उर्दू कहानी: घूंघट

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विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )

वृद्धावस्था में भले ही दादी सफेद संगमरमर का ढेर लगती थीं लेकिन किशोरावस्था-युवावस्था में उनका रूप
दमकता था। उनकी शादी काले मियां से हुई, जिन्होंने अपने गुरूर में आकर शादी की पहली रात उनसे अपना घूंघट
उठाने को कहा। लेकिन शर्माती दुल्हन जरा हिचकिर्चाइं और दूल्हे मियां घर छोड़ भाग लिए। फिर कैसे गुजरी गोरी
बी की जिंदगी, एक मार्मिक कहानी।
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सफेद चांदनी बिछे तख्त पर बगुले के परों से ज्यादा सफेद बालों वाली दादी बिल्कुल संगमरमर का भद्दा सा ढेर
लगती थीं, जैसे उनके शरीर में खून की एक बूंद न हो। उनकी हल्की सुरमई आंखों की पुतलियों तक सफेद रेंग
आई थी, जब वे अपनी बेनूर आंखें खोलतीं तब ऐसा लगता जैसे सब दरवाजे बंद हों। खिड़कियां मोटे परदों के पीछे
सहमी छिपी बैठी हों। उन्हें देखकर आंखें चुंधियाने लगती थीं, जैसे इर्द-गिर्द पिसी हुई चांदी का गुब्बार फैला हो।
सफेद चिनगारियों सी फूट रही हों। उनके चेहरे पर पवित्रता और यौवन का नूर था। अस्सी वर्ष की कुंवारी को कभी
किसी मर्द ने हाथ नहीं लगाया था।जब वे तेरह चैदह साल की थीं, तब बिल्कुल फूलों का गुच्छा लगती थीं। सुनहरे

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बाल और मैदा एवं आग जैसी रंगत, आग जमाने की गर्दिश ने चुस ली। केवल मैदा रह गई थी। उनकी सुंदरता की
ऐसी ख्याति थी कि अम्मा बाबा की नींद हराम हो गई थी।
फिर उनकी सगाई हमारी अम्मा के मामू के साथ हो गई। क्या मजेदार जोड़ी थी। जितनी दुल्हन गोरी थी उतने ही
मियां स्याह भट थे। रंगत को छोड़कर हुस्न एवं मर्दानगी का नमूना थे। क्या डसती हुई फटारा आंखें! तलवार की
धार जैसी खड़ी नाक और मोतियों को मात देने वाले दांत। मगर अपने रंगत की स्याही से बुरी तरह चिढ़ते थे।जब
सगाई हुई तब सब ने छेड़ा, हाय! दूल्हा हाथ लगाएगा तो दुल्हन मैली हो जाएगी।काले मियां उस समय सत्रह वर्ष
के उद्दंड, बिगडे-दिल बछेडे थे। उन पर दुल्हन के हुस्न का कुछ ऐसा आतंक छाया कि रात ही रात जोधपुर अपने
नाना के यहां भाग गए। दबी जबान से अपने हम उम्रों से कहा, मैं यह शादी नहीं करूंगा। यह जमाना था जब चूं-
चरा करने वालों को जूते से ठीक कर लिया जाता था।
और फिर दुल्हन में अवगुण क्या था? यही कि वह बेहद सुंदर थी। दुनिया सुंदरता की दीवानी है और आप सुंदरता
से बेजार! अशिष्टता की हद हो गई! वह अभिमानी है, दबी जबान से कहा। कैसे मालूम? चुप, कोई सबूत नहीं।
मगर हुस्न, जाहिर है, अभिमानी होता है… और काले मियां किसी का अभिमान झेल जाएं, यह असंभव है।
नाक पर मक्खी बिठाने को वे तैयार नहीं थे।बहुत समझाया कि मियां वह तुम्हारे निकाह में आने के बाद तुम्हारी
मिल्कियत होगी। तुम्हारे हुक्म से दिन को रात और रात को दिन कहेगी। जिधर बिठाओगे। उठाओगे, उठेगी।कुछ
जूते भी पड़े और आखिरकार काले मियां को पकड़ बुलाया गया और शादी कर दी गई। डोमिनियां ने कोई गीत गा
दिया, गोरी दुल्हन और काले दूल्हा का। इस पर काले मियां फनफना उठे। ऊपर से किसी ने चुभता हुआ सेहरा पढ़
दिया। किसी ने उनकी उद्विग्नता को गंभीरता से न लिया और छेड़ते रहे।
दूल्हा मियां नंगी तलवार बने जब दुल्हन के कमरे में पहुंचे तब लाल चमकदार फूलों में उलझी दुल्हन देखकर जी
चाहा, अपनी स्याही उस सफेदी में ऐसी घोंट डालें कि भद ही खत्म हो जाए। कांपते हाथों से घूंघट उठाने लगे तो
दुल्हन बिल्कुल औंधी हो गई। अच्छा तुम खुद ही घूंघट उठा दो। दुल्हन और नीचे झुक गई। हम कहते हैं, घूंघट
उठाओ, डपट कर बोले दूल्हे मियां। दुल्हन बिल्कुल गेंद बन गई।
अच्छा जी इतना गुरूर। दूल्हे ने जूते उतारकर बगल में दबाए पिछले बाग वाली खिड़की से कूदकर सीधे स्टेशन।
फिर जोधपुर। उन दिनों तलाक-वलाक का फैशन नहीं चला था। शादी हो जाती थी तो बस हो जाती थी। काले मियां
सात वर्ष घर से गायब रहे। दुल्हन ससुराल और मायके के बीच लटकी रही। मां को रुपया पैसा भजते रहे। घर की
औरतों को पता था कि दुल्हन अनछुई रह गई। होते-होते मर्दों तक बात पहुंची। काले मियां से पूछताछ की गई। वह
अभिमानी है। कैसे मालूम? हमने कहा, घूंघट उठाओ, नहीं सुना। अजीब गावदी हो! अमां, कहीं दुल्हन खुद घूंघट
उठाती है? तुमने उठाया होता। हरगिज नहीं, मैने कसम खाई है। वह खुद घूंघट नहीं उठाएगी तो चूल्हे में जाए।
अमां, अजीब नामर्द हो! दुल्हन से घूंघट उठाने को कहते हो! अजी लाहौल वला कुव्वत! गोरी बी के मां-बाप इकलोती
बेटी के गम में घुलने लगे।
नानी अम्मा की हालत खराब हुई तो सात वर्ष बाद काले मियां घर लौटे थे। फिर बीवी से मिलाप कराने की कोशिश
की गई। फिर से गोरी बी को दुल्हन बनाया गया। मगर काले मियां ने कह दिया, अपनी मां की कसम खा चुका हूं-
घूंघट मैं नहीं उठाऊंगा। सबने गोरी को समझाया, देखो बन्नो, सारी उम्र का भुगतान है। शर्म हया को रखो ताक में

और जी कड़ा करके तुम आप ही घूंघट उठा देना इसमें कुछ बेशर्मी नहीं। वह तुम्हारा पति है मिजाजी खुदा है
उसकी फरमा-बरदारी तुम्हारा फर्ज है। तुम्हारी मुक्ति उसका हुक्म मानने में है।
फिर से दुल्हन सजी। सेज सजी। पुलाव जरदा पका और दूल्हा मियां दुल्हन के कमरे में धकेले गए। गोरी बी अब
इक्कीस वर्ष की अत्यंत सुंदरी थी। आंखें बोझल थीं। सांसें भारी थीं। सात वर्ष उन्होंने इसी घड़ी के सपने देखकर
बिताए थे। हम उम्र लड़कियों ने बीसियों भेद बताकर दिल को धड़कना सिखा दिया था। दुल्हन के मेहंदी लगे हाथ
पैर देखकर काले मियां के सिर पर जिन्न मंडराने लगे। उनके सामने उनकी दुल्हन रखी थी। चैदह वर्ष की कच्ची
कली नहीं, एक पूरा गुलदस्ता। अब तक दुल्हन की सूरत नहीं देखी थी। बदकारियों में भी उस रसभरी दुल्हन की
कल्पना दिल पर आरी चलाती रही थी।
घूंघट उठाओ, उन्होंने कांपती हुई आवाज में हुक्म दिया। दुल्हन की अंगुली भी नहीं हिली। घूंघट उठाओ, वे रुआंसे
हो गए। निःशब्दता छायी रही। अगर मेरा हुक्म नहीं मानोगी तो फिर मुंह नहीं दिखाऊंगा। दुल्हन टस से मस न
हुई। काले मियां ने घूंसा मारकर खिड़की खोली और पिछले बाग में कूद गए। उस रात के गए वे फिर कभी न
लौटे। अनछुई गोरी बी तीस साल तक उनका इंतजार करती रहीं। सब मर-खप गए। एक बूढ़ी खाला के साथ
फतेहपुर सीकरी में रहती थीं कि सुना दूल्हा आए हैं। दूल्हा मियां मोरियों में लोट-पोटकर आखिरी दम वतन लौटे।
उन्होंने याचना की, कि गोरी बी से कहो-आ जाए कि दम निकला जाए।
गोरी बी खंभे से माथा टिकाए हुए खड़ी रहीं। फिर उन्होंने संदूक खोलकर अपना तार-तार सुहाग जोड़ा निकाला।
आधे सफेद सिर में सुहाग का तेल डाला और घूंघट संभालती हुई अंतिम सांस लेते रोगी के सिरहाने पहुंची। घूंघट
उठाओ, काले मियां ने तंद्रावस्था में सिसकी भरी। गोरी बी के लरजते हुए हाथ घूंघट तक उठे और नीचे गिर गए।
काले मियां दम तोड़ चुके थे। उन्होंने वहीं उकड़ू बैठकर पलंग के पाए पर चूड़ियां तोड़ी और घूंघट के बजाए सिर पर
वैधव्य का सफेद दुपट्टा खींच लिया।
(अनुवादः सुरजीत)

कविता
तोड़ती पत्थर
-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला-
वह तोड़ती पत्थर
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बंधा यौवन
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगीं छा गई
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार
देखकर कोई नहीं
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं
सजा सहज सितार
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
मैं तोड़ती पत्थर।

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