हैवानियत की सारी हदें पार करता 'इंसान'

हैवानियत की सारी हदें पार करता 'इंसान' | 'Man' crosses all limits of  inhumanity | हैवानियत  की सारी हदें पार करता 'इंसान'

विनीत माहेश्वरी (संवाददाता )

क्रूरता की जब कभी बात होती है तो लोग 'जानवरों' जैसे व्यवहार की मिसाल देते हैं। परन्तु इंसान
जैसे 'बुद्धिमान' समझे जाने वाली 'प्राणी' के हवाले से कुछ ऐसी घटनायें सामने आने लगी हैं गोया
अब इंसानों की क्रूरतम 'कारगुज़ारी' के लिये 'पशुओं जैसी क्रूरता' या 'हैवानियत' की बात करने जैसी
उपमायें भी छोटी मालूम होने लगी हैं। क्योंकि किसी पशु या उसके द्वारा की जा रही हैवानियत की
मिसाल देना इसलिये भी बेमानी है क्योंकि किसी पशु द्वारा अपने स्वभावानुसार पशुता दिखाना या
किसी जानवर द्वारा अपना पाशविक स्वभाव या पशुवृत्ति दर्शाना उसकी मनोवृति में शामिल है। वे
किसी नियम क़ानून के अधीन नहीं आते बल्कि उनका सम्पूर्ण आचरण वैसा ही होता है जैसा प्रकृति
ने उन्हें बख़्शा है। परन्तु इंसान को तो प्रकृति का 'सर्वश्रेष्ठ प्राणी' माना जाता है। अपनी बुद्धि के
सदुपयोग से यही 'अशरफ़-उल-मख़लूक़ात' आज चाँद और मंगल के रास्ते नाप रहा है। इस संसार में
समाज के ग़रीब व पिछड़े लोगों की सहायता के लिये अनेक बड़े से बड़े संगठन बनाकर मानव ने
अपने कोमल ह्रदयी होने का सुबूत दिया है। पूरा विश्व समाज किसी न किसी रूप में एक दूसरे पर
निर्भर है। गोया इसी मानवीय सदबुद्धि, विश्वास और सहयोग की बदौलत ही दुनिया आगे बढ़ रही
है।
परन्तु इसी मानव समाज में ऐसी क्रूरतम प्रवृति के लोग भी पाये जाने लगे हैं जिनके आगे पशुओं
की पशुता और राक्षसों का राक्षसीपन भी फीका पड़ जाये। मनुष्य द्वारा मनुष्य की ही हत्या किये
जाने की घटनायें तो प्राचीन काल से होती आ रही हैं। सत्य-असत्य की लड़ाई के नाम पर, युद्ध और
धर्म युद्ध के नाम पर, आन-बान-शान के लिये, ज़र-जोरू और ज़मीन की ख़ातिर, ऊंच-नीच, धर्म –
जाति आदि को लेकर मानव समाज एक दूसरे के ख़ून का हमेशा से ही प्यासा रहा है। परन्तु आज
के दौर में जबकि तथाकथित धर्म का बोलबाला है, प्रवचन कर्ताओं की पूरी फ़ौज दिन रात समाज को
ज्ञान और नैतिकता का पाठ पढ़ाती रहती है। धार्मिक समागमों में भीड़ पहले से कई गुना बढ़ती जा
रही है। देश में एक से बढ़कर एक लोकप्रिय प्रेरक, लोगों को जीने की कला और सफल जीवन जीने
के गुण सिखाते रहते हैं। दूसरी और इंसान है कि अपने आचरण, कृत्यों व सोच विचारों के लिहाज़ से
बद से भी बदतर होता जा रहा है। बलात्कार, मासूम बच्चियों से बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, और
इन सब के साथ ऐसी वहशियाना हरकतें करना कि पीड़िता तड़प तड़प कर जान दे दे? ऐसे कुकृत्य
और ज़ुल्म तो जानवरों को भी करते नहीं देखा गया? इंसानों को ज़िंदा जला देना, किसी व्यक्ति को
वाहन में बाँध कर उसे सड़कों पर घसीट कर मार डालना इतनी बेरहमी आख़िर कोई इंसान कैसे कर
सकता है?
और अब तो इन्सान, इंसान को मारकर उसकी लाशों के टुकड़े करने में भी पीछे नहीं रहा। राजधानी
दिल्ली में एक व्यक्ति ने लिव-इन रिलेशन शिप में रह रही अपनी एक महिला मित्र की न केवल

हत्या करदी बल्कि उसके शरीर को 35 टुकड़ों में काट कर उन अंगों को 18 दिनों तक हत्यारा दिल्ली
के विभिन्न क्षेत्रों में नालों व तालाबों में फेंकता रहा। दिल्ली का ही तंदूर काण्ड तो देश कभी भूल ही
नहीं सकता जबकि एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को मार कर उसकी लाश के टुकड़े कर उन्हें तंदूर में
जला दिया था। कोई बाप ने अपनी ही जवान बेटी की गोली मार कर हत्या कर उसकी लाश बड़ी
बेरहमी से एक सूटकेस में ठूंस कर यमुना एक्सप्रेस वे पर सड़क किनारे लाश से भरा सूटकेस फेंक
गया। बंगाल में एक नेवी अधिकारी को उसकी पत्नी और बेटे ने मिलकर पहले तो जान से मारा फिर
बाथरूम में उसकी लाश रखकर आरी से उसके शरीर के छः टुकड़े किये और उन्हें इलाक़े के विभिन्न
हिस्सों में फेंक दिया। पति पत्नी और लिव इन रिलेशन शिप में होने वाली हत्याओं का तो सीधा अर्थ
है भरोसे और विश्वास की हत्या। पिता-पुत्र-मां-बहन-भाई-बहनोई-साले आदि संबंधों के मध्य होने वाली
हत्याओं का अर्थ है रिश्तों का क़त्ल। परन्तु आज के युग में तो रिश्तों और भरोसों का क़त्ल गोया
सामान्य घटना बनती जा रही है।
कभी कभी तो विचार आता है कि ऐसी घटनाओं में प्रायः एक दो चार सिर फिरे व क्रूर प्रवृति के
लोग ऐसे कारनामे अंजाम दे डालते हैं। और यदि यहाँ अधिक लोग होते तो शायद ऐसी घटना न
घटती। परन्तु ऐसे विचार भी तब बेमानी नज़र आने लगते हैं जब हम दंगाइयों की सामूहिक भीड़ की
क्रूरता पर नज़र डालते हैं। याद कीजिये 1984 में एक धर्म विशेष के लोगों को किस बेरहमी से क़त्ल
किया गया था। भीड़ ज़िंदा लोगों को टाँगें पकड़ कर मारते हुये खींचते हुये जगह जगह इंसानों की
जलती चिताओं में फेंक रही थी। गले में जलते हुये टायर डाल कर हत्यायें हो रही थीं। लोगों को
उनके घरों में आग लगाकर ज़िंदा जलाया जा रहा था। आम लोग तो क्या पुलिसकर्मी भी इन्हें बचाने
नहीं आ रहे थे। 2002 का गुजरात याद कीजिये। कैसे ट्रेन के डिब्बे में आग लगाकर दंगाइयों ने 59
लोगों को ज़िंदा जला दिया था। उसके बाद गुजरात के बड़े क्षेत्र में दंगाइयों द्वारा महिलाओं के साथ
सामूहिक बलात्कार, महिलाओं का स्तन काटा जाना, उनके पेट फाड़ कर बच्चा बाहर निकालना,
शरीर के टुकड़े टुकड़े करना, धर्म विशेष की पूरी की पूरी बस्ती आग के हवाले कर देना, और इस
तरह के न जाने कितने ज़ुल्म धर्म के नाम पर धर्मांध भीड़ द्वारा दिल्ली गुजरात जैसी कई जगहों
पर किये जाते रहे हैं।
कुछ अति शरारती तत्व हमारे ही समाज में ऐसे भी हैं जो केवल अपने राजनैतिक लाभ के लिये
अपने आक़ाओं के इशारे पर ऐसी क्रूरतम घटनाओं में अपराधी की धर्म-जाति देखकर ही प्रतिक्रिया
करते हैं। यह चलन और भी बेहद ख़तरनाक है। यदि हत्यारा या जघन्य अपराधी उनकी अपनी
बिरादरी या धर्म का है तो वे ख़ामोश रहेंगे। केवल ख़ामोश ही नहीं बल्कि प्रायः अपराधी यहाँ तक कि
हत्यारे, बलात्कारी व सामूहिक बलात्कार के दोषी का खुलकर पक्ष भी लेने लगेंगे। और यदि अपराधी
दूसरे धर्म-जाति का है फिर तो समाज में आग लगाने की पूरी कोशिश करेंगे। ऐसे लोगों की भी
गिनती क्रूर अपराधी मानसिकता रखने वालों में ही की जानी चाहिये। समाज को ऐसे लोगों व उनके
इरादों के प्रति सचेत रहने की ज़रुरत है। विशेषकर हमारे समाज को ही इस बात पर चिंतन मंथन
करने की ज़रुरत है कि आख़िर क्या वजह है और उसके संस्कारों में क्या कमी रह गयी है कि आज
इंसान हैवानियत की सारी हदें पार करता जा रहा है।

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