



विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )
आगामी विधानसभा चुनावों और उसके साथ 2024 के आम चुनाव में कांग्रेस दमदार तरीके से उतर सके, इसके
लिए सोनिया गांधी और उनके साथ कांग्रेस के कई कद्दावर नेताओं की टीम सक्रियता से जुटी हुई है। पिछले दिनों
सोनिया गांधी ने कांग्रेस के भीतर कई रणनीतिक बदलाव किए, खासकर मीडिया प्रबंधन पर काफी गंभीरता से
ध्यान दिया जा रहा है। इसका अच्छा असर भी देखने मिला है। इसके अलावा राहुल गांधी और प्रियंका गांधी अपने-
अपने स्तर पर मौजूदा सरकार की नाकामी को उजागर करने और जनता को जागरुक करने का काम कर ही रहे हैं।
अगले महीने की शुरुआत में कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा शुरु होगी, जो 148 दिन चलेगी।
इस यात्रा का अहम मकसद भारत में नफरत के बढ़ते कदमों को रोकना और एकजुटता का संदेश देना है, इसके
साथ ही कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में यह जोश भी भरना है कि वे सब मिलकर भाजपा का मुकाबला कर सकते हैं।
लेकिन इतनी सारी तैयारियों और मेहनत के बावजूद कांग्रेस की दशा ऐसी है कि दो कदम वह आगे बढ़ती है और
उसके भीतर से ही कोई उसे चार कदम पीछे खींचने का काम कर लेता है। इस काम में सबसे अधिक माहिर जी-23
के नेता हैं, जिनकी स्पष्ट पहचान होने के बावजूद उन पर कार्रवाई न करने का खामियाजा शायद पार्टी को भुगतना
पड़ेगा।
पिछले दिनों राज्यसभा चुनावों से पहले कपिल सिब्बल ने कांग्रेस छोड़ दी थी और अब वो समाजवादी पार्टी की ओर
से राज्यसभा सांसद हैं। देश के जाने माने वकील कपिल सिब्बल कांग्रेस से अपनी नाराजगी को लेकर लाख तर्क
गढ़ सकते हैं, लेकिन इस बात से वो भी इन्कार नहीं कर सकते कि कांग्रेस पार्टी में उन्हें न केवल मान-सम्मान
मिला, बल्कि महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां भी दी गईं। यही हाल गुलाम नबी आजाद का भी रहा, जिन्होंने पिछले दिनों
जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस की चुनाव समिति के प्रमुख का पद मिलने के कुछ घंटों बाद ही इस पद से इस्तीफ़ा दे
दिया।
जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस का कोई खास जनाधार नहीं है, लेकिन फिर भी राज्य में कांग्रेस एक महत्वपूर्ण दल है और
आजाद उसके कद्दावर नेता माने जाते हैं। पिछले कई महीनों से आजाद अपनी नाराजगी खुलकर दिखाते आए हैं
और कई बार तो वे भाजपा के नजदीक दिखाई दिए। राज्यसभा में जब उनका कार्यकाल खत्म हो रहा था तो उनकी
विदाई में मोदीजी ने बहुत भावुक होकर भाषण दिया था। किसी कांग्रेस सांसद के लिए प्रधानमंत्री मोदी की ऐसी
भावुकता हैरान करती है। बहरहाल, जब जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस को गुलाम नबी आजाद जैसे अनुभवी नेताओं की
जरूरत थी, उन्होंने किनारा कर लिया। उनके बाद अब यही काम हिमाचल प्रदेश में आनंद शर्मा ने किया है।
हिमाचल प्रदेश में कोई खास जनाधार न होने के बावजूद आनंद शर्मा को इस साल अप्रैल में हिमाचल प्रदेश चुनाव
समिति का प्रमुख बनाया गया था। साल के अंत में यहां चुनाव होने हैं और आनंद शर्मा चाहते तो उनकी
उपयोगिता साबित हो सकती थी। लेकिन उन्होंने इस वजह से इस पद से इस्तीफा दे दिया कि कांग्रेस पार्टी को
गांधी परिवार से हटकर सोचने की जरूरत है। आनंद शर्मा ने कहा कि ऐसा कोई कारण नहीं है कि कांग्रेस को राहुल
गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा तक ही सीमित रखा जाए। इस बयान से साफ है कि उन्हें कांग्रेस पर गांधी परिवार
के प्रभाव से परेशानी है। लोकतंत्र में हरेक को यह अधिकार है कि वह बता सके कि वह किस बात से परेशान है।
आनंद शर्मा ने भी अपने लोकतांत्रिक अधिकार का ही उपयोग किया है, लेकिन उन्होंने ये परेशानी तब बताई है कि
जब कांग्रेस में कोई पूर्णकालिक अध्यक्ष न मिलने की वजह से सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष का पद संभालने को
मजबूर हैं और राहुल गांधी कई लोगों के आग्रह के बावजूद अध्यक्ष पद पर बैठना नहीं चाहते। यानी गांधी परिवार
कांग्रेस को अपने तक सीमित नहीं रख रहा, लेकिन हालात ऐसे बन रहे हैं कि कांग्रेस की कमान गांधी परिवार के
हाथों में ही आती है। अब इस बात को कोई अपनी उपेक्षा या आत्मसम्मान को ठेस से जोड़ते हुए जिम्मेदारी लेने
से पीछे हटे तो फिर कांग्रेस आलाकमान को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि ऐसे नेताओं को आगे कितनी
तवज्जो दी जाए।
भाजपा इस वक्त गुजरात और हिमाचल प्रदेश में अपनी सत्ता बचाने की जुगत में है, क्योंकि उसे कांग्रेस से गंभीर
चुनौती मिल सकती है। लेकिन ऐसा लगता है कि कांग्रेस खुद अपने हाथों इस मौके को गंवा रही है। विधानसभा
चुनावों के साथ-साथ भाजपा ने 2024 के लिए अभी से सीटों का लक्ष्य तय कर लिया है और उस हिसाब से
रणनीति भी बना रही है। भाजपा को अगर ऐसा लगता है कि किसी राज्य में उसकी सरकार उसके प्रदर्शन पर बुरा
असर डाल सकती है तो रातों रात मुख्यमंत्री के साथ-साथ समूचे केबिनेट को बदलने जैसा कठोर कदम उठा लिया
जाता है।
पिछले महीनों में ऐसे कई उदाहरण हमने देखे हैं। अपनी कमजोर कड़ियों को दुरुस्त कर भाजपा चुनाव में जीत
सुनिश्चित कर लेती है। सफल प्रबंधन का यही तरीका होता है। लेकिन कांग्रेस इस तरह के प्रबंधन में बार-बार
नाकाम हो रही है। कमजोर कड़ियों की शिनाख्त होने के बावजूद हम साथ-साथ हैं वाला अभिनय करने का कोई
अर्थ नहीं। जनता के बीच इससे कोई अच्छा संदेश नहीं जाएगा। बल्कि चुनाव के पहले जब आनंद शर्मा जैसे लोग
भड़ास निकालते हुए फैसले लेते हैं, तो उससे कांग्रेस की छवि कमजोर होती है। कांग्रेस अपनी इन कमजोरियों को
दुरुस्त कर लेगी, तभी भाजपा को कड़ी चुनौती दे पाएगी।