शिक्षा में बेरोजगारी का हुनर

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विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )

बेरोजगारी का हुनर अगर शिक्षा ने ओढ़ लिया है, तो हमें रोजगार के हुनर की तलाश होनी चाहिए। हिमाचल की
विडंबना यह है कि यहां रोजगार के सारे मायने और नौकरी के सारे सपने, सरकारों को अलंबरदार बना देते हैं।
यानी रोजगार का स्वामित्व ओढक़र सरकारें बेरोजगारी में से नौकरी का हुनर तलाशती हैं और इसके सदके अप्रत्यक्ष
रूप से सौदेबाजी होती है। ऐसे में प्रदेश की शिक्षा केवल एक इंतजाम है, न कि इसे रोजगार का मुकाम बनाने की
कोशिश हो रही है। इसी साल का ब्यौरा देखें, तो रोजगार कार्यालयों तक पहुंची बेरोजगारी के आलम में पौने लाख
के करीब स्नातकोत्तर उपाधियां खाक छान रही हैं, तो डेढ़ लाख स्नातक इस सूची में नाम दर्ज करवा चुके हैं। करीब
सवा छह लाख मैट्रिक और इससे नीचे अनपढ़ता और पढ़ाई के खाने में रोजगार के लिए करीब तीस हज़ार लोग
आशावान हैं। रोजगार पाने की इस ख्वाहिश से अलग भी युवाओं की एक दुनिया है, जो रोजगार कार्यालयों से बाहर
आकाश खोज रही है।
अधिकांश इंजीनियरिंग छात्र और एमबीए जैसे डिग्रीधारकों के लिए हिमाचल में रोजगार के मायने पैदा ही नहीं हुए,
नतीजतन अधिकांश युवा या तो सरकारी नौकरी के उपलब्ध विकल्पों से समझौता करते हैं या अपनी डिग्रियों को
कोसते हैं। हिमाचल के निजी विश्वविद्यालयों तथा इंजीनियरिंग कालेजों की योग्यता पर बट्टा लगाते रोजगार क्षेत्र
का हुनर, अगर शिक्षा का यही स्तर पैदा कर रहा है, तो सरकारी घोषणाओं से रहम की भीख मांगें। आश्चर्य यह
कि तकनीकी विश्वविद्यालय ने इंजीनियरिंग और बिजनेस स्कूलों के तबेले में डिग्रियां भेड़-बकरियां बना दीं।
हिमाचल से निकलती एमबीए की डिग्री अगर सरकारी नौकरी में क्लर्क भर्ती की प्रतीक्षा कर रही है, तो लानत ऐसे
संस्थान को दें या पठन-पाठन की ऐसी फिजूलखर्ची को कोसें। कमोबेश यही हाल आगे चलकर हिमाचल से निकलती
मेडिकल डिग्री का भी होगा, जब करीब आठ सौ डाक्टर बेरोजगारी से लाइलाज हो जाएंगे। हम शिक्षा विस्तार से
बेरोजगारी का हुनर पाल रहे हैं, जबकि हमारे हुनर में रोजगार की योग्यता पैदा नहीं हो रही। हिमाचल के अधिकांश
कालेज स्नातकोत्तर स्तर तक पहुंच कर अप्रासंगिक हो रहे हैं, लेकिन हर नेता को अपने वजूद में शिक्षा के ऐसे
तमगे ढोने हैं, सो युवा पढ़ कर काबीलियत खो रहे हैं।
यानी एक बच्चा मैट्रिक के बाद अगर रोजगार का रास्ता चुनते हुए हुनर सीख ले, तो यह उसके जीवन के लिए
कारगर होगा, लेकिन एमए करने के बाद अगर नौकरी पाने की भीड़ में खड़ा रहने का आदी हो जाए, तो जीवन
पश्चाताप से ही भीगता रहेगा। दरअसल शिक्षा का वर्तमान ढर्रा और सरकारों का शिक्षा के प्रति नज़रिया हमारे
बच्चों को बेरोजगार बना रहा है। होना इसके विपरीत चाहिए और यह रोजगार के लिए हुनर पैदा करने का माहौल
है जो शिक्षा में उचित व अनुचित का फर्क पैदा करता है। उदाहरण के लिए अगर हर स्कूल, कालेज और
विश्वविद्यालय से पूछा जाए कि शिक्षा के राग में रोजगार का हुनर पैदा करने में क्या किया, तो मालूम हो जाएगा
कि परिसरों में केवल डिग्रियां ही तप रही हैं। हमारी शिक्षा में स्वरोजगार, स्टार्टअप या नवाचार का हुनर अगर पैदा
ही नहीं होगा, तो तालीम केवल नौकरी के तलवे चाटने की एक लंबी प्रक्रिया बनकर रह जाएगी।

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रुपए और डॉलर की आंख-मिचौनी
-पूरन सरमा-
मैं सेंसेक्स और रुपए की गिरावट का खेल नहीं समझ पाया हूं। मेरा एक मित्र अर्थशास्त्र का प्रोफेसर है। उससे भी
मैंने दो-तीन बार समझने का प्रयास किया, लेकिन इतना ही समझ आया कि बाजार में रुपए की तुलना में डॉलर
की कीमत बहुत ज्यादा है, अत: आजकल लोगों में बाहर जाकर डॉलर कमाने की होड़ मची हुई है। मेरा बच्चा यहां
एक अच्छी कॉर्पोरेट कम्पनी में काम कर रहा है। लेकिन उसका अपनी मातृभूमि एवं रुपए से मोहभंग हो गया है।
वह कहता है कि जल्दी ही वीजा बनवाकर वह अमेरिका चला जाएगा। वहां जाकर और कुछ नहीं तो टैक्सी चला
लेगा, लेकिन कमाई डॉलरों में करेगा। मैंने समझाया भी कि मुन्ना घर की तो आधी रोटी का भी मुकाबला नहीं है,
लेकिन उसके फॉरेन जाने की तथा वहां जाकर बस जाने की धुन सवार है। उसका भी यह मानना है कि जीवन में
रुपयों की (डॉलरों की) बहुत आवश्यकता है।
स्वदेश में तो कोहनी भी मुंह में नहीं आती। यहां की महंगाई के सामने वह पस्त हो गया है। सरकार भरसक प्रयत्न
कर रही है कि सेंसेक्स संभला रहे तथा रुपए की कीमत बाजार में बढ़ जाए, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी रुपया
बुरी तरह लडख़ड़ा गया है तथा डॉलर के सामने उसकी कीमत शून्य जैसी हो गई है। सोने के भाव भी आसमान छू
रहे हैं। सरकार कह रही है कि लोग सोना खरीदना बंद कर दें तो रुपए की कीमत में सुधार हो सकता है, लेकिन
रिश्वत-कमीशन खाने वालों तथा काली कमाई करने वालों के समक्ष सरकार बेबस हो गई है। डॉलर की बढ़ती कीमत
ने मुझे डॉलर के दर्शनों का मैं दर्शनाभिलाषी बन गया। प्रोफेसर मित्र विदेश जाते रहते हैं, मैंने सोचा उनके पास तो
डॉलर होंगे, अत: वहीं उनके दर्शन करना ठीक रहेगा। मैें उनके दौलतखाने पर शाम को पहुंचा तो वे ही बोले- ‘डॉलर
देखने आए हो शर्मा? लो मैं दिखाता हूं तुम्हें डॉलर।’ वे अंदर गए और एक पूरी गड्डी ले आए और मेरे हाथ में
रखकर बोले- ‘लो इत्मीनान से देखो इसे। लेकिन किसी को बताना मत दोस्त।
वरना मेरे काले कारनामे सामने आ जाएंगे और मैं खामख्वाह कोर्ट-कचहरी के चक्करों में फंस जाऊंगा।’ मैंने डॉलर
की गड्डी को भरपूर नजरों से देखा और बोला- ‘यार दस-पंद्रह डॉलर मुझे दे दो। अपने लॉकर में रखना चाहता हूं
तथा दिवाली पर इसको पूजा में शामिल करना चाहता हूं।’ मित्र हंसकर बोले-‘शर्मा, तुम भी क्या याद रखोगे पूरा
पचास का बंच ले जाओ। मेरे पास तो बहुत हैं। बस सावधानी यह रखना इनका ब्लैक करने बाजार मत चले जाना।
वरना भइया जेलयात्रा हो जाए तो मुझे दोष मत देना।’ मैंने कहा-‘चिंता मत करो, मैं तो इन्हें घर के लॉकर की
शोभा बढ़ाने के लिए ले जाना चाहता हूं।’ मित्र ने पचास डॉलर मुझे दे दिए, मैंने उन्हें उनसे नि:शुल्क लेकर घर आ
गया। घर में आकर मैंने अपने लाड़ले को बुलाया-‘ये लो डॉलर, रखो अपने पास, लेकिन भैया देश त्यागने का इरादा
त्याग दो।’ वह लापरवाही से बोला-‘इतने से क्या होगा पापा? मैं इतना डॉलर कमाना चाहता हूं कि उसके लिए
विदेश में शिफ्ट होना ही पड़ेगा। थोड़े दिन बाद आपको और मम्मी को भी ले जाऊंगा।’ मैंने कहा-‘बेटा हमारे लिए
तो हमारी पेंशन पर्याप्त है। तू हमारा इकलौता आंखों का तारा है, सोचना तुम्हें है।’ उसने कहा-‘इन्हें संभालकर
अपने खजाने में रख लो, लेकिन प्लीज मुझे रोको मत फॉरेन जाने से पापा।’ यह कहकर वह घर से बाहर चला
गया। मैं कभी पचास डॉलर को तो कभी पत्नी को देख रहा था। मेरी समझ में नहीं आ रही थी, रुपए और डॉलर
की यह आंख मिचौनी।

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