा, मुफ्त में राशन, मुफ्त में यात्रा, मुफ्त में सामग्री आदि कहां से दी जा
रही है। यह सब क्या दूसरे देशों से डाका डालकर लाया जा रहा है या फिर आसमान से पैसे पाने का
कोई उपाय सरकारों ने इजाद कर लिया है। ईमानदाराना बात तो यह कि एक सामान्य परिवार के
जीवकोपार्जन हेतु न्यूनतम 5 हजार रुपये की धनराशि पर्याप्त होती है जिसमें उसकी सभी आवश्यक
जरूरतें पूरी हो सकतीं हैं। सरकारी स्कूलों में जब पढाई मुफ्त है, सरकारी अस्पतालों में जब चिकित्सा
मुफ्त है तो फिर केवल एक बत्ती कनेक्शन की बिजली, पांच बाल्टी पानी और राशन पर होने वाला
खर्च उपरोक्त धनराशि में केवल पूरा ही नहीं होगा बल्कि कुछ न कुछ बचत भी हो सकेगी, परन्तु
इसमें एसी, फ्रिज, वातानुकूलित कार, पब्लिक स्कूल, लोकलुभावन स्थानों की आउटिंग, महंगे होटलों
के ऐश पर होने वाली फिजूलखर्ची नहीं हो सकती। इसी फिजूलखर्ची के आदी हो चुके सरकारी सेवकों,
खद्दरधारियों और प्रभावशाली लोगों के कारण ही देश में महंगाई की सुनामी निरीह लोगों को लील
रही है। बाजार में बिकने वाला 15 रुपये किलो का आलू जब वातानुकूलित कार में बैठकर 25 रुपये
किलो खरीदा जायेगा तो फिर गरीब की थाली से सब्जियां तो गायब होंगीं ही। आखिर वेतन
विसंगतियों पर लगाम लगाने से ईमानदार अफसरशाही क्यों डर रही है, सत्ताधारी दलों के हौसले पस्त

क्यों हो रहे हैं। इस तरह के प्रश्नों के उत्तर केवल एक ही है कि भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे लोगों का
संख्या बल इतना बढ चुका है कि उसे कर्तव्यनिष्ठा का पाठ पढाने का साहस करना, आत्महत्या के
प्रयास जैसा ही होता जा रहा है। जहां राजनैतिक दल देश को निजी स्वार्थों की बलवेदी पर शहीद कर
रहे हैं वहीं अफसरशाही अपने परिवारजनों तथा सहकर्मियों के हितों की रक्षा तक ही सीमित होकर रह
गई है। ऐसे में स्वार्थ के संगीत में दबे विनाश की सुनामी के संकेतों को समझना पडेगा और ढूंढना
होगा सिर से ऊपर होते पानी का समाधान। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के
साथ फिर मुलाकात होगी।

Leave a Comment