



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )
प्रवृत्ति मन का रूझान है। प्रवत्ति मनोविज्ञान का सुपरिचित शब्द है। सामान्यतः इसका अर्थ होता है-
रूझान, झुकाव, टैन्डैन्सी। यदि मन में झांके तो हम में से प्रत्येक को अनुभव होगा कि कुछ विशेष कार्यों
को करने, किन्हीं विशेष पदार्थों को पाने, उपभोग करने की ओर उसका भीतर से झुकाव है। जब भी
उपयुक्त अवसर उसे मिलता है, वह अपने इसी जमे ढंग से बोलता और व्यवहार करता है। इसे ही प्रवत्ति
कहते हैं।
नियमित अभ्यास जरूरी:- यह रूझान बार-बार के अभ्यास से ही बन पाता है। किसी कार्य को पहली बार
करने पर तो विशेष प्रयास ही करना पड़ता है। कभी मन का भी बल लगाना पड़ता है, तो कभी मन से
लड़ना पड़ता है। पहली बार पीने वाले को शराब कड़वी लगती है, सिगरेट दाह उत्पन्न करती है। नये
उपासक का मन उचटता ही रहता है। सेवा-साधना में जिसने अभी-अभी प्रवेश किया है, उसे यह लोक
मंगलकारी कार्य, व्यर्थ का जंजाल लगता है।
पहली बार से ही किसी कार्य या पदार्थ के प्रति रूझान प्रायः नहीं हो पाता, किंतु यदि मन मनाते हुए या
जरूरी होने पर उससे लड़ते हुए नियमित अभ्यास जारी रखा जाए तो अगली बार में अरुचि क्रमशः कम
होती जाती है और उस कार्य का पदार्थ के प्रति वृत्ति का निर्माण आरंभ हो जाता है। अभ्यास जारी रखने
पर शराब की कड़वाहट भी अच्छी लगने लगती है, सेवा-साधना में भी रस आने लगता है।
जैसे-जैसे इस वृत्ति का विकास होता है, रूझान का भी क्रमशः बढ़ना आरंभ हो जाता है और अंततः
रूझान परिपक्व हो जाता है। अब तो याद आते ही अथवा सामने आते ही उस कार्य को पुनः करने, उस
पदार्थ को पुनः पाने की उमंग व उत्तेजना होने लगती है। शराब की याद आते ही, या उपासना का समय
होते ही मन उमगने लगता है। किसी कार्य विशेष अथवा पदार्थ विशेष के प्रति यह जो बार-बार मन में
उठने वाली उमंग और आवेश भर तरंग है, उसे मनोविज्ञान ने प्रवत्ति नाम दिया है।
व्यक्ति की प्रवृत्ति स्वयं उसके लिये अथवा अन्य व्यक्तियों के लिये हितकारी भी हो सकती है और अहित
भी। यह दो शब्द व्यापक अर्थ वाले हैं। केवल उस व्यक्ति का ही हित हो रहा हो तो उसे स्वार्थ सिध्दि
कहना अधिक उपयुक्त होगा। चोरी करके धन प्राप्त करना एक चोर को तो लाभकारी है, किंतु अन्य
व्यक्तियों को हानि पहुंचाता है और समाज में भय व असुरक्षा का वातावरण उत्पन्न करता है। इसलिए
चोर-वृत्ति अहितकारी है।
प्रवृत्ति का महत्व:- अपना स्वार्थ साधने के लिये दूसरों को धोखा देने, हानि पहुंचाने, झूठ बोलने आदि की
प्रवृत्तियां इसी श्रेणी में आती हैं किन्तु व्यक्ति की वह प्रवृत्ति जो न केवल उस व्यक्ति के लिये वरन
व्यापक जन समाज के लिये सुख, शांति व प्रगति लाती है, निश्चय ही हितकारी प्रवृत्ति है। ईमानदारी
बरतने, दूसरों की सहायता करने, सच बोलने जैसी हितकारी प्रवृत्तियां व्यक्ति को तनाव-तृष्णा से मुक्ति
तथा प्रतिष्ठा तो दिलाती ही हैं, सामाजिक संगठन एवं सामाजिक सुरक्षा को भी मजबूत करती हैं और
सुसंस्कृत समाज की रचना में सहायक होती हैं। हितकारी और अहितकारी दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों वाले
व्यक्ति प्रत्येक समाज में पाए जाते हैं।
किस व्यक्ति में हितकारी प्रवृत्ति का विकास होगा, किस में अहितकारी प्रवृत्ति का, यह मुख्यतः इस तथ्य
पर निर्भर करता है कि उसने कैसी परिस्थिति और किसी मनःस्थिति में कैसी संगति और कैसे वातावरण
में जीवन, विशेषतः बपचन जिया है। प्रवृत्तियों का बनना और टूटना तो जीवन भर चलता रहता है, किंतु
बचपन का अपना महत्व है। बचपन में बनी प्रवृत्तियां प्रायः स्थायी होती हैं और वयस्क जीवन की दिशा
को इस या उस ओर मोड़ देने की सामर्थ्य रखती है।
जैसे संगति और वातावरण में व्यक्ति अपने को रखता है, वैसे ही अभ्यासों को करने के अवसर उसे
मिलते भी रहते हैं। एक ही प्रकार के अभ्यासों की रगड़ उसके मानस पर, सोचने-विचारने-प्रतिािया करने
के ढंग पर अपने अनुरूप चिह्न तथा प्रवाह का मार्ग बनाती जाती हैं। कुएं से पानी निकालने वाली बाल्टी
में बंधी रस्सी से सिल पर रस्सीनुमा स्थायी निशान बनता जाता है। शिशु हो या वयस्क मन में प्रवृत्ति
का निर्माण और विकास भी इसी ढंग से बार-बार के अभ्यास से होता है।
यह प्रवृत्ति बड़े महत्व की चीज है। इसका दोतरफा विकास होता है। यह बाहर-बाहर ही व्यवहार के रूप में
अभिव्यक्ति नहीं होती, वरन भीतर भी उतनी ही क्रियाशील रहती है। पौधा बाहर-बाहर नहीं बढ़ा, मिट्टी
के भीतर दबी उनकी जड़ भी विकसित होती और बढ़ती चलती है। विचार और कर्म भी पौधे हैं। नित्य
अभ्यास में आने पर विचार व कर्म का पौधा बाहर प्रवृत्ति के रूप में उभरता और अभिव्यक्त तो होता ही
है, साथ ही व्यक्ति के भीतर प्रकृति के अर्थात् स्वभाव के रूप में भी अपनी जड़ें फैलाता और पुष्ट होता
जाता है, स्वभाव का भी वैसा ही निर्माण और विकास होता जाता है।
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