



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )
मानूसन की शुरूआत से ही इस साल देश के कई राज्य भारी बारिश और बाढ़ के कहर से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं,
जहां के हालातों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है, मानो मानूसन के दौरान बाढ़ के कहर को झेलना अब लोगों की
नियति बन गया है। प्रतिवर्ष निर्मित होने वाली ऐसी परिस्थितियों को लेकर अब इन राज्यों के नीति नियंताओं की
सेहत पर कोई फर्क पड़ता नहीं दिखता। पर्वतीय क्षेत्रों हिमाचल, उत्तराखण्ड, जम्मू कश्मीर इत्यादि में तो इन दिनों
आसमानी आफत बरस रही है और भारी बारिश के कारण तबाही का मंजर साफ देखा जा रहा है। 20 अगस्त को
ही भारी बारिश, बाढ़, भूस्खलन तथा बादल फटने की घटनाओं के कारण इन राज्यों में 30 से भी ज्यादा लोग मारे
गए। उत्तराखंड के देहरादून जिले के एक गांव में 20 अगस्त की सुबह बादल फटने से काफी तबाही हुई। हिमाचल
प्रदेश के कांगड़ा जिले में चक्की नदी पर अचानक आई बाढ़ से शनिवार को पंजाब और हिमाचल को जोड़ने वाला
रेलवे का क्षतिग्रस्त चक्की पुल ढ़ह गया। हिमाचल के कांगड़ा, चंबा, बिलासपुर, सिरमौर, मंडी जिलों में भी तबाही
की काफी तस्वीरें सामने आई हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखण्ड इत्यादि कुछ अन्य राज्यों में भी लोग भारी
बारिश और बाढ़ से बेहाल हैं।
एक तरफ जहां उत्तर भारत के कुछ राज्य सूखे की आशंका से सहमे हैं, वहीं बीते कुछ दिनों से हो रही लगातार
बारिश से कई राज्यों में विभिन्न नदियों के जलस्तर में होती वृद्धि से कई तटीय इलाके भी बाढ़ की आंशका से
सहमे हैं और कुछ इलाके तो पूरी तरह जलमग्न हैं। यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि देश की राजधानी दिल्ली में
अब चंद घंटों की बारिश से ही बाढ़ जैसे हालात बन जाते हैं, वहीं देशभर में कई दूसरे राज्यों में भी अब कुछ घंटों
की लगातार बारिश से ही नदियां और बरसाती नालों में उफान आ जाता है। पहाड़ों में निरन्तर हो रही बारिश से
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कई जिलों में नदियां इस समय पूरे उफान पर हैं और बैराजों पर पानी की बढ़ोतरी
होने पर सम्पर्क नदियों में पानी डिस्चार्ज करना पड़ रहा है। उड़ीसा के उत्तरी हिस्सों में भी बाढ़ का खतरा मंडरा रहा
है। पहले से ही बाढ़ मार झेल रहे उड़ीसा के करीब 500 गांवों में लगभग चार लाख लोग फंसे हुए हैं। देशभर में
भारी बारिश और बाढ़ के कारण कई इलाकों में सड़कों पर आवागमन ठप्प है। कई क्षेत्रों में तो अनेक गांवों के बाढ़
की चपेट में आने के कारण प्रशासन को सड़कों पर नावें चलानी पड़ रही हैं।
पिछले साल भी कमोवेश ऐसे ही हालात थे और जब ऐसी परिस्थितियां निर्मित होने पर तमाम सरकारी दावों की
कलई खुलती है तो जिम्मेदार लोगों द्वारा यह कहकर पल्ला झाड़ने का प्रयास किया जाता है कि यह महज
प्राकृतिक आपदा है और प्रशासन द्वारा इससे निपटने के लिए हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री
नीतीश कुमार तो बिहार में भयानक बाढ़ को हमेशा ही प्राकृतिक आपदा बताकर पल्ला झाड़ते रहे हैं। करीब दो साल
पहले बिहार के गोपालगंज में 264 करोड़ रुपये की लागत से बने पुल का एक हिस्सा सरकारी निकम्मेपन के कारण
ढ़ह गया था। हैरत की बात तो यह थी कि उस पुल का ऑनलाइन उद्घाटन 16 जून 2020 को मुख्यमंत्री नीतीश
कुमार ने किया था और महज 29 दिनों बाद पुल ढ़ह जाने से पुल के निर्माण पर खर्च हुए 264 करोड़ रुपये पानी
में बह गए थे। उस वक्त भी राज्य के तत्कालीन पथ निर्माण मंत्री ने गैरजिम्मेदाराना बयान देते हुए कहा था कि
ऐसी प्राकृतिक आपदाओं में अक्सर सड़कें बह जाती हैं और पुल टूट जाते हैं।
महत्वपूर्ण सवाल यही है कि आखिर प्रतिवर्ष विभिन्न राज्यों में मानूसन के दौरान ऐसी ही स्थितियां सामने आने के
बावजूद समय रहते ऐसे कदम क्यों नहीं उठाए जाते ताकि बाढ़ से जान-माल के खतरे को न्यूनतम किया जा सके?
क्यों मानसून बीतते ही सब कुछ भगवान भरोसे छोड़कर समस्त प्रशासनिक अमला अगले मानसून तक चैन की
नींद सो जाता है? बाढ़ के कारण हर साल जनजीवन चौपट हो जाता है, लाखों लोग बेघर हो जाते हैं, सैंकड़ों लोग
और हजारों पशु मौत की नींद सो जाते हैं लेकिन ऐसे संभावित हालातों से निपटने के लिए सालभर कहीं कोई फिक्र
दिखाई नहीं देती। बाढ़ के कारण हर साल हजारों किलोमीटर सड़कें और अनेक पुल क्षतिग्रस्त होते हैं, जिससे देश
की अर्थव्यवस्था को अरबों रुपये का नुकसान होता है लेकिन किसी को इसकी परवाह नहीं। बिहार हो अथवा देश के
अन्य इलाके, प्रायः देखा यही जाता रहा है कि सरकारी तंत्र द्वारा हर साल मानसून के दौरान बाढ़ जैसे हालात पैदा
होने के बाद बांधों या तटबंधों की कामचलाऊ मरम्मत कर उन्हें भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है और बाढ़ का
तांडव सामने आने पर उसे प्राकृतिक आपदा की संज्ञा देने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं।
हर साल बांधों के टूटने और उनमें आने वाली दरारों के कारण बाढ़ का जो विकराल रूप सामने आता है, उसे देखते
हुए यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है कि बाढ़ को प्राकृतिक आपदा का नाम देकर पल्ला झाड़ने के बजाय ऐसे बांधों का
मानसून से पहले ही ईमानदारी से ऑडिट कराकर उनकी मजबूती और मरम्मत के लिए समुचित कदम क्यों नहीं
उठाये जाते? प्रशासन क्यों नहीं मानसून से पहले ही भारी वर्षा से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए
मुस्तैद होता? क्यों हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था हर साल मानसून के दौरान आपदाओं और चुनौतियों के समक्ष बौनी
और असहाय नजर आती है? हालात इतने खराब हो चुके हैं कि जब भी थोड़ी सी ज्यादा बारिश हो जाती है तो बाढ़
आ जाती है और थोड़ी सी कम वर्षा होते ही सूखे का संकट मंडराने लगता है। दरअसल हम अभी तक वर्षा जल का
संचय करने के लिए कोई कारगर योजना या उपाय नहीं कर सके हैं। हर साल जब भी बाढ़ जैसी आपदा एक साथ
लाखों लोगों के जनजीवन को प्रभावित करती है तो केन्द्र और राज्य सरकारों के मंत्री बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के हवाई दौरे
करते हैं और सरकारों द्वारा बाढ़ पीडि़तों के लिए राहत राशि देने की घोषणाएं की जाती हैं किन्तु जैसे ही बाढ़ का
पानी उतरता है, सरकारी तंत्र बाढ़ के कहर को बड़ी आसानी से भूल जाता है। देखा जाए तो करोड़ों लोगों की
जीवनरेखा को प्रभावित करती बाढ़ जैसी भयानक आपदाएं सरकारी तंत्र के लिए ‘सरकारी खजाने की लूट के उत्सव’
के समान बनकर रह गई हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा पर्यावरण मामलों के जानकार हैं और पर्यावरण पर ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक लिख
चुके हैं)