भारत का ‘कत्र्तव्य पथ’

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विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )

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भारत एक बार फिर गुलामी से आज़ाद हुआ है। देश 75 साल पहले स्वतंत्र और संप्रभु हो चुका था,
लेकिन गुलामी के अवशेष बचे थे। अब भी कई प्रतीक-चिह्न, प्रतिमाएं, ऐतिहासिक स्मारक ऐसे हैं,

जो हमारी आज़ादी और संप्रभुता को चिढ़ाते प्रतीत होते हैं। ऐसे कई शिलालेख, दस्तावेज, ऐतिहासिक
साक्ष्य आदि राजशाही के तहखानों में दबे होंगे, जो अब नए म्यूजियमों के जरिए सार्वजनिक होंगे
और स्वतंत्र देश अतीत के सत्यों को देख-पढ़ सकेगा। आज ‘सेंट्रल विस्टा’ परियोजना बदलावकारी
वक़्त का विराट आंगन लगता है, लिहाजा महान और राष्ट्रवादी भी है, क्योंकि धीरे-धीरे गुलामी और
औपनिवेशिक दौर के प्रतीक-चिह्न खुरचे और मिटाए जा रहे हैं। उनके स्थान पर भारतीयता स्थापित
की जा रही है। यह हमारी सियासत और सत्ता का कत्र्तव्य-बोध भी है कि गुलामी की निशानियों को
लगातार मिटाया जाए और नए भारत का नया, स्वदेशी चेहरा सामने आए। नया इतिहास और नई
इबारतें लिखी जाएं। इस संदर्भ में राजधानी दिल्ली के ‘इंडिया गेट’ प्रांगण में नेताजी सुभाष चंद्र बोस
की 28 फुट ऊंची, काले पत्थर की, प्रतिमा की स्थापना और ‘किंग्स वे’ (राजपथ) का नामकरण बदल
कर ‘कत्र्तव्य पथ’ करना एक शुरुआती प्रयास है। यह महज एक पत्थर बदलने की कवायद नहीं है।
यह भारतीयता की प्राण-प्रतिष्ठा की जा रही है। लोकतंत्र की आत्मा और प्रेरणा अधिकार नहीं,
कत्र्तव्य है।
‘इंडिया गेट’ पर ऐतिहासिक छतरी के तले ब्रिटिश सम्राट किंग जॉर्ज पंचम की प्रतिमा 1968 तक
स्थापित रही। यह गुलामियत क्यों बरकरार रही? आज़ादी के पहले दो दशकों के दौरान हमारी सत्ता
और उस पर सवार राजनेता इतना साहस नहीं जुटा पाए कि अंग्रेजी सम्राट की प्रतिमा को हटा सकते!
आश्चर्य है! दरअसल इसे ही मन और मानसिकता की गुलामी कह सकते हैं, जिसने हमारे राजनीतिक
नेतृत्व को भीरू और बौना बना कर रखा। प्रधानमंत्री मोदी ने भी ऐसी ही गुलामी से आज़ादी का
आह्वान किया है। खुशी और देशभक्ति का एहसास हो रहा है कि देश के स्वतंत्रता संघर्ष के एक
महानायक की प्रतिमा उस स्थल पर स्थापित की गई है, जहां से ‘राष्ट्रपति भवन’ तक का 3.2
किलोमीटर का रास्ता अब ‘कत्र्तव्य पथ’ है। उस पथ के आसपास केंद्रीय सचिवालय, प्रधानमंत्री
आवास और दफ्तर, उपराष्ट्रपति आवास, 51 मंत्रालयों के दफ्तर और हमारे गणतंत्र, संविधान और
लोकशाही के सबसे महान और गरिमामय प्रतीक ‘संसद भवन’ आदि अपने नए रूपों को धारण कर
चुके हैं। सौंदर्यीकरण के अंतिम स्पर्श ही शेष हैं। इस साल संसद का शीत सत्र नए संसद भवन में
होगा। इससे महत्त्वपूर्ण राष्ट्रवाद और एकीकरण क्या हो सकते हैं? साउथ ब्लॉक, नॉर्थ ब्लॉक और
पुराने संसद भवन में म्यूजियम बनाए जाएंगे। ये किसी प्रधानमंत्री विशेष और मोदी के ‘महल’ का
निर्माण और विकास नहीं हो रहा है। संप्रभु और ‘सर्वश्रेष्ठ भारत’ का मार्ग भी ‘कत्र्तव्य पथ’ से होकर
ही गुजऱता है।
विपक्ष को गलती स्वीकार करनी चाहिए कि ‘मोदी महल’ पर 20,000 करोड़ रुपए नहीं फूंके गए हैं,
बल्कि ‘सेंट्रल विस्टा’ क्षेत्र विकसित किया जा रहा है, जिस पर कुल 2285 करोड़ रुपए खर्च होंगे।
अमरीका और फ्रांस के बाद भारत ऐसा देश है, जिसका अपना ‘सेंट्रल विस्टा’ होगा। आप ‘इंडिया गेट’
जरूर जाएं और खुद देखें कि ‘कत्र्तव्य पथ’ लाल ग्रेनाइट के पत्थरों से, जगमगाता हुआ, सुकूनदेय,
यातायात से दूर कितना सुंदर और खूबसूरत बना है। अच्छा लगेगा क्योंकि यह भारत का स्वदेशी पथ
और निर्माण है। विपक्ष इस पर भी सवाल उठाएगा कि लालकिला, ताजमहल, कुतुबमीनार आदि
ऐतिहासिक इमारतें और स्मारक भी ‘मुग़लई गुलामी’ की याद दिलाती हैं। दरअसल भारत विध्वंस का
समर्थक नहीं है। याद रखना चाहिए कि इन इमारतों को भी भारतीय मजदूरों और हुनरमंद मिस्त्रियों

ने बनाया था। मिट्टी, रेत, लोहा और पानी भी भारत के ही थे। बहरहाल यह बहस हम विपक्ष को
सौंपते हैं और तभी विस्तृत जवाब देंगे, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का यह निर्णय लोकतांत्रिक और
राष्ट्रवादी है कि 2023 के ‘गणतंत्र दिवस 26 जनवरी’ के अवसर पर जो ऐतिहासिक समारोह मनाया
जाएगा, उसके मुख्य अतिथि ‘कत्र्तव्य पथ’ के श्रमजीवी ही होंगे।

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